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पीछे पछतानेके सिवा और कुछ भी न होगा

सप्रेम राम राम! तुम्हारा पत्र मिला। भैया! सचमुच मनुष्य भ्रमसे ही भोगोंमें सुख मानता है। असलमें भगवान‍्को छोड़कर सुख कहाँ है? यहाँकी कौन-सी चीज स्थायी है?—‘मा कुरु धनजनयौवनगर्वम्, कालो हरति निमेषात् सर्वम्।’ ‘धन, परिवार और यौवनका गर्व मत करो, आँखकी पलक पड़ते-पड़ते ही काल सबको खा जाता है।’ कहते हैं कि महाराजा भोजके महलमें एक पण्डित बुरी आदतके कारण चोरी करने घुस गये। रातको चोरी करनेपर मन चला, परंतु शास्त्रवचनोंपर श्रद्धा थी; इससे वे जिस वस्तुपर मन चलाते, उसीकी चोरीका ‘अमुक पाप है’ ऐसे शास्त्रवचन उन्हें याद आ जाते। रातभर उन्होंने यों ही सोचने-सोचनेमें बिता दिया। प्रात:काल जब महाराजा भोजके जगनेका समय हुआ, तब पण्डित पलंगके नीचे छिप गये। महाराजा भोज जब सोकर उठते थे, तब उनके सम्मानार्थ सुन्दरी स्त्रियाँ, प्रेमी सुहृद्-बन्धु, विनयशील सेवक आकर खड़े हो जाते थे। हाथी-घोड़ोंकी कतार सलामी उतारती थी। भोज उठे, तब इन सबको देखकर प्रसन्न होकर बोले—

चेतोहरा युवतय: सुहृदोऽनुकूला:
सद‍्बान्धवा: प्रणतिनम्रगिरश्च भृत्या:।
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गा:—

‘मनोहारिणी युवतियाँ, अनुकूल मित्र, उत्तम भाई-बन्धु, नम्रविनयपूर्ण वचन बोलनेवाले भृत्य सब खड़े हैं, हाथी चिग्घाड़ रहे हैं, चंचल घोड़े नाच रहे हैं।’ श्लोकके तीन चरणोंको सुनकर विद्वान् पण्डितसे रहा नहीं गया, उन्होंने झट चौथा चरण बोल दिया—

सम्मीलने नयनयोर्न हि किञ्चिदस्ति॥

‘आँखें मुदीं कि फिर कुछ भी नहीं।’

इस चरणको सुनकर भोजराज चौंके। उन्होंने पूछा—‘कौन हैं?’ पण्डितजी सामने आ गये और उन्होंने सारा हाल कह सुनाया। भोजराज विद्वानोंका आदर करनेवाले थे। पण्डित तो शास्त्रसेवी विद्वान् थे और उन्होंने बड़े ही मौकेकी समस्या-पूर्ति की थी। इससे राजा केवल प्रसन्न ही नहीं हुए, उन्हें अपनी गर्वोक्तिपर संकोच हो गया और कहते हैं कि उसी दिनसे उन्होंने उस प्रथाको बंद ही करवा दिया। कहनेका तात्पर्य यह है कि सचमुच ‘आँखें मुँद जानेपर कुछ भी नहीं है।’ रावणके लाखों संतान थीं, सगरके साठ हजार पुत्र थे, यदुवंशी तो अनगिनत थे। आज किसीका पता नहीं है। बड़े वीर, बड़े प्रतापी, बड़े धर्मी और बड़े विद्वान् सभी कालके कराल गालमें समा गये और समाये चले जा रहे हैं। धर्मराजने इसीपर तो आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था—

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम्।
शेषा: स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्॥

‘रोज-रोज प्राणी यमलोक सिधार रहे हैं, मर रहे हैं, हाथोंसे फूँककर आते हैं, पर वे शेष बचे हुए लोग चाहते हैं कि हम कभी मरें ही नहीं (इसी प्रकारका वे आचरण करते हैं), इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा।’

यहाँका संग वस्तुत: वैसा ही है, जैसा आकाशमें उड़ते पखेरुओंका रातको किसी पेड़पर इकट्ठे हो जाना, अथवा यात्रियोंका धर्मशाला या चलती ट्रेनमें साथ-साथ रहना, या गाँवोंके बटोहियोंका किसी प्याऊपर मिलना। यह सम्बन्ध कितनी देरका? प्रेमसे रहे, एक-दूसरेसे सहायता मिली, हिल-मिलकर सुख-शान्तिसे समय कट गया। लड़े-भिड़े, एक-दूसरेको सताया, दु:ख-अशान्ति बनी रही और लड़ाईके परिणामस्वरूप कहीं फँस गये तो बीचमें ही पुलिसकी हिरासत और जेलकी हवा भी खानी पड़ी। बस, यही दशा संसारी जीवोंकी है। व्यर्थ ही ‘मेरा-मेरा’ करके सब मरे जा रहे हैं—

