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बुराईका कारण अपने ही अंदर खोजिये

आपका कृपापत्र मिला। उत्तरमें कुछ विलम्ब हो गया है, इसके लिये क्षमा करें। बात यह है कि हमलोग दूसरोंके अच्छे-बुरे कार्योंपर, दूसरोंकी उन्नति-अवनतिपर और दूसरोंकी सद‍्गति-दुर्गतिपर विचार करनेमें और उनपर अपना मत देनेमें जितना समय नष्ट करते हैं, उतना समय यदि श्रीभगवान‍्के नाम-लीला आदिके चिन्तनमें और उनके गुण-कीर्तनमें लगायें तो हमें बहुत बड़ा लाभ हो सकता है। जहाँ दूसरोंके गुण-दोष-चिन्तन और कथनमें राग-द्वेष, स्तुति-निन्दा होती है और मनमें वैसे ही संस्कार अंकित होते हैं, वहाँ यदि हम श्रीभगवान‍्के दिव्य कल्याणमय गुणगणका स्मरण-कीर्तन करें तो हमारे अंदर छिपे हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। अन्त:करण शुद्ध होता है और भगवान‍्की भक्ति प्राप्त होती है। पर हम इतने मूढ़ हैं कि हमें परचर्चा बहुत मीठी लगती है और इसीसे हम अपने जीवनके अमूल्य समयको व्यर्थ ही इसमें लगाकर विविध भाँतिकी असत् भावनाओं, कुविचारों एवं दुर्गुणोंको अपने अंदर भरते रहते हैं।

इससे एक बड़ी हानि यह होती है कि हमें अपने दोषोंकी ओर देखनेका समय नहीं मिलता और अंदर-ही-अंदर दोष बढ़ते जाते हैं। असलमें बुद्धिमान् मनुष्य तो वही है कि जो अपने उत्थान-पतनकी ओर दृष्टि रखकर नित्य-निरन्तर सावधानीके साथ पतनके कारणोंको दूर करता रहता है।

आपको मैं क्या परामर्श दूँ। मुझे तो ऐसा लगता है कि जबतक आप अपनी बुराइयोंकी ओर ध्यान देकर उनको मिटानेका पूर्ण प्रयत्न नहीं करेंगे, तबतक अपने प्रतिद्वन्द्वियोंसे अच्छाईकी आशा करना आपके लिये निराशाका ही कारण होगा। मनुष्य अपनी बुराई नहीं देखता, इसीसे उसे दूसरोंमें सारी बुराईका विस्तार दीखता है। और जितनी बुराई दीखती है, उतना ही द्वेष बढ़ता है तथा जितना द्वेष बढ़ता है, उतनी ही बुराई भी अधिक दीखने लगती है। यह नियम है कि जिसमें राग होता है, उसके दोष भी गुणके रूपमें दिखायी देते हैं और जिसके प्रति द्वेष होता है, उसके गुण भी दोषरूप दीखते हैं। मनुष्यको दूसरेकी बुराईका कारण अपनेमें खोजना चाहिये। सचाई और गहराईसे देखनेपर तुरंत ऐसा कोई दोष अपनेमें दीख जायगा, जो दूसरेमें बुराई उत्पन्न करनेमें हेतु है।

आप पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं। सोचिये, अपनी ओर देखिये। यदि मेरी बात मानें तो श्रीमद्भगवद‍्गीताके १६ वें अध्यायको ध्यानसे पढ़िये और उसमें वर्णित आसुरी-सम्पदाके लक्षणोंसे अपने आचरणोंकी तुलना कीजिये। आपको पता लगेगा कि आपमें दोष हैं कि नहीं। और यदि दोष हों तो फिर, उनको दूर करनेका प्रयत्न करना आपका कर्तव्य ही होगा।

इसीके साथ-साथ आप नित्य कुछ समयतक भगवान‍्के मंगलमय नामका जप कीजिये और इस मानसिक अशान्तिके कारणका सच्चा सन्धान बतलाने और उसे दूर करनेके लिये दयासिन्धु भगवान‍्से कातर प्रार्थना कीजिये। आप विश्वास रखिये, आपकी कातर प्रार्थना अकारण सुहृद् भगवान् अवश्य सुनेंगे और आपको मानस शान्ति प्राप्त हो, इसकी समुचित व्यवस्था कर देंगे। आपको ऐसी आँख देंगे, जिससे आप अशान्तिके कारणको, जो आपके ही अंदर वर्तमान है, स्पष्ट देख सकेंगे और साथ ही ऐसी शक्ति देंगे, जिससे आप उसका अनायास ही विनाश भी कर सकेंगे। उस कारणके मिटते ही आप निर्मल शान्तिका अनुभव करेंगे।

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