गीता गंगा
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कुछ प्रश्नोत्तर

सप्रेम हरिस्मरण। आपके पत्रका उत्तर विलम्बसे जा रहा है, कृपया क्षमा करें।

१-आपने ‘जीवात्मा और परमात्मामें क्या भेद है?’ यह प्रश्न किया है। अत: भेदका दिग्दर्शन कराया जाता है। यद्यपि इसके पहले यह भी प्रश्न होता है कि ‘भेद है या नहीं?’ कुछ विद्वान् भेद मानते हैं, कुछ अभेद। दोनों ही विचारोंका मूल वेदादि ग्रन्थोंमें उपलब्ध होता है। दृष्टिभेदसे दोनों ही मत ठीक हैं। फिर भी आपके प्रश्नसे इसका सम्बन्ध नहीं है। आपने भेद मानकर प्रश्न किया है। अत: उत्तरमें निवेदन है कि ईश्वर और जीव दोनों ही चेतन, आनन्दस्वरूप और अविनाशी हैं। अन्तर इतना ही है कि जीव अंश है और ईश्वर अंशी। जीव परतंत्र है और ईश्वर स्वतंत्र। जीव दास है और ईश्वर स्वामी। जीव अल्पज्ञ है और ईश्वर सर्वज्ञ। जीवकी शक्ति सीमित है और ईश्वरकी असीम। जीव मायाके अधीन है और ईश्वर मायाके अधिपति। जीव अपनेको, मायाको तथा ईश्वरको भी नहीं जानता और ईश्वर सबके ज्ञाता, प्रेरक तथा बन्धन-मोक्षके देनेवाले हैं। ईश्वर एक है और जीव अनेक। ईश्वर परम महान् है और जीव अणु। जीव कर्मोंके अधीन हो मृत्युके चक्‍करमें पड़ता है और ईश्वर अजन्मा तथा अव्ययात्मा हैं। इस प्रकार जीव और ईश्वरमें भारी भेद है।

२-संसार असत्य है, क्षणभंगुर है। सत्य वही है जो सदा सब समयमें मौजूद रहे, जिसका कभी अभाव न हो। संसारकी कोई भी वस्तु स्थिर नहीं, सब नाशवान् है। संसारकी उत्पत्ति और लय देखे जाते हैं, अत: वह इस रूपमें कभी सत्य नहीं हो सकता। ‘अव्यक्तादीनि’ आदि कहकर भगवान‍्ने इसी तत्त्वकी ओर संकेत किया है। जो आदि और अन्तमें नहीं, उसे वर्तमानमें भी वैसा ही जानना चाहिये। सत्य वही है, जिसका भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों कालोंमें अभाव न हो। संसार ऐसा नहीं है। इसलिये वह असत्य ही है।

३-‘अज्ञात चेतना’ का अर्थ पूछा सो अज्ञात वह है जिसका ज्ञान न हुआ हो और चेतना कहते हैं चैतन्य-शक्ति या ज्ञानशक्तिको। चेतना शब्द मन-बुद्धिका पर्याय भी माना गया है। जो बात मनमें हमें प्रत्यक्ष होती है, वह ज्ञात चेतनामें है; और जो मनमें छिपी है, वह अज्ञात चेतनामें है। अंग्रेजीमें ज्ञात चेतनाको Conscious और अज्ञात चेतनाको Sub-Conscious कहते हैं।

४-गीताका पाठ पहले आप ‘गीतातत्त्वांक’ में बतायी हुई विधिसे करते थे, अब पुस्तक खो जानेसे वैसे ही कर लेते हैं सो इसमें कोई हर्ज नहीं है। गीताका पाठ बहुत ही उत्तम है, जैसे भी हो होना चाहिये, उसे बंद नहीं करना चाहिये। यह चेष्टा रखनी चाहिये कि पाठ करते समय भगवान‍्का ध्यान हो, अर्थका भी अनुसन्धान होता रहे और पाठमें पूर्ण श्रद्धा बनी रहे। साथ ही गीताके उपदेशानुसार जीवन बनानेका भी प्रयत्न किया जाय।

