लगन होनेपर भजनमें कोई बाधा नहीं दे सकता
प्रिय महोदय! सादर सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। आप लिखते हैं ‘मैं गृहस्थाश्रममें फँसा हूँ, परिवार-पालनके लिये धन कमाना पड़ता है। इस अवस्थामें साधन-भजन कब और कैसे करूँ।’ आपका लिखना बहुत ठीक है। ऊपरसे देखनेपर आपकी बात बहुत ही ठीक और युक्तियुक्त प्रतीत होती है। और यह भी कोई नहीं कह सकता, आप अपने परिवार-पालनके कार्यको छोड़ दें; परंतु यदि गहराईसे विचार किया जाय तो मालूम होगा कि यह विचार वस्तुत: हमारे मनका धोखा ही है। भजन-साधनमें लगन और रुचि होनेपर उसमें कोई भी बाधा नहीं पड़ सकती। शास्त्रोंमें उदाहरण दिया गया है कि ‘परव्यसनिनी नारी दिनभर घरके कामकाजमें लगी रहती है, किसी काममें त्रुटि नहीं करती, पर उसका मन दिन-रात अपने इच्छित विषयमें लगा रहता है। उसे वह भूल नहीं सकती।’ इसी प्रकार साधक गृहस्थीके सारे कर्म सुचारुरूपसे करता हुआ ही चित्तवृत्तिको भगवान्के भजनमें संयुक्त रख सकता है। भगवान्ने श्रीमद्भगवद्गीतामें अर्जुनको सब समयमें अपना (श्रीभगवान् का) स्मरण करते हुए युद्ध करनेकी आज्ञा दी है—
‘तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’
(गीता ८। ७)
जब युद्ध-सरीखा विकट कर्म भी भजन-स्मरणमें बाधक नहीं होता, तब गृहस्थाश्रममें अन्यान्य कर्म कैसे बाधक हो सकते हैं। लगन होनी चाहिये। यह तो हमारा मन ही भाँति-भाँतिके बहाने बताकर हमें प्रतारित किया करता है और हम अपनी लगनके अभावसे उसीको सत्य प्रमाण मानकर हाँ-में-हाँ मिला देते हैं।
यदि आप इस बातको भलीभाँति समझ लें और विश्वास कर लें कि मानव-जीवनका चरम और परम उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। भगवान्की प्राप्तिके बिना जीवन व्यर्थ है और साथ ही यह भी विश्वास कर लें कि संसारके विषय विषरूप हैं, इनके सेवनसे बार-बार मृत्युके मुखमें पड़ना पड़ेगा तो आपकी अपने-आप ही विषय-भोगोंमें अरुचि हो जाय और आप भगवान्को भजने लगें।
धनके महत्त्वको जान लेनेपर धनकी आवश्यकतावाले पुरुषको यह समझना नहीं पड़ता कि वह धनोपार्जनके लिये प्रयास करे। वह अपने-आप ही दिन-रात उसी उद्योगमें लगा रहता है। और यदि उसे कहीं पता लग जाय कि अमुक स्थानपर असीम धनराशि गड़ी है एवं वह तुम्हें मिल सकती है, तब तो वह हजार काम छोड़कर उसकी प्राप्तिके प्रयासमें लग जायगा। इसी प्रकार किसीको मालूम हो जाय कि तुम जिस लड्डूको खाने जा रहे हो; वह सुन्दर है, मधुर है, परन्तु उसमें जहर मिला हुआ है, तो चाहे जितनी भूख लगी हो और लड्डुओंमें चाहे जितना मन आसक्त हो, पर वह लड्डू नहीं खायेगा। इसी प्रकार भगवत्प्राप्तिकी अनिवार्य आवश्यकताका अनुभव होनेपर तथा भजन-साधनसे वे शीघ्र मिलते हैं, यह विश्वास होनेपर मनुष्य चाहे जैसे भी हो, भजन-साधन करेगा ही; और यह विश्वास हो जानेपर कि विषय सचमुच विष ही है, वह स्वाभाविक ही उनका त्याग कर देगा। हमलोग भगवान्की महत्ता और विषयोंकी विषमताकी बात कहते-सुनते तो हैं; पर वस्तुत: हमारा विश्वास ऐसा नहीं है। इसीलिये हममें न तो भगवद्भजनकी लगन है न विषयत्यागकी ही।
श्रीतुलसीदासजी महाराज तो कहते हैं कि ‘जैसे कामीको नारी प्रिय होती है और लोभीको धन प्रिय होता है, वैसे ही मुझको निरन्तर हे भगवान् श्रीरामचन्द्र! आप प्रिय लगें।’
कामिहि नारि पिआरि जिमि
लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर
प्रिय लागहु मोहि राम॥
भगवान्में ऐसी प्रियता होनेपर तो हम उन्हें भूल ही नहीं सकते, चाहे घरका कितना ही काम हो। जबतक ऐसा न हो, तबतक रोग-नाशके लिये जैसे दवा ली जाती है, वैसे ही भव-रोगनाशके लिये दवाके रूपमें भगवान्का भजन करना चाहिये।
यदि हम अपनेको भगवान्का सेवक मान लें और घरके स्वामी भगवान् को, तो फिर घरका भी प्रत्येक काम भगवान्की सेवा या भजन ही बन जायगा। उस अवस्थामें मुखसे भगवान्का नाम लेते हुए और मनसे भगवान्का चिन्तन करते हुए हम बड़ी आसानीसे घरके सारे काम सुचारुरूपसे रस प्राप्त करते हुए करेंगे। हमारा जीवन भजनमय ही हो जायगा। अतएव आप इस धारणाको त्याग दीजिये कि घरका काम करते हुए भजन नहीं बनता। वरं यह दृढ़ धारणा कीजिये कि निरन्तर भजन करते हुए ही घरका सारा काम भलीभाँति हो सकता है। यहाँतक कि सारा काम ही भजन बन सकता है।