किसीको दु:ख पहुँचाकर सुखी होना मत चाहो!
तुम्हारा पत्र मिला, समाचार जाने। इस समय सारा जगत् युद्धमय हो रहा है। जहाँ शस्त्रास्त्रोंसे प्रत्यक्ष लड़ाई नहीं हो रही है, वहाँ भी आज मानवका मन, उसकी चेष्टाएँ और उसके प्रयत्न सभी युद्धसे संश्लिष्ट हैं। तमाम वातावरण कलहपूर्ण है। ऐसी अवस्थामें यदि तुम्हारे यहाँ कलह हो तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। पर तुमको चाहिये कि तुम सदा सावधान रहो और अपने-आपको बचाये रखो। कठिन होनेपर भी बचे रहना असम्भव नहीं है। दृढ़ निश्चय और सावधानीकी आवश्यकता है।
किसीको दु:ख पहुँचाकर अथवा किसीको दु:खी देखकर सुखका अनुभव करना बहुत बड़ी भूल है। मैं तो ऐसा ही मानता हूँ कि दण्डसे अपराध घटते नहीं। अपराधोंका नाश होता है हृदय-परिवर्तनसे और हृदय-परिवर्तन होता है प्रेमसे। भगवान्के नियमोंमें जो दण्ड है, वह नामसे ‘दण्ड’ होनेपर भी असलमें है ‘प्रेम’ ही; क्योंकि उसमें एकमात्र दण्डनीयके हितकी आकांक्षा है। ‘भगवान्के दण्ड’ का किसी अंशमें अनुमान लगाना हो तो अपनी सन्तानको स्नेहमयी माताके द्वारा दिये जानेवाले दण्डसे लगाना चाहिये। माताका हृदय स्नेहसे सना होता है। वह कभी बच्चोंको डाँटती-मारती है तो इसी नीयतसे कि उनका हित हो और मारनेपर जब बच्चा रोने लगता है, तब माँका हृदय भी पिघल जाता है। वह भी रोने लगती है; क्योंकि उससे बच्चेका दु:ख देखा नहीं जाता। इसी प्रकार भगवान्के दण्ड-विधानमें भी उनका प्रेम और उनकी सहज दया भरी रहती है। यों भी कहा जा सकता है कि भगवान्के यहाँ ‘दण्ड’ है ही नहीं। वहाँ तो प्रेम-ही-प्रेम है, सौहार्द-ही-सौहार्द है। इसीसे भगवान्ने अपनेको प्राणिमात्रका (पापी-पुण्यात्मा, नीच-ऊँच—सभीका) ‘सुहृद्’ बतलाया है—‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’। अतएव दण्ड ही हो तो हितकी नीयतसे होना चाहिये। हम आजकल जिसे ‘दण्ड’ कहते हैं, वह तो यथार्थमें द्वेषका परिणाम है। हम वस्तुत: अपराधीका सुधार नहीं करते, हम तो उसे दण्ड पाते देखकर—दु:खमें पड़े देखकर प्रसन्न होते हैं। हमें जो दूसरेके दु:खमें, उसके अहितमें प्रसन्नता होती है—यह प्रत्यक्ष विद्वेष है। द्वेष चाहता है—दु:ख, कष्ट, अमंगल और विनाश; प्रेम चाहता है—सुख, समृद्धि, मंगल और जीवन! इसीसे द्वेषी मनुष्यको किसीके दु:ख, अहित और विनाशमें सुख होता है और इसके विपरीत प्रेमीको किसीके सुख, उत्कर्ष, हित और जीवनमें सुख होता है। तुम प्रेमी बनो, द्वेषी नहीं। फिर किसीके द्वारा भी तुम्हारा अहित नहीं होगा और तुम्हें दु:ख नहीं पहुँचेगा; क्योंकि मनुष्यको वही वस्तु अनन्तगुनी होकर वापस मिलती है, जो वह देता है। एक ही बीजके असंख्य फल होते हैं।
