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ब्रह्मज्ञान या भ्रम

महोदय! सप्रेम हरिस्मरण! आपका कृपापत्र मिला। आपने अमुक सज्जनके सम्बन्धमें लिखा कि ‘वे बहुत बड़े विद्वान् हैं, बड़ा अच्छा प्रवचन करते हैं, वेदान्तकी प्रक्रिया बहुत अच्छी तरह समझते-समझाते हैं और बड़े विचारशील भी हैं। वे स्वयं अपनेको ब्रह्मनिष्ठ समझते हैं और ऐसा ही कहते भी हैं, परंतु भोगोंमें उनकी काफी आसक्ति देखी जाती है। उनके आचरणोंमें भी दोष देखे जाते हैं। भजन भी वे नहीं करते, बल्कि नाम-जप तथा भगवत्-पूजन आदिको मन्द अधिकारियोंकी साधना बतलाते हैं और ब्रह्मज्ञानीको शास्त्रकी सीमासे बाहर बतलाते हैं। आपकी उनके सम्बन्धमें क्या सम्मति है?’

असलमें ब्रह्मज्ञानी पुरुषकी बाहरी लक्षणोंसे कोई पहचान नहीं होती। यह तो अपने अनुभवकी चीज है—स्वसंवेद्य है। दूसरा कोई भी कुछ भी नहीं कह सकता; परंतु यदि किसीकी भोगोंमें वास्तविक आसक्ति है और आसक्तिपूर्वक आचरणोंमें दोष भी आते हैं— पापकर्म भी बनते हैं तो मानना चाहिये कि अभी उसे ‘ब्रह्मज्ञान’ नहीं हुआ है। ब्रह्मज्ञान मुँहकी चीज नहीं है, न वेदान्तकी परीक्षामें उत्तीर्ण होनेसे ही कोई ब्रह्मज्ञानी हो सकता है। साधनचतुष्टयसम्पन्न पुरुष तीव्र साधनाके फलस्वरूप अज्ञानका नाश होनेपर ही ब्रह्मसाक्षात्कारको प्राप्त होता है। कठोपनिषद् में कहा गया है—

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूॸस्वाम्॥
(१। २। २३)

‘यह आत्मा न तो शास्त्राध्ययनरूप प्रवचनसे प्राप्त होता है, न तीक्ष्ण बुद्धिसे ही और न अनेकों शास्त्रोंके बार-बार श्रवणसे ही। वास्तवरूपसे उपासित होनेपर यह कृपापूर्वक जिस मुमुक्षु साधकके प्रति प्रसन्न होता है—अथवा जो मुमुक्षु साधक अभिन्नभावसे इस आत्माको प्राप्त करनेके लिये भोग-सुखादिका विषवत् परित्याग करके निरन्तर एकान्तभावसे प्रार्थना करता है, उसी मुमुक्षु साधकको इसकी प्राप्ति होती है। उसी मुमुक्षु साधकके शुद्ध अन्तस्तलमें यह आत्मा अपने स्वरूपको प्रकाशित करता है।’

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥
(१। २। २४)

‘जो पुरुष शास्त्रनिषिद्ध पापरूप दुश्चरितसे निवृत्त नहीं हो गया है अर्थात् जो शास्त्रके विधि-निषेधको न मानकर मनमाना दुराचरण करता है, वह इस आत्माको केवल प्रज्ञान (ब्रह्मविषयक विचार)-के द्वारा नहीं पा सकता; जो इन्द्रियभोगोंमें अत्यन्त आसक्त होकर दिन-रात बन्दरकी तरह विषयोंमें ही भटका करता है—भोगलोलुपतामें ही लगा है, वह नहीं पा सकता; जो नाना प्रकारकी भोगचिन्ताओंसे सदा विक्षिप्तचित्त है, भगवान‍्में एकाग्र करनेकी कभी चेष्टा नहीं करता, वह भी नहीं पा सकता; और जिसका चित्त विविध फलकामनाओंकी ताड़नासे सदा-सर्वदा अशान्त-चंचल रहता है, वह पुरुष भी नहीं पा सकता। इस आत्माको प्रकृष्ट ज्ञानके द्वारा वही पुरुष पा सकता है जो पापसे निवृत्त है, इन्द्रियभोगोंकी आसक्तिसे छूटकर स्थिर साधनामें लगा है, भगवान‍्में एकाग्रचित्त है और फलकामनारहित अचंचल चित्तवाला है।’ और उसे भी आत्मा—ब्रह्मकी प्राप्ति तभी होती है, जब वह एकान्त शरणागतिके द्वारा भगवत्कृपाका अधिकारी हो जाता है।

