श्रीगोपांगनाओंकी महत्ता
सप्रेम हरिस्मरण।.....आप भगवान्के प्रेमी हैं और व्रजदेवियोंके प्रति श्रद्धा रखनेवाले हैं; अत: व्रजांगनाओंके चरित्रकी ऐसी कोई भी आलोचना, जो उन्हें तुच्छ सिद्ध करती हो या उनके महत्त्वको घटाती हो, आपके हृदयको व्यथा ही देती होगी। आपने नारदभक्तिसूत्रका प्रमाण देकर जो यह बात सिद्ध की है कि गोपीजनोंको भगवान्के स्वरूपका पूर्णत: ज्ञान था, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो गोपियाँ भगवान्की अन्तरंग शक्तियाँ थीं, जिनके मन-प्राण सदा भगवान्में ही लगे रहते थे, वे उनके स्वरूप और महत्त्वको न जानती हों—यह कैसे सम्भव है?
श्रीमद्भागवत, दशम स्कन्धके २९ वें अध्यायमें श्रीशुकदेवजीने जो यह कहा कि—‘तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गता:। जहुर्गुणमयं देहं सद्य: प्रक्षीणबन्धना:॥’ फिर राजा परीक्षित् ने जो शंका की कि—‘कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने।’ इत्यादि, तथा इस शंकाको स्वीकार करके जो शुकदेवजीने उत्तर दिया—‘उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्य: सिद्धिं यथा गत:। द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रिया:॥’ यह सब ठीक है। इस प्रसंगसे गोपीजनोंकी महत्तापर ही प्रकाश पड़ता है। श्रीधर स्वामीने जो अपनी व्याख्यामें लिखा है कि ‘जीवेष्वावृतं ब्रह्मत्वं कृष्णस्य तु हृषीकेशत्वादनावृतमतो न तत्र बुद्ध्यपेक्षा।’ अर्थात् जीवोंका चेतनभाव या चित्स्वरूपता आवृत है, अत: उसको समझनेके लिये ज्ञानकी आवश्यकता है; परंतु श्रीकृष्ण तो सबकी इन्द्रियोंके नियामक एवं अन्तर्यामी हैं, इसलिये उनका चिन्मय स्वरूप आवृत नहीं है। अत: उनके इस स्वरूपकी अनुभूतिके लिये या उनके चिन्तनसे होनेवाली मुक्तिकी सिद्धिके लिये ज्ञानकी अपेक्षा नहीं है। इसके द्वारा श्रीकृष्णके अनावृत सच्चिदानन्दघन-स्वरूपका प्रतिपादनमात्र किया गया है। इसका भाव यह नहीं समझना चाहिये कि गोपियोंकी उनके प्रति परमात्मबुद्धि नहीं थी या वे उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं जानती थीं। ‘अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्’ इत्यादि पदोंसे भी इस धारणाकी पुष्टि हो जाती है।
यह सब होनेपर भी भगवान्की स्वरूपभूत मायाशक्ति या लीलाशक्ति उनके ज्ञानको तिरोहित तथा प्रेमभावको ही प्राय: जाग्रत् किये रहती है। श्रीकृष्ण परमात्मा या ब्रह्म हैं, इस भावका स्मरण उन्हें नहीं रहता; वे यही अनुभव करती हैं—श्रीकृष्ण हमारे प्रियतम हैं, प्राणवल्लभ हैं। आपको ‘जारबुद्ध्यापि’ यह कहना खटक सकता है। ब्रह्माजी भी जिनकी चरणरजकी वन्दना करते हैं तथा उद्धव-जैसे ज्ञानी भी जिनकी चरणरेणु पानेके लिये तरसते हैं, उन व्रजललनाओंकी भी सच्चरित्रताका समर्थन करना पड़े, उनके चरित्रपर भी सन्देहका अवसर आवे—यह आपहीको नहीं, सभी भगवत्प्रेमियोंको व्यथा देता है। गोपियोंके प्रेमके साथ शिशुपालके भगवत्स्मरणकी चर्चा आपको पसंद नहीं आयी। परंतु ऐसा होनेका कोई कारण नहीं दिखायी देता। शिशुपाल तो भगवान्का परम अन्तरंग पार्षद था, वह शापग्रस्त होनेके कारण भगवान्से पृथक् पड़ा हुआ था, उसने द्वेषभावसे भगवान्का निरन्तर स्मरण किया था; अत: उसका महत्त्व कम नहीं मानना चाहिये।