भक्त अद्वेष्टा, मित्र और दयालु होता है
फिर जो पुरुष भगवान्की भक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसके लिये तो भगवान्की वाणीका बहुत भारी महत्त्व होना चाहिये। भगवान्ने श्रीमद्भगवद्गीतामें भक्तके लक्षणोंका वर्णन करते हुए सबसे पहले कहा है—
‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।’
भक्त समस्त प्राणियोंके प्रति ‘अद्वेष्टा’ होता है, सबका ‘मित्र’ होता है और जहाँ दु:ख देखता है, वहाँ तो उसकी करुणाकी सरितामें बाढ़ ही आ जाती है। जहाँ व्यवहारमें ‘विरोध’ का एक्टिंग करना पड़े, वहाँ भी द्वेष तो होना ही नहीं चाहिये! द्वेषका पता लगता है परिणामसे! तुमने जिसका विरोध किया, उसका अहित होनेपर—उसपर संकट पड़नेपर यदि तुम्हें प्रसन्नता या उपेक्षा भी होती है तो समझना चाहिये कि तुम भगवत्प्रीत्यर्थ या कर्तव्यकी दृष्टिसे केवल अभिनय (एक्टिंग) नहीं कर रहे थे, तुम्हारे मनमें द्वेष था, द्वेष न होता तो तुम्हें उसके अहितमें प्रसन्नता तो होती ही नहीं, उपेक्षा भी नहीं होती; क्योंकि भक्तके नाते तुम तो उसका हित ही करना चाहते थे। किसीके अहितकी तो तुम्हारे मनमें कल्पना भी नहीं होनी चाहिये, इसीसे भगवान्ने प्राणिमात्रके साथ मैत्रीभावसे बर्तनेकी आज्ञा दी है। मित्र भी मित्रके शत्रुको शत्रु मान लेता है, इसीलिये ‘दयालुता’ की भी आवश्यकता है। दया मित्र-शत्रुका भेद नहीं करती। वह तो ऐसी वृत्ति है जो किसीका भी दु:ख नहीं सहन कर सकती। अतएव भक्तिके लिये सर्वथा ‘अद्वेष्टा’, ‘मित्र’ और ‘दयापरायण’ होना अनिवार्य है। तुम इसी आदर्शको सामने रखकर आचरण करनेकी चेष्टा करो, फिर कलहका तुमपर कोई प्रभाव नहीं होगा।
धन-लिप्साका परिणाम संहार
तुम्हारा यह लिखना सर्वथा सत्य है कि ‘आजकल धनकी लिप्सा बहुत बढ़ गयी है और इससे मनुष्य भगवान् तथा धर्मको भूल रहे हैं।’ भौतिक सभ्यतामें, जिसका लक्ष्य केवल ऐहिक सुख है, ऐसा हुआ ही करता है। गीतोक्त असुर-मानवका यही तो स्वरूप है। इसी मनोवृत्तिका परिणाम यूरोपका पिछला महान् संग्राम है और इसी मनोवृत्तिने लोककल्याणेच्छु विज्ञानको आज लोकसंहारमें लगा दिया है। अवश्य ही इसका अन्तिम परिणाम बुरा नहीं होगा, यह निश्चय है। यह तो समष्टि-शरीरका ऑपरेशन है, जो उसे निर्विकार—विशुद्ध करनेके लिये हो रहा है; परंतु जबतक पूरी विशुद्धि नहीं होगी, तबतक महामारी, महायुद्ध, दैवी उपद्रव, दु:ख, कष्ट, संहार, नरककी यातना, आसुरी योनियोंकी पीड़ा आदिके रूपमें ऑपरेशनका काम तो चलता ही रहेगा। अवश्य ही जो व्यक्ति चक्कीकी कीलीसे चिपटे रहनेवाले अनाजके दानेकी तरह भगवान्का आश्रय पकड़ लेगा, वह इस ऑपरेशनमें बच जायगा।
