भजन—साधन और साध्य
सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आपने लिखा कि ‘मैं सात वर्षसे भजन कर रहा हूँ, परंतु मेरी आधि-व्याधि अभी दूर नहीं हुई; मेरे दु:खोंका अवसान नहीं हुआ। इसका क्या कारण है? क्या भजन सर्वथा निष्फल है और यदि निष्फल है तो क्यों करना चाहिये?’ इसके उत्तरमें निवेदन है कि न तो भजन निष्फल होता है और न भजनको कभी छोड़ना ही चाहिये। बाहरके दु:ख और आधि-व्याधियोंमें मूल हेतु है प्रारब्ध! भगवान् प्रारब्धके भोग भुगताकर आपको भवरोगसे मुक्त कर रहे हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा होता है कि भजन करनेवालेको ज्यादा दु:ख होता दीखता है। वह दु:ख वस्तुत: भजनका फल नहीं है, वह पूर्वकृत किसी ऐसे दुष्कर्मका फल है; जो इस समय फल-दानोन्मुख है। भजनका फल तो पीछे मिलेगा और भजनका फल वस्तुत: अन्त:करणकी शुद्धि है; वह भजनसे हुए बिना रहती नहीं। चाहे दीखे नहीं। अमावस्याकी अँधेरी रात केवल दो ही घंटे शेष रहती है, तब भी अँधेरा ही दीखता है; परंतु उस समय वस्तुत: रात अधिकांश बीत चुकी होती है। प्रभातका प्रकाश होने ही वाला होता है। इस बातको वही जान सकता है, जिसके पास घड़ी है या जो नक्षत्रविज्ञानका ज्ञाता है। जो नहीं जानता, वह तो यही समझता है कि अँधेरी रात ज्यों-की-त्यों बनी है। इसी प्रकार भजनसे होनेवाला फल जबतक पूरा प्रत्यक्ष नहीं हो जाता, तबतक वह दीखता नहीं। दीखता भी है तो—जैसे किसी रोगीके ज्वर, सिर-दर्द आदि बहुत-से लक्षण मिटनेपर भी जैसे थोड़ा-सा पेटदर्द भी शेष रहता है; तबतक वह यही कहता और समझता है कि मेरा रोग अच्छा नहीं हुआ—इसी प्रकार उसे भी दीखता है।
फिर, यदि भजनसे दु:ख हुआ सिद्ध भी हो जाय तो वह भगवत्कृपासे भजनके फलस्वरूप भजनमें अधिक लगानेके लिये ही होता है। दवा कड़वी भी होती है और मीठी भी; जैसा रोग, वैसी दवा। वैसे ही किसीको दु:खके मार्गसे ही—कड़वी दवाकी भाँति—भगवान् अपने परम सुखमय धाममें ले जाते हैं। यह उनकी कृपासे ही होता है। इसलिये कभी यह नहीं मानना चाहिये कि भजन निष्फल होता है। बल्कि विश्वासी भजन-परायण भक्तको तो इसीमें प्रसन्न रहना और भजनको सफल मानना चाहिये कि भजन होता है। भजन ही भजनका फल है। इससे बड़ा फल और क्या होगा। जो लोग भजनका कोई दूसरा फल चाहते हैं, वे तो भजनका महत्त्व ही नहीं जानते।
साधनरूपसे भजन करते-करते समयपर वह ‘फलरूप’ भजन भी होने लगेगा, जो अपनी ही नहीं, जगत् भरकी आधि-व्याधिके नाश करनेमें समर्थ है। जो पुरुष अपनी सारी इन्द्रियों तथा मनको पूर्णरूपसे भगवद्भावमें डुबा देते हैं, उन्हींके द्वारा ऐसा भजन होता है। उनका भगवद्भावाविष्ट चित्त जब किसी कारणवश आधि-व्याधि पूर्ण संसारकी ओर जाता है, उनके भगवद्-रस-निविष्ट नेत्र जब दु:खमय जगत्को देखते हैं, उनकी जरा नजर भी पड़ जाती है; उसी क्षण जगत्की वे आधि-व्याधियाँ तथा जगत्के वे दु:ख नित्य निरामयता, शान्ति और परमसुखके रूपमें परिणत हो जाते हैं। ऐसी शक्ति आ जाती है उसके चित्त और इन्द्रियोंमें। जो चित्त—जो इन्द्रियसमूह पहले जगत्से केवल आधि-व्याधिका ही संग्रह करते थे, जो दु:खका ही आवाहन करते थे, वे फिर अपने स्पर्शमात्रसे जगत्को दु:खरहित कर देते हैं—उनका संस्पर्श पाते ही जगत्की स्थितिमें परिवर्तन हो जाता है। वे फिर देखते हैं जगत्को श्रीभगवान्से भरा हुआ और उनका नित्य लीलाक्षेत्र, तथा जगत्में होनेवाली प्रत्येक घटनामें वे देखते हैं भगवान्का विविध रसमय मधुर लीला-विलास। ऐसा भजन जिस दिन होगा, उस दिन फिर इस जीवनको केवल भजनमय बना रखनेकी ही एकमात्र विशुद्ध कामना रहेगी। फिर मुक्ति-सुखके लिये भी भजनका त्याग सहन नहीं होगा। पर ऐसा भजन भी होगा—भजन करते-करते ही। भजन ही साधन है और भजन ही साध्य है।