प्रेममें विषय-वैराग्यकी अनिवार्यता
आपका कृपापत्र मिल गया था। मेरी समझसे ज्ञान और प्रेम दोनोंमें ही वैराग्य स्वयमेव होता है। ज्ञानमें जगत्का जगत्-रूपसे अभाव हो जाता है, फिर राग किसमें हो? और प्रेममें प्रियतमके अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं—याद ही नहीं आता, तब दूसरेमें राग कैसे रहे?
स्त्री हो या पुरुष—यदि किसीका किसीमें सच्चा प्रेम है, उसमें काम-गन्धका जरा भी दोष नहीं है, यदि प्रियतमसे आत्मसुखकी कामना न होकर, अपने महान् दु:खोंकी जरा भी परवा न करके प्रियतमके सुखके लिये व्याकुलतापूर्ण प्रयास है तो वही पवित्र जीवन है। पवित्र भावना, पवित्र विचार, पवित्र वाणी और पवित्र शरीर वही है, जिनमें आत्मसुखकी इच्छा सर्वथा प्रियतमके सुखकी इच्छामें परिणत हो जाती है और भावना, विचार, वाणी और शरीर सभी स्वाभाविक ही आत्मसुखका बलिदान करके सतत प्रियतमको सुखी करनेके अखण्ड प्रयत्नमें लग जाते हैं। ऐसे पवित्र भाव, विचार, वाक् और शरीरवाला प्रेमी ही यथार्थ प्रेमी है। इस प्रेममें जगत्के भोगोंसे स्वाभाविक ही वैराग्य है; क्योंकि यहाँ काम-गन्धका लेश भी नहीं है। प्रेम ऐसा पवित्र पदार्थ है कि यह जिसे प्राप्त होता है, उसके लिये यह समस्त विश्व ही प्रियतम बन जाता है। विश्व नहीं रहता। प्रियतम ही रह जाता है। वही कह सकता है ‘जित देखौं तित स्याममई है।’ उसके नेत्रोंमें विश्वके चित्र नहीं आते। उसके चित्तपटपर जगत्का चित्र अंकित नहीं होता। यदि कभी किसीके प्रेरणा करनेपर उसे विश्वकी स्मृति होती है तो दूसरे ही क्षण वह देखता है कि अपने प्रियतममें ही विश्वका भास हो रहा है। भगवान्ने जो कहा है—
‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।’
(गीता ६।३०)
‘जो सर्वत्र मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है।’ इसका यही गम्भीर रहस्य है।
प्रेमियोंका यह प्रेम—यह प्रियतमानुराग जगत्के समस्त विषयानुरागको खा-पीकर पचा जाता है, फिर उसका बीज भी नहीं रहने पाता उनके हृदयमें। लोग उन्हें पागल बताते हैं। ये परम रागमय, परम विरागी पुरुष बड़े ही विलक्षण होते हैं। श्रीचैतन्यमहाप्रभुकी जीवन-लीलाके अन्तिम वर्ष इसी विलक्षण विरागमय रागका प्रत्यक्ष करानेवाले थे। वे धन्य हैं, जो इस प्रकारके प्रेमकी कल्पना भी कर पाते हैं।