कुछ आध्यात्मिक प्रश्न
सप्रेम हरिस्मरण। कृपापत्र मिला, धन्यवाद। उत्तरमें कुछ विलम्ब हो गया है, कृपया क्षमा करेंगे। आपके प्रश्नोंका उत्तर इस प्रकार है—
१—४-जिसकी सहायतासे कार्य किया जाय उसे करण कहते हैं। क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त उपकारक वस्तुका नाम करण है। जैसे लोहार कर्ता है तो औजार उसका करण है। कर्ता और करणसे भौतिक जगत्का कार्य चलता है। आध्यात्मिक जगत्में भी कर्ता और करणसे ही सब कार्य होते हैं। यहाँ कर्ता जीवात्मा है और करण इन्द्रियाँ। जैसे देखनेकी क्रिया करते समय द्रष्टा तो जीवात्मा है और उसके दर्शनरूप कार्यमें सहायता देनेवाला करण है नेत्र। इसी प्रकार सुनने, बोलने, चलने आदिमें भी कर्ता जीवात्मा है और श्रवण, वाक् तथा पाद आदि इन्द्रियाँ करण हैं। इनके दो भेद हैं—कर्म-इन्द्रिय और ज्ञान-इन्द्रिय। जिनसे स्थूल क्रियामात्र होती है, वे कर्मेन्द्रिय हैं, जैसे हाथ, पैर, गुदा, लिंग, और वाक्। जिनसे कुछ ज्ञान होता है, वे ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जैसे नेत्र, रसना, घ्राण, श्रवण, त्वचा। इनके द्वारा रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्शका अनुभव होता है। करणोंके भी दो भेद हैं—बाह्यकरण और अन्त:करण। पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ये बाह्यकरण हैं; क्योंकि इनसे बाहरकी क्रिया तथा बाहरके ही विषयोंका अनुभव होता है। जिस इन्द्रियसे भीतर-ही-भीतर अनुभव तथा मनन आदिकी क्रिया हो, उसे अन्त:करण कहते हैं। इसके चार भेद हैं—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। किसी वस्तुको देखने, सुनने अथवा पढ़नेके बाद जो मननकी क्रिया होती है, उसका करण ‘मन’ है। इसे संकल्प और विकल्पका भी आधार माना गया है। संदेह, संशय आदि भाव मनमें ही उठते हैं। मनके ऊपर बुद्धि है, इसके द्वारा पदार्थका निश्चयात्मक ज्ञान होता है। मनका स्वभाव संदेह—संकल्प-विकल्प करना है और बुद्धिका काम निश्चय करना है। यही मन और बुद्धिमें अन्तर है। मन संदेहके चक्करमें पड़कर चंचल हो उठता है। उस समय बुद्धि तर्क और युक्तियोंसे विचार करके एक निश्चय उपस्थित करती है। इससे मनका भी संशय मिट जानेसे वह स्थिर हो जाता है। यही बुद्धिके द्वारा मनका संयम है। इसी तरह बुद्धि मनको वशमें करती है; क्योंकि जहाँ मनकी पहुँच नहीं है, वहाँ भी बुद्धि काम करती है। इसीलिये कहा गया है—‘मनसस्तु परा बुद्धि:।’ अन्त:करणमें जो ‘अहम्, अहम्’ (मैं-मैं)-का अभिमान उठता है, यही अहंकारकी वृत्ति है। तथा जिस वृत्तिके द्वारा अपने अभीष्टका चिन्तन और स्मरण होता है, उसीका नाम चित्त है। इन चारोंको अन्त:करण कहते हैं। इसीका नाम हृदय भी है। हृदय वह प्रदेश या स्थल है, जहाँ अन्त:करणकी ये चारों वृत्तियाँ काम करती हैं। इनका कोई स्थूल रूप नहीं, ये सभी सूक्ष्म वृत्तियाँ हैं। हृदयाकाशमें ही अन्त:करणका कार्य होता है। हृदयके मध्यभागमें कमलका चिन्तन किया जाता है, उसकी कर्णिकामें इष्टदेवका आसन है, वहीं विराजमान इष्टदेवका चिन्तन या ध्यान किया जाता है। वह कर्णिका चित्त-स्थानमें है। वहीं विज्ञानमय कोष है, जहाँ ज्ञानीलोग ब्रह्मका चिन्तन करते हैं। हृदय और कलेजामें बहुत अन्तर है। हृदय आकाशकी भाँति शून्य है, उसकी वृत्तियाँ सूक्ष्म हैं और कलेजा स्थूल।
५-अन्त:करणके तीन दोष हैं—मल, विक्षेप और आवरण। भगवान्की प्रसन्नताके लिये निष्कामभावसे शुभ शास्त्रोक्त कर्म करनेसे तथा भगवन्नामजप एवं भजन करनेसे मल-दोषका नाश होता है, भगवान्का ध्यान करनेसे विक्षेप दूर होता है और महापुरुषोंका सत्संग करनेसे भगवत्तत्त्वका ज्ञान होकर आवरणकी निवृत्ति होती है। भगवान्के नामका जप, भगवान्का ध्यान, सत्संग और भगवान्के तत्त्वका चिन्तन—ये सब अन्त:करणकी शुद्धिके उपाय हैं। शेष भगवान्की दया!