दु:खियोंकी सेवामें भगवत्सेवा
प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। समाचार जाने। जगत्में इस समय अभाव बहुत बढ़ रहा है। जितना ही अभाव बढ़ेगा, उतना ही दु:ख भी बढ़ेगा। अभावमें प्रतिकूलताका बोध होता है और प्रतिकूलता ही दु:ख है। किसीके दु:खमें सहानुभूतिके साथ सहायता करना मनुष्यका परम कर्तव्य है। किसका दु:ख किस प्रकारका है, इसका अनुभव उसीको है, जो उस दु:खसे ग्रस्त है। उपदेश देना बहुत सहज है, पर अपने ऊपर दु:ख पड़नेपर कैसी दशा होती है और उस अवस्थामें उपदेशके अनुसार कितना कार्य होता है, इसका पता दु:ख पड़नेपर ही लगता है। यह सत्य है कि दु:ख-सुख हमारे अपने ही पूर्वकृत कर्मोंके फल हैं; परंतु दु:खमें पड़े हुए मनुष्यको उसके दुष्कर्मका फल बतलाकर उसकी उपेक्षा करना कदापि उचित नहीं, ऐसा करना स्वयं वस्तुत: एक बड़ा दुष्कर्म है। दु:खी व्यक्तिको देखकर तो हमें अपनी शक्ति-सामर्थ्यके अनुसार उसकी सेवा-सहायता ही करनी चाहिये।
मान लीजिये—एक गरीब-परिवार है, एक पुरुष है, स्त्री तथा बच्चे हैं। पासमें पैसे नहीं हैं, पुरुष बीमार पड़ा है, स्त्री भी रुग्णा है, उनके लिये दवा और सेवाकी आवश्यकता है, बच्चे भूखके मारे बिलबिला रहे हैं। बच्चोंकी दुर्दशा और अपनी असहाय दशाको देखकर दोनों स्त्री-पुरुषोंके हृदय फटे जा रहे हैं। ऐसी अवस्थामें कोई जाकर उन्हें कर्मका कोरा उपदेश करने लगे तो उससे न तो उनका दु:ख घटता है और न उपदेश देनेवालेका कर्तव्य ही पूरा होता है। ऐसी अवस्थामें तो यथासाध्य अन्न, औषध और सेवाकी सुव्यवस्था होनी चाहिये। इसी प्रकार दु:खोंकी अन्यान्य अवस्थाओंमें भी जब मनुष्य असहाय और आधारहीन हो जाता है, तब उसे क्रियात्मक सहानुभूति करनेवालोंकी आवश्यकता होती है। इस आवश्यकताकी पूर्ति जो पुरुष अपना तन, मन, धन लगाकर स्वान्त:सुखाय करते हैं और सेवा या सहायताका तनिक भी अभिमान न करके सेवाके सुअवसर दानके लिये भगवान्के कृतज्ञ होते हैं, वे सचमुच बड़े ही भाग्यवान् हैं।
आपने धन लगानेके सम्बन्धमें पूछा, सो मेरी रायमें आपको निम्नलिखित कार्योंमें धनका सद्व्यय करना चाहिये—
१-सदाचारिणी अनाथ विधवाओंकी सहायता।
२-असहाय और निरुपाय परिस्थितिमें पड़े हुए भद्र परिवारोंकी सहायता।
३-ऋणके भारसे दबे हुए ईमानदार व्यक्तियोंकी सहायता।
४-असहाय और धनहीन रोगियोंकी सहायता।
इन लोगोंकी सेवा, सहायतामें धन व्यय करना धनका सच्चा सदुपयोग है; परंतु न तो सहायताकी दूकान खोलकर उसका विज्ञापन करना चाहिये, न किसी सहायता पानेवालेको अपनेसे किसी प्रकार नीचा मानना चाहिये तथा न उसपर अहसान ही करना चाहिये। सेवा सर्वोत्तम वह है, जिसका पता उसको भी न लगे, जिसकी सेवा की गयी हो। नहीं तो सेवा करनेवाले और करानेवाले इन दोके सिवा अन्य किसीको तो पता लगना ही नहीं चाहिये, सेवामें ऐसा बर्ताव-व्यवहार कभी नहीं करना चाहिये, जिससे सेवा करानेवालेको संकोचमें पड़ना पड़े, उसे अपनी असहायावस्थामें सेवा स्वीकार करनेकी मजबूरीपर दु:ख हो और वह उसे आत्माका पतन समझे। सेवा करके जो किसीकी आत्माको गिराता या नीचा दिखाता है, वह तो सेवाका दुरुपयोग ही करता है।
आजकल गो-जातिपर बड़ा संकट है। अतएव भूखी गायोंके लिये चारेकी व्यवस्था करनेमें धन व्यय करना भी बहुत उत्तम है। फिर इस समय तो पाकिस्तानसे भागकर आये हुए हमारे लाखों भाई-बहिन बड़ी विपन्न अवस्थामें हैं। वे सब प्रकारसे हमारी सेवाके पात्र हैं। सच्ची सहानुभूति, कर्तव्यनिष्ठा और उल्लासके साथ उनकी सेवा करनी चाहिये और इस सेवाको भगवान्के अर्पण—भगवत्प्रीत्यर्थ ही करना चाहिये! असलमें सब कुछ भगवान्का ही है और सेव्यके रूपमें भगवान् ही सेवा स्वीकार करते हैं। भगवान्की वस्तुसे भगवान्की सेवा करनेमें हम जो निमित्त बनते हैं, यह हमारा सौभाग्य है और इस संयोगकी प्राप्ति करा देनेके लिये हमें भगवान्का कृतज्ञ होना चाहिये। विशेष भगवत्कृपा।