भगवत्-सेवा ही मानव-सेवा है
सादर नमस्कार! पत्र मिला। मानव-सेवा निश्चय ही परम श्रेष्ठ साधन है; परंतु मानव-सेवा यथार्थरूपमें तभी होती है, जब प्रत्येक मानवको भगवान्का स्वरूप समझा जाता है। जगत्में जितने भी प्राणी हैं—सभी मानो श्रीभगवान्के शरीर हैं—विभिन्न अनन्त रूपों, आकृतियों, स्वभावों और परिस्थितियोंको स्वाँगके रूपमें धारणकर एक भगवान् ही अनन्त विचित्र लीला कर रहे हैं। यह बात जब हमारी समझमें आ जाती है, तब हम सबको भगवान् मानते हुए, सबके प्रति राग-द्वेषविहीन होकर सबका समान आदर करते हुए उनके स्वाँगके अनुरूप उनकी आवश्यकताओंको समझकर सबकी यथासाध्य और यथायोग्य सेवा करनेका प्रयास करते हैं। उस सेवामें स्वाँगके अनुसार भेद रहनेपर भी न तो आसक्ति होती है, न विद्वेष होता है। साथ ही स्वाभाविक ही यह भी भाव रहता है कि ‘हम तो सेवामें केवल निमित्तमात्र हैं। सेवा करनेकी प्रेरणा, शक्ति और साधन सब प्रभुके ही यहाँसे आते हैं। प्रभु स्वयं अपनी ही वस्तुओंसे, आप ही प्रेरणा करके, अपनी ही शक्तिसे अपनी सेवा करवाते हैं। इसमें न तो हमारा किसीके प्रति उपकार है, न हम किसीकी सेवा करते हैं, न किसीपर अहसान ही है।’ जबतक इस प्रकार सर्वत्र भगवद्भाव नहीं होता और जबतक समस्त वस्तुओंपर, सारी शक्तियोंपर और समस्त प्रवृत्तियोंपर प्रभुका स्वामित्व नहीं जान लिया जाता, तबतक यथार्थ मानव-सेवा नहीं होती। कहीं अहंकार-अभिमानकी सेवा होती है तो कहीं कामना-वासनाकी।
सच्ची बात तो यह है कि भगवान्की सेवा ही मानव-सेवा है। समाज-सेवा, देश-सेवा, मानव-सेवा, विश्व-सेवा, लोक-हित, लोकसंग्रह आदि शब्द मोह पैदा करनेवाले ही होते हैं यदि समाज, देश, मानव, विश्व और लोकमें भगवद्भाव नहीं होता। फिर कर्तव्यपालनके नामपर भी अभिमानकी सेवाका प्रमादपूर्ण कार्य होता है। प्रिय सेवककी व्याख्या करते हुए भगवान् श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं—
सो अनन्य जाकें असि
मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर
रूप स्वामि भगवंत॥
‘चराचर समस्त जगत् श्रीभगवान्का स्वरूप है और मैं उसका सेवक हूँ।’ जबतक यह भाव नहीं होता, तबतक हमारे द्वारा सेवाके नामपर किये जानेवाले कर्म राग-द्वेषमूलक होनेके कारण यथार्थ सेवा नहीं बन पाते, इसके विपरीत कई बार तो वे जगत्को हानि पहुँचानेवाले हो जाते हैं—
श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा गया है—
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(१८।४६)
‘जिन भगवान्से समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिनसे यह सारा जगत् व्याप्त है, उनको अपने कर्मोंके द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होता है।’ अभिप्राय यह कि मानो सम्पूर्ण विश्व-चराचरमें भगवान्को देखकर राग-द्वेषरहित हो परम आदरके साथ उनकी यथायोग्य सेवा की जाय, तब सबकी यथार्थ सेवा होती है, या केवल भगवान्की ही सेवामें—उन्हींके भजनमें संलग्न रहा जाय तब सबकी यथार्थ सेवा होती है। दोनों ही प्रकारोंमें प्रधान दृष्टि रहती है—भगवान्की ओर। श्रीमद्भागवतमें ब्रह्माजीके वचन हैं—
