भगवत्कृपासे भगवत्प्रेम प्राप्त होता है
सप्रेम हरिस्मरण। आपका विनयपूर्ण कृपापत्र मिला। मेरे प्रति इतनी अनुनय-विनयकी भला क्या आवश्यकता थी? इससे तो मुझे बहुत ही संकोच होता है। आपको भगवत्प्रेमकी प्यास है—यह तो बड़े आनन्दकी बात है। परंतु संसारका कोई भी प्राणी किसीको वह अमूल्य निधि दे सकनेका दावा कैसे कर सकता है। मुझमें ऐसा सामर्थ्य कहाँ है जो मैं किसी एक भी प्राणीको अपने प्रयत्नसे प्रभु-प्रेमका एक भी बिन्दु दे सकूँ। यह परमामृत तो एकमात्र प्रभुके कृपाकटाक्षका ही प्रसाद है। जिस परम सौभाग्यशाली जीवपर उनकी कृपा प्रकट होती है, उसीको यह अमृत प्राप्त होता है। उनकी कृपा उन्हींके अधीन है। उसे किसी साधनद्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। बल्कि जीवको जबतक अपने साधनोंका भरोसा रहता है, तबतक तो वह अधिकतर दु:खी ही रहता है। उसे पानेका यदि कोई उपाय है तो यही है कि जीव निरुपाय हो जाय। सारे साधनोंका आश्रय छोड़कर एकमात्र कृपाकी ही उपासना करे, कृपाकी ही बाट जोहा करे। साधनोंका आश्रय छोड़नेसे यह मतलब नहीं है कि सत्पथको छोड़कर कुपथमें चलने लगे। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि अपने सत्कर्मोंके मूल्यमें प्रभुकृपाको पानेकी आशा न रखें। सत्कर्म साधनके रूपमें नहीं, स्वभावसे हों। साधन तो एकमात्र प्रभुकी इच्छाका अनुवर्तन हो। वे जैसे रखें उसीमें सन्तुष्ट रहे और केवल प्रभुप्रेमकी प्यास बढ़ाता रहे। इस प्यासकी पीड़ा जितनी बढ़ेगी, उतनी ही प्रभुकृपा सुलभ होती जायगी। अत: प्रभुप्रेम ही प्रभुप्राप्तिका एकमात्र उपाय है। प्रभु स्वयं कृपा करके ही किसी जीवको अपनाते हैं। वह कृपा प्रभुकी इच्छासे कभी-कभी किसी भगवदीयके रूपमें आती है। किंतु भक्त केवल यन्त्रवत् उसके प्रकट होनेका निमित्तमात्र होता है। वास्तवमें तो उसके द्वारा भगवान् ही अपने शरणापन्नपर द्रवित होते हैं। अत: आप श्रीभगवान्का ही आश्रय लीजिये। उनके आगे दीन होकर रोइये, उन्हींसे प्रार्थना कीजिये और उन्हींको अपना दु:ख सुनाइये। वे करुणामय प्रभु सब प्रकार आपका मंगल करनेमें समर्थ हैं। शेष भगवत्कृपा।