धनकी दौड़में धर्मपर अविश्वास
भगवान्को प्राप्त करनेके अनेक साधन हैं—एक ही लक्ष्यतक पहुँचनेके अनेकों विभिन्न मार्ग हैं और अधिकारीभेदसे उनका होना अनिवार्य है; परंतु सबका लक्ष्य एक ‘सत्य’ की प्राप्ति है। इसलिये उनमें बाहरी विरोध दीखनेपर भी असलमें कोई विरोध नहीं है। केवल साधनोंकी भिन्नता है—मार्गका भेद है। इसलिये कभी-कभी उनमें जो भ्रमवश द्वेष-सा दिखायी देता है, वह तो सत्संगादिके द्वारा भ्रमका नाश होते ही नष्ट हो जाता है; परंतु आजकलके लोगोंमें तो किसी भी धर्मपर—साधन-मार्गपर आस्था नहीं है। उनका तो लक्ष्य ही स्थिर नहीं है। उनके हृदयोंमें तो अनवरत केवल अर्थकी—भोगाकांक्षाकी आग धधक रही है। वे लगातार एक-दूसरेसे आगे बढ़नेमें लगे हैं और इसी दौड़में वे अपने असली लक्ष्यको भूलकर जहाँ-तहाँ भटक रहे हैं। इस दौड़का ही परिणाम है भगवान्की सत्तामें अविश्वास, भगवान्की अनावश्यकताका बोध, शास्त्र और धर्मकी अवहेलना, शास्त्र और शास्त्र माननेवालोंका उपहास, सच्चे साधु-संतोंकी अवज्ञा, मनमाना आचरण, धर्मध्वजीपन!
कपट-दम्भ भी बढ़ रहे हैं
तुम्हारा यह लिखना भी ठीक है कि ‘पहलेकी अपेक्षा इस समय धर्मकी चर्चा, गीताका प्रचार, हरिनाम-कीर्तन आदि बहुत बढ़ गये हैं।’ यों तो गीता और हरिकीर्तनका प्रचार किसी भी नीयतसे हो, अन्तमें उसका परिणाम अच्छा ही होगा और कलियुगमें केवल हरिनाम ही जीवोंके कल्याणका एकमात्र साधन रहेगा। इसलिये युगधर्मके अनुसार भी ऐसा होना ठीक ही है। परंतु जरा गहरी नजरसे देखोगे तो पता लगेगा कि धर्म-चर्चा आदिके साथ-ही-साथ कपट, दम्भ, छल, धोखेबाजी, बेईमानी, नीच कामना और धन-मानकी दुर्जर दुराकांक्षा आदिका प्रवाह भी बहुत अधिक बढ़ गया है। कहनी और करनीमें, वाणी और हृदयमें बहुत बड़ा अन्तर पड़ गया है। स्वाँग बढ़े हैं, असलियत घटी है। सरल श्रद्धा तो मर-सी गयी है। इसीसे वास्तविक फल भी कम ही दिखायी पड़ता है। आज कहीं तो आस्तिकताके नामपर नास्तिकताका प्रचार हो रहा है और कहीं मरुभूमिकी मरीचिकाके सदृश प्रेमभक्तिके मिथ्या हाव-भाव दिखाकर सरलहृदय नर-नारियोंकी श्रद्धा-भक्तिका दुरुपयोग किया जा रहा है। सचमुच इस समय बड़ा ही दुर्दिन है!
