मन-इन्द्रियोंकी सार्थकता
सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। मैं क्या लिखूँ। जीवनमें जो करना चाहिये था, जिसकी बड़ी आकांक्षा थी, वह अभी नहीं कर पाया। आज भी मन-इन्द्रिय संसारमें ही लगे हैं! वह धन्य और पुण्य दिवस तो आया ही नहीं, जब प्रत्येक इन्द्रिय अनवरत भगवान्की सेवामें ही लगी हो। आप जो कुछ कर रहे हैं, कीजिये। जीवनके प्रत्येक क्षणको और इन्द्रियोंकी प्रत्येक चेष्टाको प्रभुकी सेवामें लगाकर उन्हें कृतार्थ बनाइये। यही जीवनका परम और चरम फल है। मैं तो ऐसा नहीं हो सका। आप ऐसे बनिये। श्रीसूरदासजीने गाया है—
सोइ रसना जो हरिगुन गावै।
नैननकी छबि यहै चतुरता,
ज्यों मकरंद मुकुंदहि ध्यावै॥
निर्मल चित तौ सोई साँचो,
कृष्ण बिना जिय और न भावै।
स्रवननकी जु यहै अधिकाई,
सुनि हरि-कथा सुधारस प्यावै॥
कर तेई जे स्यामहि सेवै,
चरननि चलि बृंदाबन जावै।
सूरदास जैये बलि ताके,
जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै॥
धन्य है ऐसे मन-इन्द्रियोंको और धन्य है इनके धारण करनेवाले सफलजीवन भक्तोंको।