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मनुष्य-शरीर पाप बटोरनेके लिये नहीं है

सप्रेम हरिस्मरण। आपने अपने पत्रमें हृदय खोलकर रख दिया है। वास्तवमें आजकल व्यापारमें झूठ-कपटकी प्रवृत्ति बहुत बढ़ गयी है। लोग यही समझने लगे हैं कि बिना झूठ बोले न तो व्यापार होगा और न रोटी ही चल सकेगी।

यह सब इसलिये हो रहा है कि लोगोंका भगवान् परसे विश्वास उठता जा रहा है। वे भगवान् और उनकी दयाको भूल गये हैं। जब पूर्वजन्मके महान् पाप उदय होते हैं और उनका प्रभाव बढ़ता है, तभी भगवान‍्की विस्मृति होती है। यह भगवान‍्की विस्मृति ही विपत्ति है और उनका निरन्तर स्मरण ही सम्पत्ति है— ‘विपद् विस्मरणं विष्णो: सम्पन्नारायणस्मृति:।’

धन और भोगकी लालसा इतनी बढ़ गयी है कि उसके सामने भगवान‍्का कोई महत्त्व ही नहीं रह गया है। यह धन और भोगोंकी आसक्ति मनुष्यको दु:ख-दैन्यके किस अतल गर्तमें गिराकर डुबो देगी, कहा नहीं जा सकता। यद्यपि रात-दिन झूठ-कपट करने और हाय-हाय करते रहनेपर भी धन और भोग उतने ही मिलते हैं, जितने कि प्रारब्धमें हैं, तथापि मनुष्य व्यर्थकी चिन्ताओंका भार सिरपर लेकर रात-दिन दु:खकी ज्वालामें जलता रहता है। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है!

जब हम माताके गर्भमें रहते हैं, उस समय हमारा पालन-पोषण कौन करता है? शैशवावस्थामें, जब कि हम अन्नका एक दाना भी पचा नहीं सकते, माताके स्तनोंमें सुपाच्य एवं अमृतमय दूधका मधुर स्रोत कौन बहाता है? क्या उस समय भी हम अपने प्रयत्नसे रोटी पाते और जीवन धारण करते हैं? कदापि नहीं। उन सभी अवस्थाओंमें दयामय भगवान् ही हमारे सारे योगक्षेमका वहन करते हैं। समस्त जीवनमें हमें जो कुछ मिलता है, वह सब हमारे प्रारब्धके अनुसार भगवान‍्की दयासे ही प्राप्त होता है। फिर हम व्यर्थ झूठ-कपटका आश्रय लेकर अपने जीवनको सदाके लिये दु:खमय क्यों बना रहे हैं?

मनुष्यका शरीर इसलिये नहीं मिला है कि अन्यायसे, पापसे और झूठ-कपटसे धन इकट्ठा करनेका प्रयत्न करके अपने भावी जीवनको नरककी प्रचण्ड अग्निमें झोंक दें। दयासागर दीनबन्धु भगवान‍्ने जीवको यह एक अवसर प्रदान किया है। जीव मानव-शरीरको पाकर यदि सत्कर्ममें लगता और भगवान‍्का भजन करता है तो वह सदाके लिये भवबन्धनसे मुक्त हो परमानन्दमय प्रभुके नित्यधाममें चला जाता है। यदि भोगोंकी आसक्तिमें पड़कर वह सारा जीवन पापमें बिता देता है तो नरकोंकी प्रचण्ड ज्वालामें झुलसनेके पश्चात् उसे चौरासी लाख योनियोंमें भटकना पड़ता है। क्षणिक विषय-सुखके लिये करोड़ों, अरबों जन्मोंतक दु:ख और कष्टमें जलते रहना कहाँकी बुद्धिमानी है? दूसरे लोग पाप करते हैं, झूठ बोलते हैं तो वैसा करें; वे मूर्ख हैं, भाग्यहीन हैं, आँख होते हुए भी अंधे हैं। उन्हें भी नम्रतासे समझाना चाहिये; परंतु हम इसके भयंकर परिणामको जानते हुए भी ऐसी भूल क्यों करें? धर्मका पालन अपनी ही ओर देखनेसे होता है, दूसरोंकी ओर देखनेसे नहीं। दूसरे लोग नदीमें डूबकर प्राण देते हों तो क्या उनकी देखा-देखी हम भी वही करेंगे?

