भगवन्नामका महत्त्व
सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। विशुद्ध होकर तथा सारे पापोंको छोड़कर जो भगवान्का नाम लिया जाता है, उसका तो कहना ही क्या है। हमलोगोंको यही आदर्श सामने रखना चाहिये कि भगवन्नाम लेनेपर हमारे हृदयमें पाप-संस्कारका लेश भी न रहे; परंतु जो लोग अभी पापसे नहीं छूटे हैं, इच्छा न होनेपर भी जिनके मन-तनसे पापाचरण बन जाते हैं, वे क्या करें? उनके पापनाशका उपाय भी तो नाम-जप ही है। अतएव पाप-नाश होनेके बाद नाम-जप करेंगे, ऐसी धारणा ठीक नहीं। पहले नाम-जप करके पापोंका नाश कर लीजिये, फिर विशुद्ध होकर परम प्रेमपूर्वक नाम-जपका विलक्षण आनन्द लूटिये। भगवान्के नाममें विलक्षण पापनाशिनी शक्ति है। जिस किसी प्रकार भी भगवान्के नामका जीभसे स्पर्श हो जाना चाहिये, उससे पाप-नाश होते हैं।
स्कन्दपुराणमें आता है—
हास्याद् भयात्तथा क्रोधाद् द्वेषात् कामादथापि वा।
स्नेहाद्वा सकृदुच्चार्य विष्णोर्नामाघहारि च॥
(वैशाख० २१।३६)
‘हँसीसे, भयसे, क्रोधसे, द्वेषसे, कामसे या स्नेहसे—किसी भी प्रकारसे एक बार भगवान्के नामका उच्चारण पापोंका नाश करनेवाला होता है।’
श्रीमद्भागवतमें कहा है—
साङ्केत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदु:॥
(६।२।१४)
‘संकेतसे, हास-परिहाससे, स्तोभसे (विश्रामके लिये), अवहेलनासे—किसी प्रकार भी भगवान्का नाम लेनेपर वह पापोंका अशेष हरण करनेवाला होता है।’
यह उक्ति तो प्रसिद्ध भी है—
सकृदपि परिगीतं श्रद्धया हेलया वा
भृगुवर नरमात्रं तारयेत् कृष्णनाम।
‘श्रद्धासे हो या अवहेलनासे, कोई मनुष्य एक बार भी श्रीकृष्णका नाम ले लेता है तो वह उसे तार देता है।’