गीता गंगा
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काम नरकका द्वार है

सप्रेम हरिस्मरण। कृपापत्र मिला। धन्यवाद! आपके प्रश्नोंपर मेरा अपना विचार इस प्रकार है—

(१) ‘मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान’ में ‘जड’ शब्द अज्ञानीका वाचक है। अज्ञानी जीव ही आत्माके स्वरूपको भूल जानेके कारण अपनेको मायाके अधीन और परिच्छिन्न मानता है। प्रभुकी कृपासे उनका साक्षात् कर लेनेके बाद अज्ञान नहीं रहता। फिर मायाकी अधीनता और परिच्छिन्नताका भ्रम भी नहीं होता। यही जीवका शुद्ध रूप है। वह अपनेको भगवान‍्का किंकर मानता और सब कुछ भगवत्स्वरूप समझता है। उसके और भगवान‍्के बीच फिर कोई दूसरी वस्तु नहीं आती। वह भगवान‍्की सेवाका सुख उठानेके लिये ही अपनेको उनसे पृथक् रखता है। वस्तुत: तो वह भी भगवत्स्वरूप ही है। इस प्रकार शुद्ध रूपमें आया हुआ जीव भगवान‍्के सदृश ही नहीं, उनसे अभिन्न है। फिर तो वह ‘जीव’ नहीं, विशुद्ध आत्मा अथवा भगवान‍्का किंकर है। ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ है। जबतक वह मायाके अधीन होकर भूला-भटका फिरता है, तभीतक प्रभुसे दूर या विलग-सा हो रहा है, इस भ्रम या अज्ञानको दूर करनेका उपाय है अनन्य भक्तिके द्वारा प्रभुका साक्षात्कार अथवा विवेकनिष्ठाके द्वारा तत्त्वज्ञानकी उपलब्धि। प्रभुभजन ही सुगम और अमोघ उपाय है; उससे तत्त्वज्ञान भी प्राप्त होता है; अत: प्रभुकी निरन्तर भक्तिद्वारा उनके साक्षात्कारका यत्न प्रत्येक जीवको करना चाहिये।

(२) ईश्वरको ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ:’ कहा गया है। वे करने, न करने अथवा अन्यथा करने (विधानको पलट देने)-में भी समर्थ हैं। सारांश यह है कि भगवान् सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी शंका है—‘क्या वह बीते हुए समय (भूतकाल)-को लौटा सकता है?’ उत्तरमें निवेदन है, ‘हाँ।’ भूत, वर्तमान और भविष्यका भेद उन्हीं लोगोंके लिये है, जिनका जीवन एक नियत समयतकके लिये है। नित्य सनातन परमात्माकी दृष्टिमें न भूत है, न भविष्य। उनके लिये सब कुछ वर्तमान है। वे स्वयं ही काल हैं, उन्हींके गर्भमें यह सारा प्रपंच चल रहा है। आपने पुराणोंमें पढ़ा होगा, जब सारे जगत‍्का प्रलय हो गया था; सब कुछ एकार्णवमें डूब चुका था, उस समय भी बालरूपधारी मुकुन्दके मुखमें प्रवेश करके महर्षि मार्कण्डेयने तीनों लोकोंका पूर्ववत् दर्शन किया था। एक ही व्यक्तिने एक ही समय प्रलय और सृष्टि दोनोंका दृश्य देखा था। वास्तवमें हम सूर्यके उदय-अस्तद्वारा कालकी गणना करके भूत, भविष्य, वर्तमानका विभाग करते हैं; परंतु काल तो नित्य शाश्वत है, वह तो उस समय भी रहता है, जब सूर्य-चन्द्रका पता भी नहीं चलता। कालके ही उदरमें सूर्य-चन्द्रमाकी सूक्ति होती है। ‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।’ हम कालका आरम्भ कल्प अथवा सृष्टिके आरम्भसे मानते हैं; परंतु उस महाकालके जठरमें न जाने कितने करोड़ों बार सृष्टि और प्रलयकी लीला हो चुकी है। अत: नित्य कालकी सृष्टिसे भूत-भविष्य मिथ्या हैं, वर्तमान ही सत्य है; ऐसी दशामें जिसे हम अतीत या भूत कहते हैं, वह प्रभुके स्वरूपमें वर्तमान ही हो तो क्या आश्चर्य है?

