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भजनके लिये श्रद्धापूर्वक प्रयत्न करना चाहिये

सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। भजन और सद‍्गुणोंके ग्रहणमें न तो कोई कठिनाई है, न कष्ट है और न किसी प्रकारकी हानि ही है। हमलोग सुनते हैं, पढ़ते हैं, लोगोंसे कहते भी हैं, परन्तु स्वयं करते नहीं। यही बड़ी त्रुटि है। कठिनाई भी केवल इसी बातकी है कि हम श्रद्धापूर्वक चेष्टा नहीं करते। श्रद्धायुक्त चेष्टा हो तो कोई कारण नहीं कि भजन न हो और दैवी सम्पत्तिके गुण न आवें। इस काममें तो भगवान् तथा संतोंकी भी सहायता प्राप्त होती है और इनमें लाभ भी सबसे बड़ा है। आपको मैं क्या समझाऊँ। असलमें मैं अभी स्वयं ही समझा नहीं हूँ। समझता तो मेरे जीवनका प्रत्येक क्षण भजनमें ही बीतता। मैं केवल सद‍्गुणोंका ही खजाना बन जाता। परन्तु जितना समय दूसरोंको समझानेमें बीतता है उतना अपने समझनेमें तथा करनेमें नहीं लगता।

आपने मेरे अनुभव पूछे, सो मैं क्या बताऊँ। इतना ही बतला सकता हूँ कि करुणा-वरुणालय भगवान‍्की सभी जीवोंपर असीम कृपा है। वे सबके परम सुहृद् हैं, इसलिये मैं भी उनकी कृपासे वंचित नहीं हूँ। इतनी विशेषता समझिये कि मुझे समय-समयपर उनकी कृपाका किंचित् अनुभव होता है, इससे मुझे उसका प्रत्यक्ष लाभ मिल जाता है। यह भी उनकी कृपा ही है। फिर अनुभव यदि किसीको कुछ होते भी हैं तो वे उसके अपने लिये ही होते हैं। दूसरोंको बतानेसे उसको कोई लाभ नहीं होता। मान लीजिये मैं कह दूँ कि मुझे अमुक महान् लाभ हुआ है तो इससे आपको क्या मिलेगा। अनुभवोंका विज्ञापन नहीं हुआ करता। वे तो अपने जीवनकी गुप्त सम्पत्ति होते हैं, इसलिये क्षमा करें।

यह स्मरण रखें कि भगवान् सबके हैं और सबके लिये एक-से हैं।

पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥

आप श्रद्धापूर्वक उनका भजन कीजिये और भगवान‍्को प्रिय लगनेवाले सद‍्गुणोंको धारण कीजिये। फिर आपको स्वयं ऐसे-ऐसे विलक्षण अनुभव होंगे कि जिनको पाकर आप निहाल हो जायँगे।

मनुष्यदेह थोड़े ही दिनोंके लिये है और है भी विघ्न-बाधाओंसे भरा हुआ। अतएव विलम्ब करना बुद्धिमानी नहीं।

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