सेवाका रहस्य
सादर हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। उत्तरमें निवेदन है कि हमारी सेवा-वृत्ति आज बड़ी ही मलिन और सेवाके नामको कलंकित करनेवाली हो रही है। तभी इस प्रकारकी घटनाएँ होती हैं। मानवकी कामोपभोगपरायणता, अधिकारलिप्सा, अर्थकामना, मान-सम्मानकी तृष्णा और संकुचित स्वार्थपरायणताने सेवाको सर्वथा कुत्सित कर दिया है। सेवा आज या तो वह प्रतारणामयी छोटी-सी कीमत है, जिसे देकर बदलेमें बहुत बड़ा मान-सम्मान या पद-अधिकार चाहा जाता है या एक प्रकारकी रिश्वत है, जिसे देकर नीच स्वार्थसाधनकी चेष्टा की जाती है। आज सेवा की जाती है वोट पानेके लिये, अधिकार पानेके लिये, अपनेको नेतृत्वके आसनपर बैठाये जानेके लिये अथवा यों कहिये कि बहुत बड़ी सेवा करानेके लिये। इसीसे सेवा वस्तुत: सेवा न होकर एक प्रकारकी धोखेबाजी या प्रवंचना हो गयी है। सेवामें सेवकभाव नहीं रहा, वरं बहुत-से सेवक (अनुयायी या गुलाम) तैयार करनेकी दम्भपूर्ण लालसा आ गयी है। निर्मल सेवा तो प्राय: होती ही नहीं। वस्तुत: सेवा ही भक्ति है और उसका स्वरूप है—‘सारी इन्द्रियोंके द्वारा इन्द्रियोंके स्वामी हृषीकेशका सेवन करना। उसमें कोई भी उपाधि नहीं होनी चाहिये और होनी चाहिये केवल परम सेव्य श्रीभगवान्की परायणता। तभी वह निर्मल सेवा होती है’—
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तस्तत्परत्वेन निर्मल:।
हृषीकेण हृषीकेशसेवनं भक्तिरुच्यते॥
ऐसी सेवा तभी हो सकती है, जब सेव्यके साथ सेवकका तादात्म्य हो जाय। जबतक सेवकका तथा सेव्यका स्वार्थ पृथक्-पृथक् है, तबतक अपनी सेवा होती है, सेव्यकी नहीं। देशसेवक वही है, जिसकी देशके साथ एकात्मता हो गयी हो। देशका हित ही जिसका हित, देशकी उन्नति ही जिसकी उन्नति, देशका जीवन ही जिसका जीवन और देशकी मृत्यु ही जिसका मरण हो; देशके और उसके स्वार्थमें न कोई विरोध हो और न व्यवधान हो। जो ऐसा हो, वही देशसेवक या देशभक्त है। सेवकका स्वार्थ है एकमात्र अपने सेव्यका सुख, सेव्यका हित। अपना पृथक् सुख या अपना हित अन्य कुछ है ही नहीं। हम शरणार्थियोंकी सेवा करना चाहते हैं, हम दुर्भिक्षपीड़ित अन्न-वस्त्रहीन नर-नारियोंकी सेवा करना चाहते हैं; परंतु जबतक हमारी अन्तरात्माका उनकी अन्तरात्माके साथ पूर्ण संयोग नहीं हो जाता, तबतक कुछ दिनोंतक हम किसी आवेशमें उनके लिये कुछ कार्य कर सकते हैं; परंतु कुछ ही दिनोंके बाद हमारा भिन्न स्वार्थ उनपर अहसान जताने लगेगा, उनकी कृतज्ञता चाहेगा और चाहेगा उनके द्वारा अपनी सेवा! और ऐसा नहीं होगा तो आजके हम वही सेवक, कल असुर बनकर उनका अनिष्ट करने लगेंगे। सेवा होनी चाहिये—सर्वथा अव्यभिचारिणी, स्वार्थशून्य, अनन्य और पवित्र। सेवाका फल बस, सेवा ही हो और सेवाका आनन्द भी सेवासे ही मिले और कुछ चाहिये ही नहीं। भगवान् श्रीकपिलदेवजीने श्रीमद्भागवतमें कहा है—
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जना:॥
(३।२९।१३)
‘मेरे सेवक (सेवामें इतना आनन्द प्राप्त होता है कि वे) मेरी सेवाको छोड़कर सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य—ये पाँच प्रकारकी मुक्ति देनेपर भी नहीं लेते।’ (मेरी सेवा ही करते रहते हैं।)
इस सेवामें न तो सेवक सेव्यका गुलाम है और न सेवा किये बिना उससे रहा ही जाता है। सेव्यके साथ उसकी इतनी एकात्मता है कि स्वभावसे ही वह उसको सुख पहुँचाकर स्वयं परम सुखका अनुभव करता है। सेवाका न विज्ञापन करता है, न बदला चाहता है। वह सहज सेवा करता है।
इसी प्रकार सेव्य भी यदि सेवा ग्रहण करनेमें ही अपना गौरव समझता है और सदैव सेवा ग्रहण करनेके लिये सज-धजकर बैठा रहता है तो वहाँ भी यथार्थ सेवा नहीं होती। सेव्यके हृदयमें भी असलमें सेवकका सेवक बननेकी आकांक्षा होनी चाहिये। उसकी भी सेवकके साथ ऐसी एकात्मता होनी चाहिये कि वह सेवकके सुखमें ही सुखका अनुभव करे। सेवा वस्तुत: बड़े ही महत्त्वकी वस्तु है। इसीसे सच्ची सेवाका फल बड़ा ही मधुर और अनिर्वचनीय होता है और उसे देते भी हैं अनिर्वचनीय मधुरातिमधुर श्रीभगवान् ही।