५-अहिंसा और सत्य दोनों बड़े हैं, दोनोंका स्थान ऊँचा है। इनमें एक दूसरेसे छोटा नहीं है। दोनोंका बड़ा महत्त्व है। सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेपर सत्य और अहिंसामें कोई भेद नहीं है। सत्यमें अहिंसाकी और अहिंसामें सत्यकी प्रतिष्ठा है। जो मनसा, वाचा, कर्मणा सत्यका पालन करनेवाला है, उसमें अहिंसा आदि सद‍्गुण स्वभावत: स्थित रहते हैं। इसी प्रकार जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा अहिंसक है, वह कभी असत्यवादी नहीं हो सकता।

६-वाली और सुग्रीव समानरूपसे अपराधी नहीं थे। वाली तो स्पष्ट ही अन्यायी था। उसने भाईके नाते जो उसे मारकर घरसे बाहर निकाल दिया और उसकी धन-सम्पत्ति तथा स्त्रीपर भी अधिकार कर लिया, यह उसका पाप था और पापके कारण वह वध एवं दण्डके योग्य था। भगवान‍्ने उसके पापका स्पष्टीकरण भी कर दिया है—

अनुज बधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।
ताहि बधें कछु पाप न होई॥

—वह पहले भगवान‍्से विमुख भी था।

सुग्रीवकी स्थिति उससे सर्वथा भिन्न थी। वालीके मरनेपर सुग्रीव सब कुछ छोड़कर भजन करनेको तैयार था—

अब प्रभु कॄपा करहु एहि भाँती।
सब तजि भजनु करौं दिन राती॥

—किंतु भगवान‍्ने भक्तवत्सलताके कारण सुग्रीवको स्वेच्छासे राजपदपर प्रतिष्ठित किया था। महारानीके पदपर ताराका ही अभिषेक हुआ। ताराको यह वर प्राप्त था कि पतिके परम धाम पधारनेपर भी वह कुमारी ही मानी जायगी। इसीलिये उसे पंचकन्याओंमें गिना जाता है। सुग्रीव और ताराका सम्बन्ध वानर-जातिकी कुल-प्रथा एवं भगवान‍्की आज्ञासे अनुमोदित था। उसने ताराके साथ बलात्कार नहीं किया था। भगवान‍्का यह कार्य पक्षपात नहीं, भक्तवत्सलतासे प्रेरित था। वे भक्तोंका हृदय देखते हैं, कर्तव्यकी चूक नहीं—‘रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥’ जैसे कल्पवृक्ष सबको समानरूपसे छाया एवं मनोवांछित पदार्थ देता है तथापि उससे वही लाभ उठाता है, जो उसकी छायामें जाता है। उसी प्रकार भगवान‍्की सबपर समान रूपसे दया है, फिर भी उस दयाका लाभ भगवद्विमुखको नहीं मिल पाता। भगवान‍्की शरणमें गये हुए भक्त ही उस दयासे लाभान्वित होते हैं। जो सूर्यकी किरणोंके उदय होनेपर भी खिड़कीका कपाट बंद किये हुए है तथा काला पर्दा डाले हुए है, उसके घरमें प्रकाश कैसे होगा? इसी प्रकार जो भगवान‍्की बरसती हुई दयाकी ओरसे उदासीन हैं, उसे रोकनेके लिये पापरूपी छत्र ताने बैठे हैं, वे अपने ही दोषके कारण वंचित होते हैं। इसमें प्रभुका पक्षपात या द्वेष कारण नहीं है। भगवान् तो स्पष्ट कहते हैं—

‘ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥’
‘समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ॥

७-आपका कहना है, ‘भगवद्भक्त ही अधिक दु:खी देखे जाते हैं, ऐसा क्यों?’ पहली बात तो यह है कि भगवद्भक्तोंको ही अधिक दु:खी देखनेवाले हम-जैसे लोग ही हैं, जिन्हें दु:ख-सुख या दु:खी-सुखीकी वास्तविक पहचान ही नहीं है। जो वास्तवमें भगवद्भक्त हैं, उनके लिये तो दु:ख भी सुख हो जाता है। वे उसमें भी भगवान‍्की दिव्य आनन्दमयी झाँकी करते हैं। संसारी जीव दु:खोंसे डरते हैं, भागना चाहते हैं, किंतु भक्तपुरुष दु:खोंका आवाहन करते हैं— ‘विपद: सन्तु न: शश्वत्तत्र तत्र जगद‍्गुरो।’ इसलिये नहीं कि दु:ख कोई बहुत अच्छी चीज है, बल्कि इसलिये कि दु:खमें भगवान‍्का स्मरण अधिक होता है। भक्तके लिये एक ही दु:ख है—भगवान‍्का विस्मरण होना, उन्हें भूल जाना; और एक ही सुख है—उनका स्मरण होना—