यथा हि स्कन्धशाखानां तरोर्मूलावसेचनम्।
एवमाराधनं विष्णो: सर्वेषामात्मनश्च हि॥
(८।५।४९)
‘जैसे वृक्षकी जड़में जल सींचनेसे उसके स्कन्ध-शाखाओंमें अपने-आप ही जल सिंचा जाता है; वैसे ही सर्वात्मा भगवान्की आराधना करनेसे सबकी और अपनी भी आराधना हो जाती है।’
भगवान् ही समस्त विश्वके अभिन्ननिमित्तोपादान कारण हैं, वे ही सबके मूल हैं, आधार हैं, आत्मा हैं। अत: उन सर्वकारण-कारण सर्वात्मा भगवान्की सेवासे अपने-आप ही सबकी सेवा हो जाती है। जगत्की सेवाका प्रयत्न हो और भगवान्को न माना जाय या उनका विरोध किया जाय तो वह ऐसा ही होता है, जैसे पेड़की डाल-पत्तियोंको सींचना और उसके मूलमें कुठाराघात करना! इससे विश्व-वृक्ष नहीं पनप सकता। यह उसकी सेवा नहीं, वरं संहार ही है।
जो मनुष्य भगवान्का आराधन नहीं करते, न उनका विरोध ही करते हैं और यथासाध्य सचाईके साथ लोकसेवा करना चाहते हैं, उनके द्वारा भी कुछ लाभ होता है; परंतु वह भी होता है भगवान्से ही। जैसे कोई मनुष्य वृक्षकी जड़को न तो काटता है, न उसमें विष बिखेरता है और न जलसे सींचता ही है; परंतु डाली-पत्तोंपर पानी उँड़ेला करता है। यद्यपि यह उसका अज्ञान है तथापि डाली-पत्तोंसे बहकर जितना पानी जड़में पहुँचता है, उतनेसे वृक्षको रस पहुँच जाता है; परंतु वह रस मिलता है जड़के द्वारा ही। वैसे ही भगवान् ‘सर्वलोकमहेश्वर’ और ‘समस्त यज्ञतपोंके भोक्ता’ हैं। किसीके नामपर भी जो कुछ भी सेवा-पूजा होती है, सब उन्हींको पहुँचती है और वहींसे उसके फलका भी विधान होता है। अतएव यदि केवल भगवान्का भजन हो तो उससे विश्वकी महान् सेवा स्वयमेव हो जाती है।
योगेश्वर कविने कहा है—
खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरे: शरीरं
यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्य:॥
(श्रीमद्भा० ११।२।४१)
‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, समस्त प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-लता, नदी, समुद्र—सब श्रीभगवान्के शरीर हैं। ऐसा समझकर वह, जो कोई भी प्राणी उसके सामने आता है, उसीको अनन्य भगवद्भावसे प्रणाम करता है।’
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
इस प्रकार प्राणिमात्रमें भगवद्भाव होना चाहिये, फिर उसके द्वारा जो कुछ होता है, वह सेवा ही होती है और वही सच्ची विश्वसेवा है।
इसलिये मेरी रायमें आपको मानव-सेवाके मोहक नामके पीछे पागल न होकर भगवत्सेवाके द्वारा ही मानव-सेवा करनेका अभ्यास करना चाहिये। इसका यह अर्थ नहीं कि आप अपनी जीवनचर्यामें किसीके दु:खमें उपेक्षा करें और समर्थ होनेपर भी सेवा न करें। आपके पास तन-मन-धन जो कुछ है, सबको श्रीभगवान्का समझकर जहाँ जैसी आवश्यकता हो भगवत्स्मरण करते हुए ही भगवत्प्रीत्यर्थ वहाँ उसे लोक-सेवामें अवश्य लगावें—सहज स्वाभाविकरूपसे। भगवान्की चीज भगवान्के काममें आवे और आपको उसमें निमित्त बननेका सौभाग्य मिले, यह तो आपका सौभाग्य है।