गीता गंगा
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भजनसे ही जीवनकी सफलता

भाई साहेब! संसारका स्वरूप यही है। हमलोग जो इसको सुखस्वरूप मान बैठे हैं, इसीसे इसका असली रूप—जो सुखरहित, दु:खालय और दु:खोत्पत्तिका स्थान है (गीतामें देखिये इसको ‘असुखम्’ ‘दु:खालयम्’ और ‘दु:खयोनि:’ कहा है), जब सामने आ जाता है तब हम घबरा उठते हैं। यह सुखस्वरूप था ही कब? वह तो हमारी भ्रान्ति थी। जो लोग संसारको सुखरूप मानकर इसमें सुख खोजते हैं, उनको तो अन्तमें रोना ही पड़ता है। इसमें जो सुख है वह तो भगवान‍्को लेकर है। इसीसे भगवान‍्ने कहा है—‘इस अनित्य और असुख लोकको पाकर (यदि वस्तुत: सुख चाहते हो तो) मुझको भजो’ (‘मां भजस्व’)। आपकी-मेरी तो अब एक प्रकारसे जीवन-सन्ध्या ही है। बालकों और तरुणोंको भी अपने जीवनका मुख्य ध्येय भगवान‍्को ही बनाना चाहिये। फिर हमलोग तो उन दोनों अवस्थाओंको पार कर चुके हैं। हमारा तो शेष जीवनका प्रत्येक पल अब श्रीभगवान‍्के चिन्तनमें ही बीतना चाहिये। जगत‍्के सृजन-संहार यों ही चलते रहेंगे। इनमें रमनेसे कोई लाभ नहीं। अब तो उन प्रभुका आश्रय ग्रहण करना चाहिये जो अशरणशरण हैं और मुझ-सरीखे अधमोंको भी अपने विरदके कारण अपना लेते हैं। समय बीत रहा है। यहाँकी धन-दौलत, यश-कीर्ति, अधिकार-प्रभुत्व कुछ भी हमारे काम नहीं आयेंगे। यह सब तो यहींके खिलौने हैं। हम अभागे हैं जो इन खिलौनोंमें ही रमते हैं और इन्हींको जीवनका ध्येय बनाये रखते हैं। इस समय आपके मनमें जो कुछ ग्लानि या निर्वेद-सा है, इसे सुअवसर मानिये। संसारसे मन हटाकर भगवान‍्में लगाइये। और कुछ न हो सके तो उनकी कृपापर विश्वास करके उनके नामका जप, स्मरण और कीर्तन आरम्भ कर दीजिये। भगवन्नाममें महान् शक्ति है। वह बहुत शीघ्र पाप-तापका नाश करके भगवान‍्को मिला देता है। वस्तुत: नाम और नामी एक ही हैं। नामका प्रेम हो जानेपर तो संसारमें सर्वत्र श्रीभगवान‍्की ही झाँकी होने लगती है। फिर संसारमें ऊँच-नीचका कोई भेद नहीं रह जाता। हर समय और हर स्थानमें नामप्रेमी भक्त प्रेमपूर्वक भगवान‍्का नाम-गान करता हुआ स्वयं पवित्र होता है और जगत‍्को पवित्र करता है (‘भुवनं पुनाति’)। श्रीमद्भागवतमें कहा है—पृथ्वीमें जो भगवान‍्के जन्मकी और लीलाओंकी मंगलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं, उनको सुनते रहना चाहिये और उन गुणलीलाओंका स्मरण करानेवाले नामोंका लज्जा-संकोच छोड़कर गान करते रहना चाहिये। अन्य कहीं भी आसक्ति न रखकर संसारमें बिचरना चाहिये। जो इस प्रकार भगवान‍्के दिव्य जन्म-कर्मकी कथाओंको तथा उनके कल्याणमय नामोंको सुनने और गानेका व्रत ले लेता है, उसके हृदयमें अपने परम प्रियतम प्रभुके नाम-कीर्तनसे प्रेमका अंकुर उत्पन्न हो जाता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है और लोक साधारणकी स्थितिसे ऊपर उठकर वह प्रेमकी मादकतामें कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है, कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊँचे स्वरसे भगवान‍्को पुकारता है, तो कभी मधुर स्वरसे उनके गुणोंका गान करने लगता है और कभी-कभी आनन्दमत्त हो लोक-लाज छोड़कर नाचने लगता है। यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-लताएँ, नदी, समुद्र—सभी श्रीभगवान‍्के शरीर हैं। इन सब रूपोंमें स्वयं भगवान् ही प्रकट हैं। ऐसा समझकर वह जड-चेतन सभीको अनन्य भगवद्भावसे प्रणाम करता है—

शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणे-
र्जन्मानि कर्माणि च यानि लोके।
गीतानि नामानि तदर्थकानि
गायन् विलज्जो विचरेदसङ्ग:॥
एवंव्रत: स्वप्रियनामकीर्त्या
जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चै:।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय-
त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्य:॥
खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरे: शरीरं
यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्य:॥
(११।२।३९—४१)

अतएव अब इस ग्लानि और दु:खरूप संसारसे उपरत होकर भगवद्भजनमें ही लग जाइये। इसीमें परम कल्याण है और यही मानव-जीवनकी सफलता है।

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