गीता गंगा
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भवसागरसे तरनेका उपाय—एकमात्र भजन

सप्रेम हरिस्मरण।

पत्र मिला था। उत्तरमें देर हुई, इसके लिये क्षमा करें। मेरी समझ तो अत्यन्त तुच्छ है, उसका मूल्य ही क्या है; परन्तु ऋषि-प्रणीत शास्त्रों एवं अनुभवी महात्माओंकी यही घोषणा है कि भगवान‍्के भजन बिना जीवका भवसागरसे निस्तार कभी नहीं हो सकता। भजन करते-करते जब अन्त:करणकी शुद्धि होकर भगवान‍्के प्रति आत्मसमर्पण हो जाता है, जब वह केवल भगवान‍्को ही अपना सर्वस्व समझकर यह पुकार उठता है—

पिता माता सुहृद‍्बन्धुर्भ्राता पुत्रस्त्वमेव मे।
विद्या धनं च कामं च नान्यत् किञ्चित्त्वया विना॥

‘मेरे पिता, माता, सुहृद्, मित्र, भ्राता, पुत्र, विद्या, धन और समस्त काम केवल एक तुम ही हो, तुम्हारे बिना कुछ भी मेरा नहीं है।’ तब भगवान् उसे अपना लेते हैं और तभी वह भवसागरसे तरकर कृतार्थ हो जाता है। श्रीरामचरितमानसमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके वचन हैं—

जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥

जो माता, पिता, बन्धु, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, मकान, सुहृद् और परिवार—सबकी ममताके धागोंको बटोरकर उनकी मजबूत डोरी बटकर उससे अपने मनको मेरे पदसे (या चरण-कमलसे) बाँध देता है (अर्थात् सब जगहसे ममता खींचकर एकमात्र भगवान‍्को ही जो ममताका विषय बना लेता है), ऐसा वह सज्जन मेरे (भगवान् के) हृदयमें वैसे ही बसता है, जैसे लोभीके हृदयमें धन बसता है। अभिप्राय यह कि भगवान् उसको कभी अपने मनसे उतारते ही नहीं, अत्यन्त प्रेमसे उसे सदा अपने हृदयमें रखते हैं। इसलिये यही बात माननी चाहिये कि एकमात्र भजन ही ऐसा साधन है, जिससे श्रीभगवान् हमारे हो जाते हैं।

रामचंद्र के भजन बिनु
जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर
पसु बिनु पूँछ बिषान॥

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