जीवनमें उतारने लायक उपदेश
सप्रेम हरिस्मरण! आपका कृपापत्र मिले कई दिन हो गये। उत्तर समयपर नहीं लिखा गया, इसके लिये क्षमा करें। आपने याद रखने-लायक उत्तम-से-उत्तम उपदेशात्मक श्लोक अर्थसहित लिखनेके लिये अनुरोध किया, सो शास्त्रोंमें हजारों श्लोक उत्तम-से-उत्तम हैं। घटिया किसको बताया जाय। तथापि कुछ श्लोक अर्थसहित लिख रहा हूँ।
भगवान्के श्रीमुखका वचन है—
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८। ६६)
‘सब धर्मोंको (समस्त लौकिक धर्मोंके आश्रयको) त्यागकर केवल एक मेरी शरणमें आ जा (शरणागतिरूप परमधर्मको प्राप्त हो जा)। फिर मैं तुझे समस्त पापोंसे मुक्त कर दूँगा। तू शोच मत कर!’
भागवत-माहात्म्यमें श्रीगोकर्णजीने कहा है—
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं
जायासुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभङ्गनिष्ठं
वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठ:॥
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्॥
(४। ७९-८०)
‘इस हड्डी, मांस और रक्तसे बने हुए शरीरका अभिमान छोड़ दो। स्त्री-पुत्र आदिकी ममताका बिलकुल त्याग कर दो। इस जगत्को दिन-रात क्षणभंगुर समझो और वैराग्यरूपी रसके रसिक होकर अपनेको भगवान्की भक्तिमें लगा दो। सब लोकधर्मोंको छोड़ दो, निरन्तर भगवद्भक्तिरूप धर्मका सेवन करो, साधु पुरुषोंका संग करो तथा भोगोंकी तृष्णाको त्याग दो और दूसरेके दोष-गुणोंका चिन्तन करना तुरंत छोड़कर भगवान्की सेवा-कथाके रसको भलीभाँति पीते रहो।’
भर्तृहरिजीने कहा है—
व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती
रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम्।
आयु: परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो
लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्॥
‘भूखी बाघिनकी भाँति गर्जती-तर्जती हुई वृद्धावस्था सामने खड़ी है, शत्रुके सदृश रोग शरीरपर प्रहार कर रहे हैं, फूटे घड़ेसे निकलनेवाले जलकी तरह उम्र चली जा रही है तो भी मनुष्य बुरे आचरणमें ही लगा है, यह बड़ा आश्चर्य है।’
ईर्ष्यां छिन्धि भज क्षमां जहि मदं
पापे रतिं मा कृथा:
सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं
सेवस्व विद्वज्जनान्।
मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय
प्रच्छादय स्वान्गुणान्
कीर्तिं पालय दु:खिते कुरु दया-
मेतत्सतां लक्षणम्॥
‘किसीकी उन्नति देखकर होनेवाली डाहको काट दो; बुरा करनेवालेका बुरा करनेकी अपनेमें सामर्थ्य होनेपर भी उसका भला करो; धन, रूप, कुल, विद्या, अधिकार आदिके नशेका त्याग कर दो; पापकर्मोंमें—शास्त्रनिषिद्ध दुराचरणोंमें कभी प्रीति मत करो; सत्य बोलो; सत्पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करो; सच्चे विद्वानोंका संग करो; सम्मान्य पुरुषोंको मान दो; द्वेष करनेवालोंके साथ भी विनयका व्यवहार करो; अपने गुणोंको सदा ढकते रहो; कीर्तिकी रक्षा करो—अकीर्ति हो ऐसा निन्दित कर्म मत करो; और दु:खी जीवपर दया करो। सत्पुरुषोंके यही लक्षण हैं।’
इन श्लोकोंका एक-एक वाक्य बड़ा ही हितकर और माननेयोग्य है। इनको केवल कण्ठस्थ ही नहीं करना चाहिये, अपने जीवनमें उतारना चाहिये। तभी यथार्थ लाभ होगा।