विपदो विपदो नैव सम्पदो नैव सम्पद:।
विपद् विस्मरणं विष्णो: सम्पन्नारायणस्मृति:॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥

आर्थिक दृष्टिसे या शारीरिक दृष्टिसे जो भी दु:ख आते हैं, वे सब प्रारब्धके भोग हैं। अपने ही बुरे कर्मोंके फल हैं। वे भक्त और अभक्त दोनोंपर आते हैं। अभक्त रो-रोकर उन्हें भोगता है। भक्त उनमें भी भगवान‍्की झाँकी पाकर प्रसन्न रहता है। समर्थ भक्त चाहे तो अपने दु:खको दबा सकता है, प्रारब्धके वेगको भी पलट सकता है। जिसको भगवान‍्का सहारा प्राप्त है, वह क्या नहीं कर सकता? तथापि वह ऐसा नहीं करता, करना चाहता भी नहीं। वह भगवान‍्का भजन लौकिक स्वार्थकी सिद्धिके लिये नहीं करता। वह अपना तन, मन, जीवन सब कुछ भगवान‍्के लिये अर्पण कर देता है। भगवान् उससे यदि कुछ सुख प्राप्त कर सकें तो कर लें। वह भगवान‍्के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता। स्वर्ग, नरक सब सहनेको वह तैयार है; किंतु भगवान‍्का चिन्तन न छूटे—

दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो
नरके वा नरकान्तक प्रकामम्।
अवधीरितशारदारविन्दौ
चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि॥

भगवद्भक्त सुख-दु:खसे परे होता है। वह भक्तिके राजमार्गपर जितना ही बढ़ता है, उतना ही सुख और आनन्दमें मग्न होता जाता है। दु:ख तो उसकी छायाको भी नहीं छू सकते। भगवद्भक्त निर्धन और अकिंचन हो सकता है, रोगसे ग्रस्त हो सकता है, तिरस्कृत हो सकता है, वस्त्रके बिना नंगा रह सकता है। यह दुनियावी लोगोंके लिये दु:खकी बात है; किंतु भक्त इन ऊपरी दु:खोंसे ऊपर उठकर उस धरातलमें पहुँचा होता है, जहाँ इनका उसके मनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दु:ख-सुखका वास्तविक सम्बन्ध मनसे है, भक्तका मन सदा सुखस्वरूप परमात्मामें लगा रहता है। अत: लौकिक दु:ख छू भी नहीं सकते।

८-भक्ति और ज्ञान दोनों ही श्रेष्ठ हैं। भक्तिका साधन सुगम और ज्ञानका कठिन है। इस दृष्टिसे यदि किसीको श्रेष्ठ कहा जाय तो वह भक्ति ही है।

९-भगवान‍्की अमृतमयी कथाओंको प्रेमपूर्वक सुनना, पढ़ना और मनन करना; भगवान‍्के नाम, गुण और लीलाओंका कीर्तन करते रहना; भगवद्भक्तोंका संग और सेवन करना; मन, वाणी और शरीरसे भगवान‍्की सेवामें संलग्न रहना; सब प्राणियोंमें भगवान‍्को देखना और भगवान‍्के लिये सर्वस्व त्याग देना—ये सभी भगवान‍्की प्राप्ति और उनकी प्रसन्नताके साधन हैं। सबसे मुख्य साधन हैं—(१) भगवान‍्की कृपा तथा दयापर विश्वास करके सर्वथा उनपर निर्भर हो रहना।

(२) भगवान‍्से मिलनेके लिये हृदयमें तीव्र एकान्त लालसाका जग जाना। भगवान‍्के लिये हृदयमें जितनी ही व्याकुलता बढ़ेगी, उतनी ही शीघ्र उनकी प्राप्ति हो सकती है। भगवान् किसी साधनके वशमें नहीं हैं, वे दर्शन देते हैं अपनी सहज कृपासे ही। साधनके द्वारा तो मनुष्य अपनेको अधिकारीमात्र बनानेकी चेष्टा करता है। ....शेष भगवत्कृपा।

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