ये भोग नश्वर हैं, क्षणिक हैं। यह दुर्लभ मानव-शरीर भी पता नहीं, कब हाथसे चला जाय। यह समझकर अब भी चेतना चाहिये। जो समय प्रमादमें बीत गया, सो तो बीत गया। अब नहीं बीतना चाहिये, ‘अबलौं नसानी, अब न नसैहौं। राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥’ ऐसा निश्चय करके बुरे कर्मोंकी ओरसे मनको खींचें। ‘भूखों मर जायँगे, दरिद्र हो जायँगे, मगर अन्यायसे, चोरीसे, धन नहीं कमायेंगे, दूसरेके स्वत्वका हरण नहीं करेंगे’, ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा करके भगवान‍्के भरोसे रहकर उन्हींकी आज्ञासे न्यायपूर्वक व्यापार कीजिये। उससे थोड़ी भी आय हो तो वह अमृत है। सच्चा भगवद्विश्वासी तो न्यायके अनुसार कर्ममात्र करता है, लाभ-हानि, सिद्धि-असिद्धिकी ओर उसकी दृष्टि ही नहीं रहती। न्यायसे लाभ हो तो अच्छा; किंतु लाभके लिये अन्यायपथपर कदम नहीं बढ़ाना है। भगवान् पर विश्वास रखनेवाला पुरुष तो यह सोचता है—

विश्वस्य य: स्थितिलयोद्भवहेतुराद्यो
योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमाय:।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीश-
स्तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थ:॥

‘जो इस जगत‍्की उत्पत्ति, पालन और संहारके एकमात्र कारण हैं, सबके आदि हैं, बड़े-बड़े योगेश्वरोंके लिये भी जिनकी योगमायाका पार पाना कठिन है, वे त्रिलोकीनाथ भगवान् विश्वम्भर ही हमारा कल्याण—हमारे योगक्षेमका वहन करेंगे। इसके लिये हमारे चिन्ता करनेसे क्या लाभ होगा?’

आपके हृदयमें झूठ-कपटके लिये पश्चात्ताप होता है, यह शुभ लक्षण है। इसे आप भगवान‍्की कृपा ही समझें। दूकानपर जानेपर जब आप अपनेको रोक नहीं पाते, ग्राहकोंको पटानेके लिये झूठका आश्रय लेते हैं, उस समय आपपर लोभका भूत सवार हो जाता है। यह वस्तुत: आपका शत्रु है। मनुष्य अपनी दुर्बलतासे ही इन भीतरी शत्रुओंको पनपनेका अवसर देता है। वह चाहे तो इनका नाश शीघ्र ही कर सकता है, पर चाहता नहीं; वह इन शत्रुओंको ही मित्र मानता है। गीतामें आत्माका पतन करनेवाले नरकके ये तीन दरवाजे बताये गये हैं—

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(१६।२१)

मेरी सलाह है कि आप भगवान‍्से रोकर प्रार्थना करें और कहें—‘भगवन्! मेरे हृदयमें निवास करके समस्त दोषों और दुर्गुणोंको दूर भगाइये। हमारा तन, मन, प्राण सब आपको अर्पित है। आप ही इस रथके सारथि अथवा इस यन्त्रके यन्त्री बनकर इसका संचालन करें। मैं आपके संकेतोंपर यन्त्रकी भाँति कार्य करता रहूँ।’ भगवान् आपकी कातर प्रार्थना सुनेंगे और हर समय आपकी रक्षा करेंगे। दूकानपर भी जब लोभकी वृत्ति जाग्रत् हो, तब आँख बंद करके भगवान‍्का स्मरण कीजिये। उनके नामका जप करते रहिये। जो भी ग्राहक आपके पास आवें, उसे भगवान‍्का स्वरूप समझकर आदर कीजिये और उसके साथ निष्कपटभावसे सत्य कहिये। ऐसा करनेसे आरम्भमें कुछ कठिनाई होगी, कुछ हानि होती हुई-सी दिखायी देगी; किंतु जब आपकी सचाई और ईमानदारीका प्रभाव ग्राहकोंपर पड़ेगा, तब आपकी साख दूसरोंकी अपेक्षा अधिक जम जायगी। भगवान् तो प्रसन्न होंगे ही। मेरा तो यह विश्वास है कि भगवान‍्की ओर हमारी भक्ति, हमारा प्रेम बढ़ता रहे तो लौकिक दृष्टिसे हानि उठानेपर भी वस्तुत: लाभ ही होता है। शेष भगवत्कृपा।

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