आपके यहाँके विद्वान् जो यह कहते हैं कि ‘गोपियोंके मनमें काम ही था, प्रेम नहीं,’ उनका यह कथन श्रीगोपीजनोंके महत्त्वको न जाननेके कारण ही है। उनके इस कथनका विरोध तो श्रीमद्भागवतमें ही हो जाता है। शास्त्रमें कहा है—‘प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्’—गोपियोंका प्रेम ही लोकमें कामके नामसे प्रसिद्ध हुआ। गोपियाँ प्रेमकी प्रतिमूर्ति थीं। उनके मनमें लौकिक कामकी गन्ध भी नहीं थी। उनके लिये जो ‘जारबुद्ध्यापि’ इस पदका प्रयोग किया गया है, यह भी उनकी महत्ताका ही परिचायक है। जब उनमें लौकिक काम नहीं, अंग-संगकी वासना नहीं, तब वहाँ लौकिक जारभाव या औपपत्यकी कल्पना कैसे की जा सकती है।
गोपियाँ श्रीकृष्णकी स्वकीया थीं या परकीया, यह प्रश्न श्रीकृष्ण और गोपियोंके स्वरूपको भुलाकर ही किया जाता है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान—सबके एकमात्र पति श्रीकृष्ण ही हैं। गोपी-गोपियोंके पति, उनके सगे-सम्बन्धी तथा जगत्के सभी प्राणियोंके हृदयमें आत्मा एवं परमात्मारूपसे जो प्रभु स्थित हैं, वे ही श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण किसीके पराये नहीं हैं। वे सबके अपने हैं और सब उनके हैं। श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दघन, सर्वान्तर्यामी, प्रेमरसस्वरूप एवं लीलारसमय परमात्मा हैं तथा गोपियाँ उनकी आह्लादिनी शक्तिरूपा आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविता स्वरूपभूता श्रीराधारानीकी ही अनेकानेक मूर्तियाँ हैं। अत: श्रीकृष्ण उनके लिये जार या परकीय नहीं तथा वे भी श्रीकृष्णकी परकीया नहीं। वास्तवमें तो उनमें स्वकीया-परकीयाका कोई भेद था ही नहीं। वे सब श्रीकृष्णकी अभिन्न थीं और श्रीकृष्ण उनके अभिन्न थे। भगवान् स्वयं ही आस्वाद्य, आस्वादक, लीलाधाम तथा विभिन्न आलम्बन एवं उद्दीपनके रूपमें प्रकट होकर अपने स्वरूपभूत अनन्तानन्तरसका समास्वादन करते तथा कराते रहते हैं।
ऊपर बताया जा चुका है कि गोपियाँ या श्रीकृष्णके सम्बन्धमें जारभाव या परकीयत्वकी कल्पना असंगत है। ऐसी दशामें ‘जारबुद्धि’ अथवा ‘औपपत्य’ आदि पदोंका क्या स्वारस्य है, यह विचारणीय प्रश्न है। इसके विषयमें निवेदन यह है कि गोपियाँ परकीया नहीं थीं, पर उनमें परकीयाभाव था। इसी दृष्टिसे श्रीकृष्णके प्रति उनके मनमें जारभाव था, वास्तवमें श्रीकृष्ण उनके सर्वथा अपने थे। परकीया होने और परकीयाभाव होनेमें आकाश-पातालका अन्तर है। जार और जारभावमें भी यही अन्तर है। परकीयाभावमें चार बातें बड़े महत्त्वकी होती हैं—(१) अपने प्रियतमका निरन्तर चिन्तन, (२) मिलनकी उत्कट उत्कण्ठा, (३) दोषदृष्टिका सर्वथा अभाव और (४) प्रियतमसे किसी वस्तुकी कामना नहीं। गोपियाँ श्रीकृष्णकी परकीया थीं या श्रीकृष्णको जारभावसे भजती थीं—इस कथनका इतना ही तात्पर्य है कि वे श्रीकृष्णका निरन्तर चिन्तन करतीं, उनसे मिलनेकी उनके मनमें निरन्तर उत्कण्ठा जाग्रत् रहती, वे श्रीकृष्णमें दोष कभी नहीं देखतीं और श्रीकृष्णसे कुछ भी न चाहकर निरन्तर अपनेको पूर्णसमर्पित समझती थीं। वे उनके प्रत्येक व्यवहारको प्रेमकी ही दृष्टिसे देखा करती थीं। इसी भावको व्यक्त करनेके लिये ‘जारबुद्धि’ आदि पदोंका प्रयोग हुआ है। हमें गोपियोंके इस अहैतुक प्रेमका, जो केवल श्रीकृष्णको सुख पहुँचानेके लिये था, निरन्तर स्मरण रखना चाहिये।
गोपीजनोंकी महिमा अनिर्वचनीय है; आपके आग्रहसे उनकी कुछ चर्चा हुई—जिससे मन, वाणी और लेखनी पवित्र हुईं। इसके लिये मैं आपका कृतज्ञ हूँ। शेष भगवत्कृपा।