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धनसे शान्ति नहीं मिल सकती

प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। धनकी लालसा और धनके संग्रहमें शान्ति कहाँ? आज लोग धनके पीछे इतने पागल हैं; धनके लिये धर्म, सत्य, प्रेम, शान्ति सबको तिलांजलि देकर येन-केन-प्रकारेण धनके बटोरनेमें लगे हैं; इसी कारण इतनी चोरबाजारी, घूसखोरी, छीना-झपटी, लूट-खसोट, वैर-विरोध, हिंसा-प्रतिहिंसा और फलत: अशान्ति और दु:खका विस्तार हो रहा है। आज शासक-शासित सभी इस पीड़ासे ग्रस्त हैं। धनका मनोरथ और धन मनुष्यको इतना उन्मत्त बना देता है कि फिर वह आत्मविनाश करनेमें भी नहीं हिचकता। आज जगत‍्में यही हो रहा है—

कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय।
वह खाये बौरात है यह पाये बौराय॥

‘कनक (धतूरे)-से कनक (स्वर्ण-धन)-में सौगुनी अधिक मादकता है, धतूरेको मनुष्य खाता है, तब पागल होता है, पर इसके तो पाते ही पागल हो जाता है।’ श्रीमद्भागवतमें अर्थका अनर्थकारी परिणाम बतलाते हुए कहा है—

अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये।
नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम्॥
स्तेयं हिंसानृतं दम्भ: काम: क्रोध: स्मयो मद:।
भेदो वैरमविश्वास: संस्पर्धा व्यसनानि च॥
एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत्॥
भिद्यन्ते भ्रातरो दारा: पितर: सुहृदस्तथा।
एकास्निग्धा: काकिणिना सद्य: सर्वेऽरय: कृता:॥
अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यव:।
त्यजन्त्याशु स्पृधो घ्नन्ति सहसोत्सृज्य सौहृदम्॥
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स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं प्राप्य लोकमिमं पुमान्।
द्रविणे कोऽनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि॥
(११।२३।१७—२१,२३)

‘मनुष्योंको धनके कमानेमें, कमा लेनेपर उसकी रक्षा करने, बढ़ाने तथा खर्च करनेमें तथा उसके नाश तथा उपभोगमें सर्वत्र परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रमका ही सामना करना पड़ता है। चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, घमण्ड, मद, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जूआ और शराब—ये पंद्रह अनर्थ अर्थ (धन)-के कारण ही होते हैं, ऐसा माना गया है। इसलिये कल्याण चाहनेवाले पुरुषको उचित है कि वह स्वार्थ तथा परमार्थके विरोधी इस अर्थनामधारी अनर्थको दूरसे ही त्याग दे। भाई-बन्धु, पुत्र-स्त्री, माता-पिता और सगे-सम्बन्धी जो स्नेहके कारण सदा एकमेक बने रहते हैं, कौड़ीके कारण इतने पराये हो जाते हैं कि एक-दूसरेके वैरी ही बन जाते हैं। थोड़ेसे धनके लिये ही इन सबका क्षोभ और क्रोध भड़क उठता है, बात-की-बातमें सारा स्नेह-सम्बन्ध भूलकर ये लड़ने-झगड़ने लगते हैं और एक-दूसरेका प्राण लेनेवाले बन जाते हैं—यह मानव-शरीर स्वर्ग और मोक्षका द्वार है, इसको पाकर भी जो मनुष्य इस अनर्थोंके मूल धनके फंदेमें फँस जाता है, उसके समान मूर्ख और कौन होगा?’