(३) आपकी जीवन-गाथा पढ़ी। पढ़कर खेद हुआ। आप उच्च कुलमें उत्पन्न हुए। आपके घरमें धर्माचरणका वातावरण है। सब लोग उच्च विचारके और सच्चरित्र हैं। आपलोगोंके यहाँ साधु पुरुष भी आते-जाते रहते हैं, तब भी आपके हृदयमें इतना भयंकर मोह अभीतक कैसे बना हुआ है? भाई! भोगोंकी तृष्णाका कभी अन्त नहीं है। आपने मनोऽनुकूल पत्नीकी सार्थकता इसीमें समझी है कि भोगोंकी अबुझ पिपासाको शान्त करनेका अबाध अवसर प्राप्त हो। राजा ययातिके सोलह हजार दो स्त्रियाँ थीं। (अपनी सोलह हजार सुन्दरी सखियोंके साथ शर्मिष्ठा उनके अन्त:पुरमें रहती थीं और अप्रतिम रूपवती देवयानी उनकी महारानी थीं;) फिर भी हजारों वर्षोंतक विषयसेवनके बाद भी उनकी तृष्णा शान्त नहीं हुई और वे दु:खी होकर पुकार उठे—

न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय:।
एकस्यापि न पर्याप्तं तदित्यतितृषां त्यजेत्॥
पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतस:।
तथाप्यनुदिनं तृष्णा यत्तेष्वेव हि जायते॥

‘भोगोंकी इच्छा कभी भोगसे नहीं शान्त हो सकती, जैसे घी डालनेसे आग और प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार भोग भोगनेसे उसकी इच्छा और बढ़ती जाती है। इस संसारमें जितने धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब एक मनुष्यके लिये भी पूर्ण नहीं हैं; अर्थात् ये सब एक पुरुषको ही दे दिये जायँ तो भी वह यह नहीं कह सकता कि ‘बस, अब पूरा हो गया, और कुछ नहीं चाहिये।’ विषयोंमें मनको फँसाये हुए मुझे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, तो भी प्रतिदिन उन्हींकी लालसा बनी रहती है।’

गीतामें ‘काम’ को ‘दुष्पूर अनल’ कहा है अर्थात् काम वह अग्नि है, जिसमें विषयोंकी कितनी ही आहुति पड़े, वह कभी तृप्त नहीं होता। उसका कभी पेट नहीं भरता। इसीलिये वह ‘महाशन’ भी कहा गया है। इसके लिये गीताका स्पष्ट आदेश है—‘इस कामरूपी दुर्धर्ष शत्रुको मार डालो’—

‘जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥’

नरकके तीन दरवाजोंमें काम सबसे प्रमुख है। आपकी पत्नी देहातकी सीधी-सादी महिला हैं, इसे आप अपना सौभाग्य समझें। यदि सतीत्वको कुसंस्कार माननेवाली कोई शहरी पत्नी आपको मिल गयी होती तो वह आपके पहले ही आपके पथका अनुसरण करती। यदि आप एक निरपराध पत्नीके रहते हुए दूसरीका चुनाव करने चलते तो वह बहू भी शायद दूसरा पुरुष चुननेमें तनिक भी संकोच नहीं करती। उस समय आपके हृदयमें जो आग जलती, उसे बुझानेकी आपमें शक्ति नहीं रह जाती। अबतक पत्नीने आपकी इन दुष्प्रवृत्तियोंको जानकर भी विरोध नहीं किया, यह भारतीय सतीकी सहज उदारता है। वह उपेक्षा और तिरस्कारको चुपचाप पी जाती है; परंतु पतिको दु:ख न हो, इसके लिये ‘उफ’ भी नहीं करती। इन सतियोंके इस त्याग और बलिदानका आप-जैसे पुरुष अनुचित लाभ उठाने लगे हैं। इसीलिये अब नारियोंमें भी इसकी प्रतिक्रिया होने लगी है और इस प्रकार हमारा समाज रसातलकी ओर गिरता चला जा रहा है।

आप विवेकशील हैं, ईश्वरके समान बननेकी इच्छा रखनेवाले शुद्ध चेतन सहज सुखराशि आत्मा हैं; फिर जड हाड़-मांसके पुतलेपर पागल होकर अपना सर्वनाश क्यों कर रहे हैं? मनुजी कहते हैं—‘मनुष्यकी आयुको नष्ट करनेवाला पाप परस्त्री-सेवनसे बढ़कर दूसरा नहीं है।’ अबसे भी आप अपने पूर्वजोंकी, अपने कुलकी मान-मर्यादाको ध्यानमें रखकर आत्मोत्थानके पथमें लगिये। विषयके कीट बनकर नरकमें पहुँचनेके लिये सुरंग न खोदिये। मेरा तथा समस्त शास्त्रोंका भी मत यही है कि इस पाप-पथपर आप पैर न रखें। सत्संग करें। सत्पुरुषोंकी जीवनी पढ़ें। माता दुर्गा आपकी इष्टदेवी हैं, उनसे रोकर प्रार्थना करें—‘माँ! मुझे बल दो, मैं तुम्हारा योग्य पुत्र बन सकूँ। सदा सर्वत्र समस्त स्त्रियोंमें केवल तुम्हारे मातृरूपके ही दर्शन करूँ।’ माता आपका मंगल करेंगी। शेष प्रभुकी कृपा!

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