गोपीभावकी प्राप्ति
सप्रेम हरिस्मरण। पत्र मिला। आप गोपीप्रेम प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखते हैं—यह तो बड़े सौभाग्यकी बात है। उसके लिये आपने जो तीन प्रश्न पूछे हैं, उनके विषयमें मैं अपने विचार नीचे लिखता हूँ—
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गोपीप्रेमकी प्राप्ति सभीको हो सकती है। बिना इस भावकी प्राप्ति हुए तो प्रियतमकी अन्तरंग लीलाओंमें प्रवेश ही नहीं हो सकता। परंतु यह सर्वोच्च सौभाग्य किस जीवको कब प्राप्त होगा—इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता। यह तो उन प्राणनाथकी अहैतुकी कृपापर ही अवलम्बित है। वे जब कृपा करके जिस जीवको वरण करते हैं, तभी उसे यह सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होता है। जीव तो अधिक-से-अधिक अपनेको उनके चरणोंमें समर्पित ही कर सकता है। समर्पण ही इसका साधन है। साधन इसलिये कि जीव अधिक-से-अधिक इतना ही कर सकता है। परंतु वास्तवमें यह भाव तो साधनसाध्य नहीं है, केवल कृपासाध्य ही है।
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गोपीभावकी प्राप्ति सब कुछ त्यागनेपर तो होती ही है, परंतु यह सर्वस्व-परित्याग किसी बाह्य क्रियापर अवलम्बित नहीं है। यह घरमें रहते हुए भी हो सकता है और वनमें जानेपर भी नहीं होता। गोपियाँ कब वनमें गयी थीं। यह तो भावकी एक परमोत्कृष्ट अवस्था है, जो प्रेमका परिपाक होनेपर ही होती है। प्रेमीके लिये तो सब कुछ प्राणनाथका ही है, उसका है क्या, जिसे वह छोड़े। छोड़नेके साथ तो सूक्ष्मरूपसे ममताका पुट लगा हुआ है। जिसकी किसीमें ममता नहीं है, वह किसे छोड़ेगा। अत: छोड़नेका स्वाँग न करके प्रेमकी अभिवृद्धि ही करनी चाहिये। जो प्रियतमके चरणोंमें आत्मोत्सर्ग कर देता है, उसका अपना कुछ रहता ही नहीं, सब कुछ प्यारेका ही हो जाता है।
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गुरु, वेष और स्थान भावकी प्राप्तिके साधन अवश्य हैं; परंतु अधिकतर इनके द्वारा लोगोंको एक प्रकारकी संकीर्ण साम्प्रदायिकता ही हाथ लगती है। जिसे स्वयं गोपीभावकी प्राप्ति नहीं हुई वह दूसरोंको कैसे उसकी प्राप्ति करा सकता है और गोपी-भावप्राप्त गुरु भी कहाँ मिलेगा। वेष तो प्रियतमकी रुचि जाने बिना कैसे निश्चय किया जाय कि वे किस रूपमें आपको देखना चाहते हैं। प्रियतमका स्थान ही इस लोकसे परे है; इस लोकका वृन्दावन तो केवल उसका प्रतीक है। वह नित्य एवं चिन्मय वृन्दावन तो सर्वत्र है, उसकी उपलब्धि केवल भावमय नेत्रोंसे ही हो सकती है। भावुक उस प्रियतमके धामसे एक क्षण भी बाहर नहीं रह सकता।
ये तो हुए आपके प्रश्नोंके उत्तर। अब आपने जो अपनी पारिवारिक परिस्थिति लिखी है, उसे देखते हुए मेरा यह विचार है कि आप अपने माता-पिता एवं अन्य गुरुजनोंकी सेवा करते हुए ही ईश्वरका प्रेम प्राप्त करनेकी चेष्टा करें। यदि हृदयमें स्त्रीके सम्पर्कसे स्वाभाविक घृणा नहीं है तो विवाह भी अवश्य करें। भजन-पूजनमें समय लगाना बहुत अच्छा है; परंतु क्रियाकी अपेक्षा भावका मूल्य अधिक है। यदि आप प्रभुकी प्रदान की हुई प्रत्येक परिस्थितिको उन्हींका विधान समझें और लौकिक कहे जानेवाले कर्तव्योंको भी प्रभुका कार्य समझकर ही करें तो उनका मूल्य भजनसे कम नहीं होगा। अत: आप न्यायपूर्वक प्राप्त प्रत्येक कर्तव्यको प्रभुका आदेश जानकर पूरा करें।