सभीको भगवान्की आवश्यकता है
एक बात निश्चय समझ रखो कि कोई किसी भी क्षेत्रमें हो—ज्ञानी हो, भक्त हो, कर्मयोगी हो, योगी हो, वैरागी हो, धनी हो, दरिद्र हो अथवा पापी-दुराचारी हो—सबके अभीष्ट तो एकमात्र नित्य परमानन्दघन भगवान् ही हैं। इसीलिये उन रसिकशेखर प्रभुकी जबतक प्राप्ति नहीं होती, तबतक जीवको कहीं तृप्तिका बोध नहीं होता। जगत्की ऊँची-से-ऊँची स्थितिमें भी वह किसी अपूर्णताका, किसी कमीका अनुभव करता है। अनित्य और अपूर्णसे उसकी तृप्ति होती ही नहीं। इसीलिये वह सदा उससे आगे बढ़नेकी कोशिश करता रहता है। यह नित्य और पूर्ण सुख, नित्य और पूर्ण प्रेम, नित्य और पूर्ण स्वातन्त्र्य, नित्य और पूर्ण ऐश्वर्य एवं नित्य और पूर्ण जीवनकी अच्युत चाह इसी बातको सिद्ध करती है कि वह नित्य निरंजन, पूर्णसुखमय, प्रेममय, स्वतन्त्रतामय, ऐश्वर्यमय, अमृतमय सच्चिदानन्दघन भगवान्को ही चाहता है—चाहे वह उनका नाम-रूप-वाणीसे न बता सके और अपूर्ण वाणीसे पूर्णका पूर्ण व्याख्यान हो भी नहीं सकता। इस प्रकार पूर्ण भगवान्की चाह होनेपर भी मनुष्य मोहवश भगवान्को भूलकर अनित्य धन, जन, तन, जमीन, मकान, पद, अधिकार, ऐश्वर्य, राज्य, वैभव, कीर्ति, यश आदिकी कामना करने लगता है और अनवरत उसकी पूर्तिके लिये प्रयत्न करता है। कामना नहीं पूर्ण होती तब दु:खी होता है और कहीं पूर्ण होती है तो कामनाका क्षेत्र और बढ़ जाता है; इससे उसका अतृप्तिजन्य दु:ख और भी बढ़ जाता है। संसारकी कोई भी वस्तु कामनाकी आगको बुझा नहीं सकती। कामनाके विशाल अग्निकुण्डमें ज्यों-ज्यों काम्य वस्तुकी आहुतियाँ पड़ती हैं, त्यों-ही-त्यों वह अधिक-से-अधिक भड़कती है। इस प्रकार कामनाकी आगमें जलता हुआ और लगातार निराशाके थपेड़े खाता हुआ भी प्राणी बीच-बीचमें काम्य वस्तुकी प्राप्ति होनेपर एक रसका आस्वादन करता है और मान लेता है कि इसी रसकी पूर्णतासे वह नित्य सुखी हो जायगा। इसीलिये बार-बार विषय-रसकी इच्छा करता है और उसीकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील रहता है। यह जो अनित्य और अपूर्णकी इच्छा है, यही बन्धन है। यह बन्धन तब कटना शुरू होता है, जब अनित्य और अपूर्णकी इच्छाओंसे विरति और नित्य और पूर्णकी एकान्त इच्छा जाग्रत् होने लगती है। नित्य और पूर्णकी प्राप्तिके बाद फिर स्वाभाविक ही कोई इच्छा शेष नहीं रहती, न नयी ही पैदा होती है; क्योंकि पूर्णसे पूर्णताको प्राप्त पुरुषमें कभी ‘अभावका भाव’ और ‘भावका अभाव’ होता ही नहीं। वह स्वयं ही स्वरूपगत नित्य और पूर्ण हो जाता है।