जो कहता है मैं ब्रह्मको नहीं जानता, वह तो जानता ही नहीं, पर जो कहता है मैं जानता हूँ, वह भी नहीं जानता। असलमें यह वाणीका विषय है ही नहीं। तथापि मानव-जीवनका परम लक्ष्य तो यही है। उपनिषद् में कहा गया है—

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा:
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥
(केन०२। ५)

‘इस मनुष्य-शरीरमें यदि ब्रह्मको जान लिया तो जीवन सफल हो गया। इसमें यदि नहीं जाना तो महान् अनिष्ट हो गया। इसीलिये धीर साधकगण प्रत्येक भूत-पदार्थमें ब्रह्मकी उपलब्धि करके इस लोकसे जाकर अमृतत्वको—भगवत्स्वरूपको प्राप्त होते हैं।’

मनुष्य-शरीर पाकर जो ब्रह्म या भगवत्स्वरूपका साक्षात्कार नहीं करते, उनके सम्बन्धमें उपनिषद् में कहा गया है—

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृता:।
ताॸस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:॥
(ईश०३)

‘आत्मज्ञानहीन—आत्मघाती लोग मृत्युके बाद घोर अन्धकारके द्वारा आवृत असुरोंके निवासयोग्य विविध नरकादि लोकोंमें अथवा वृक्षपाषाणादि योनियोंमें जाते हैं।’

जो न तरै भव सागर
नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति
आत्माहन गति जाइ॥

अतएव पापाचारसे सर्वथा बचकर भगवान‍्के भजन-ध्यानके द्वारा भगवत्कृपाका अधिकार प्राप्त करना चाहिये, जिससे भगवान‍्के यथार्थ स्वरूपका सच्चा ज्ञान प्राप्त हो और मानव-जीवनकी सफलता हो। यह सच्चा साक्षात्कार तभी होता है, जब स्वयं भगवान् कृपापूर्वक करवाते हैं—

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥

यह सत्य है कि ब्रह्मज्ञानी शास्त्रकी सीमासे बाहर होता है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वह जान-बूझकर शास्त्रका उल्लंघन करता है। वह विधि-निषेधके कैदमें नहीं है तथापि जबतक उसके शरीरका होश है, तबतक उसके शरीर-इन्द्रियोंसे ऐसे आचरण नहीं होते जो शास्त्रविरुद्ध हों और लोगोंमें पापका विस्तार करनेवाले हों। रही भजनकी बात सो भजन तो ब्रह्मज्ञानीका स्वरूप ही होता है। उसका जीवन होता ही है भजनमय।

अतएव जो लोग भजनकी निन्दा करते हैं, शास्त्रके विधिनिषेधको न मानकर मनमाना पापाचरण करते हैं, भोगोंमें आसक्त हैं, पर अपनेको ब्रह्मज्ञानी मानते हैं, उनसे तो सावधान रहना ही चाहिये और वैसे ‘ब्रह्मज्ञान’ को भी कभी यथार्थ ब्रह्मज्ञान नहीं मानकर दूरसे ही नमस्कार करना चाहिये।

पापसे न छुड़ानेवाला ज्ञान ब्रह्मज्ञान नहीं भ्रमज्ञान ही है।

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