अशनं मे वसनं मे जाया मे बन्धुवर्गो मे।
इति मे मे कुर्वाणं कालवृको हन्ति पुरुषाजम्॥

‘यह अन्न मेरा, वस्त्र मेरा, स्त्री मेरी, (पति मेरा) सम्बन्धी मेरे। इस प्रकार मे-मे (मेरा-मेरा) करनेवाले मनुष्यरूप बकरेको कालरूपी भेड़िया खा जाता है।’

जो वस्तु अभावयुक्त है, पूर्ण नहीं है, उसमें सुख कहाँ; कमीका दु:ख सदा ही शूलकी तरह चुभता रहता है। फिर जो आज है, कल बिछुड़ जायगी; हमसे अलग हो जायगी, उसमें तो सुखकी कल्पना ही मूर्खता है। इस दृष्टिसे, जगत‍्में जो लोग सुखी समझे जाते हैं, वे कोई भी वास्तवमें सुखी नहीं हैं। वरं जिनके पास संसारके सुखसाधन जितने अधिक हैं, वे उतने ही अधिक बड़े अभावका अनुभव करते हैं एवं अधिक दु:खी रहते हैं। संसारमें सुखकी आशा एक प्रकारसे पागलका प्रयास है। यहाँ ‘भगवान‍्को छोड़कर’ जो कुछ है सब दु:ख-ही-दु:ख है। इसीसे इसको ‘अनित्यम् असुखम्’ ‘दु:खालयम् अशाश्वतम्’ गीतामें कहा गया है।

जबतक भगवान‍्का आश्रय नहीं किया जाता—तबतक मनुष्यका दु:ख नहीं छूट सकता; फिर चाहे वह टूटी मँड़ैयामें रहता हो या रत्नोंके महलोंमें; पत्तेपर रखकर रूखा-सूखा खाता हो या सोनेके थालमें पक्वान्न खाता हो; फटे-चिथड़े पहनता हो या बहुमूल्य शाल-दुशाले ओढ़ता हो; सबके द्वारा अपमानित-तिरस्कृत हो या सम्राटों अथवा देवताओंके द्वारा भी पूजा जाता हो।

बताओ तो, तुमको कौन-से बड़े आदमी कहलानेवाले सुखी दीख रहे हैं? कल्पित अभावकी चिन्ता तो है ही, जो है वह कहीं चला न जाय, इस बातकी भी कम चिन्ता नहीं है। फिर, हमसे उसके पास अधिक है, इस चिन्ताके मारे बहुत-से मरे जाते हैं। सोचो भैया! अपने जीवनका मार्ग ठीक करो। भगवान‍्में मन लगाओ—भगवान‍्का भजन करो और निरभिमान होकर भगवान‍्ने जो कुछ दिया है—उसे यथायोग्य भगवान‍्की सेवामें लगाते चले जाओ। पवित्र जीवन बिताओ, बने जहाँतक दूसरोंको सुख पहुँचाने और उनका हित करनेकी चेष्टा करो। किसीके हितके पथमें काँटे कभी मत बनो।

कामनाका कहीं अन्त है ही नहीं, जितनी पूरी होगी, उतनी ही अधिक बढ़ेगी। उसे पूरी करनेकी चेष्टामें कबतक जीवनको खोते रहोगे? मनुष्य-जीवनके असली लक्ष्य भगवान‍्को प्राप्त करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। दुर्लभ मनुष्य-जीवन यों ही चला गया तो फिर सिवा पश्चात्तापके और कुछ भी चारा नहीं रहेगा। इसीसे श्रीशंकराचार्य कहते हैं—

आयु: क्षणलवमात्रं
न लभ्यते हेमकोटिभि: क्वापि।
तच्चेद‍्गच्छति सर्वं
मृषा तत: काधिका हानि:॥

‘करोड़ों सोनेकी मोहरें देनेपर भी आयुका एक क्षण नहीं प्राप्त होता। ऐसी बहुमूल्य आयु सारी व्यर्थ चली जाय, इससे बढ़कर और क्या हानि होगी?’

भर्तृहरिके वाक्य हैं—

प्राप्य चाप्युत्तमं जन्म लब्ध्वा चेन्द्रियसौष्ठवम्।
न वेत्त्यात्महितं यस्तु स भवेदात्मघातक:॥

‘ऐसा उत्तम जन्म और ऐसी काम करनेवाली इन्द्रियोंको पाकर भी जो मनुष्य अपना हित नहीं पहचानता—अपने कल्याणमें जीवनको नहीं लगाता, वह आत्महत्यारा होता है।’

जो न तरै भव सागर
नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति
आत्माहन गति जाइ॥

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