आजके बुद्धिमान् मनुष्यने इसी अनर्थकारी धनको जीवनका मुख्य ध्येय मान लिया है और व्यष्टि और समष्टिके लिये इसीको एकमात्र परम सुखका साधन समझकर दिन-रात वह इसीकी चिन्तामें व्यस्त है और भाँति-भाँतिके कुकर्मोंके द्वारा इसके संग्रहमें लगा हुआ है। परम सुखस्वरूप ‘भगवान्’ और उनके प्राप्तिके परम साधन ‘त्याग’ के पवित्र आसनपर धनकी प्रतिष्ठा करके आज मानव अपने मनुष्यत्वसे गिरकर पशुत्व और पिशाचत्वको अपनाता जा रहा है। यह मनुष्यका बड़ा गहरा पतन है! ऐसी अवस्थामें सुख-शान्ति कैसे मिल सकते हैं?

वस्तुके रूपमें धनका विरोध नहीं और न यही है कि मानव-जीवनमें धन अनावश्यक है और उसे कमाना नहीं चाहिये। बात तो यह है कि धन बुरा नहीं है, पर उसे रहना चाहिये आज्ञाकारी सेवक बनकर, आराध्य स्वामी बनकर नहीं; उसका उपार्जन और उपयोग होना चाहिये धर्मयुक्त-सत्य, न्याय, लोकहित और भगवान‍्की सेवाको नित्य साथ रखकर। इस प्रकार अर्थ और उपभोग (अर्थ-काम) जब ‘धर्मसे संयुक्त और सुरक्षित’ होते हैं, तभी वे मनुष्यको मोक्षकी ओर बढ़ानेवाले होते हैं। आज मनुष्यको धर्मकी कोई परवा नहीं है, उसे तो केवल धन चाहिये; फिर वह चाहे किसी भी उपायसे प्राप्त हो। परंतु याद रखना चाहिये, इससे शान्ति नहीं मिलेगी। सच्ची शान्ति और सुखकी प्राप्तिके लिये तो भगवान‍्के शरण होकर, भगवान‍्का भजन करनेकी आवश्यकता है। असम्भव सम्भव हो जाय; परंतु भजनके बिना न तो हमारे क्लेशोंका नाश होगा और न शान्ति और सुखके समुद्र भगवान‍्की ही प्राप्ति होगी—

ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा।
मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा।
बंध्यासुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै।
राम बिमुख न जीव सुख पावै॥
हिम ते अनल प्रगट बरु होई।
बिमुख राम सुख पाव न कोई॥
बारि मथें घृत होइ बरु
सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ
यह सिद्धांत अपेल॥

और भगवान‍्के भजनके लिये बाहरी पूजन-सामग्रियोंके साथ-ही-साथ भीतरी पुष्पोंका भी चयन करना चाहिये। वे पुष्प ये आठ हैं—

अहिंसा प्रथमं पुष्पं पुष्पमिन्द्रियनिग्रह:।
तृतीयं तु दयापुष्पं क्षमापुष्पं चतुर्थकम्॥
ध्यानपुष्पं तप:पुष्पं ज्ञानपुष्पं तु सप्तकम्।
सत्यं चैवाष्टमं पुष्पमेभि: तुष्यन्ति देवता:॥
(स्कन्दपुराण, रेवाखण्ड ५१)

‘अहिंसा प्रथम पुष्प है, (दूसरा) पुष्प इन्द्रियोंका निग्रह है, तीसरा ‘दया’ पुष्प, चौथा ‘क्षमा’ पुष्प, (पाँचवाँ) ‘ध्यान’ पुष्प, (छठा) ‘तप’ पुष्प, सातवाँ ‘ज्ञान’ पुष्प और ‘सत्य’ आठवाँ पुष्प है। इनके द्वारा देवता सन्तुष्ट होते हैं।’

सुख-शान्ति चाहनेवालोंके लिये बस यही साधन है कि वे इन आठों पुष्पोंके द्वारा भगवान‍्का भजन करके भगवान‍्की सन्निधि प्राप्त कर लें।

यह स्मरण रखना चाहिये कि लौकिक धनादि विनाशी पदार्थोंके द्वारा आजतक न तो किसीको शान्ति मिली है और न मिल ही सकती है।

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