यह जो नित्य और पूर्णकी अनन्य इच्छा है, यही जीव-जीवनकी अनन्य परमावश्यकता है, यही उसका परम अर्थ है, जिसके लिये वह अज्ञातरूपमें भी सदा तड़पा करता है। इस परमार्थकी सिद्धि ही परम सिद्धि है। हृदयमें जब यह आवश्यकता जाग्रत् हो जाती है, तब उसे इसको छोड़कर, जैसे डूबते हुए प्राणीको ऊपर उतरानेकी बातके सिवा कोई बात नहीं सुहाती और जैसे प्याससे मरते हुएको जलके सिवा और कोई चीज नहीं सुहाती, वैसे ही कोई भी चीज नहीं सुहाती। उसको उस समय सुख-दु:ख, मित्र-शत्रु, धन-दरिद्रता, कीर्ति-अकीर्ति किसीकी भी चाह और परवा नहीं रहती। वह तो एकमात्र अपने प्राणधन—जिसके लिये उसका चित्त एकान्त व्याकुल हो उठा, प्रेममय प्रभुके लिये तड़पता है और पछाड़ खाता है। ऐसी अवस्थामें वे नित्य-प्राप्त, नित्य-संगी, नित्य-सुहृद् प्रभु उसके सामने, जैसे वह चाहता है वैसे ही, उसीके इच्छानुसार भावभेषमें प्रकट हो जाते हैं और उसे अपने दिव्य बाहुपाशमें बाँधकर, हृदयसे लगाकर, उसके मस्तकपर हाथ फेरकर, सिर सूँघकर, प्रेमाश्रुओंसे उसके मस्तकका अभिषिंचन कर, उसके प्रेमाश्रुवारिसे अपने चरणपद्मोंको पखरवाकर कृतार्थ कर देते हैं।
भगवान्का सौहार्द
भगवान् तो नित्य ही आते हैं। दिन-रातमें न मालूम कितनी बार आते हैं। हमें उनकी आवश्यकता नहीं। इसीलिये हम उन्हें कह देते—‘फिर कभी आना, अभी अवकाश नहीं है।’ भगवान् जब कभी हमारे मनमें स्मृतिके रूपमें पधारते हैं, तब हम उस स्मृतिको पकड़ क्यों नहीं रखते? इसीलिये कि हमारे सामने उस समय कोई दूसरा जरूरी काम होता है। हम उनकी अवहेलना करते हैं। वे तिरस्कृत होकर चले जाते हैं, परंतु फिर आते हैं—फिर-फिरकर आते हैं; फिर भी हम उनका आदर नहीं करते। तब भी वे तो हमें नहीं छोड़ते—नहीं छोड़ना चाहते। हमारे भूल जानेपर भी वे हमें नहीं भूल सकते। हमारे तिरस्कार करनेपर भी वे हमारा आदर ही करते हैं। हमारे छोड़नेपर भी वे हमें नहीं छोड़ते, हमारे दुत्कारकर निकाल देनेपर भी वे बार-बार आकर अपनी मधुर झाँकी दिखाना चाहते हैं। छिप-छिपकर झाँकते हैं नववधूकी तरह; व्याकुल होकर दौड़ते हैं स्नेहमयी जननीकी तरह। इसीलिये तो वे भगवान् हैं। ‘भोग’ हमारे बुलानेपर भी नहीं आते और हमारे न चाहनेपर भी, लाख खुशामद करनेपर भी धक्का और धोखा देकर चले जाते हैं और ‘भगवान्’ बिना बुलाये ही आते हैं और न चाहनेपर भी, अपमान करनेपर भी ‘धक्का’ और धोखा देनेपर भी नहीं जाते। यह सहज कृपा-शक्ति ही—जो उनमें कभी अकृपा करनेकी ताकत पैदा नहीं होने देती—उनकी भगवत्ता है। इतनेपर भी हम उनकी आवश्यकता नहीं समझते—यह हमारा कितना अभाग्य है।
परंतु वे तो तब भी नहीं छोड़ते। जब किसी भी उपायसे हम उनकी ओर नहीं ताकते, तब कृपापरवश होकर वे दु:खके—भयानक दु:खके रूपमें हमारे सामने प्रकट होते हैं और हमारे अंदर अपनी आवश्यकता जगाकर हमें अपना लेते हैं। इसीलिये तो भक्तगण भगवान्से दु:खका वरदान माँगा करते हैं।
पत्र बहुत लम्बा हो गया। तुम्हारी बहुत-सी बातोंका उत्तर इसमें आ गया है। अब फिर कभी।