कुछ पारमार्थिक प्रश्नोत्तर
सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला था। उत्तरमें अधिक विलम्ब हो गया। कार्याधिक्यके कारण ऐसा प्राय: हो जाया करता है। कृपया क्षमा करेंगे। आपके प्रश्नोंका उत्तर इस प्रकार है—
१-यह बिलकुल ठीक है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल भोगनेमें परतन्त्र है। बड़े-बड़े पुण्यात्मा महात्माओंके व्याधिग्रस्त होनेकी जो बात सुनी जाती है, उससे इस सिद्धान्तमें कोई बाधा नहीं आती। उनके द्वारा पूर्वजन्मोंमें कुछ ऐसे कर्म बन गये होंगे, जो इस जन्ममें प्रारब्ध बनकर कष्टकारक हुए। कर्मका रहस्य बड़ा विचित्र है, वह जल्दी समझमें नहीं आता। गीता भी कहती है—‘गहना कर्मणो गति:।’(४। १७) कुछ पुण्य और पाप ऐसे हैं, जो पृथक्-पृथक् स्वतन्त्ररूपसे भोगे जाते हैं। जैसे राजा नृगने दानका फल अलग भोगा और एक बार दी हुई गौको पुन: दान करनेके अपराधसे जो पाप बन गया, उसको उन्होंने गिरगिट होकर अलग भोगा। कुछ पुण्य ऐसे हैं, जो पापका नाश करते हैं। इसी प्रकार कुछ पाप भी ऐसे होते हैं, जो प्रबल होकर पुण्यको निष्फल अथवा क्षीण कर देते हैं, जैसे अतिथिका अपमान करनेवालोंको अपने पहलेके पुण्यसे हाथ धोना पड़ता है आदि।
जो शुभ या अशुभ कर्म प्रारब्ध बनकर फल देनेमें प्रवृत्त हो जाते हैं, उनके सिवा अन्य सारे कर्म अपने विरोधी प्रबल कर्मके द्वारा दब जाते हैं। फलदानोन्मुख प्रारब्ध भोगनेसे ही समाप्त होता है। हाँ, यदि कोई अत्यन्त प्रबलतम कर्म बन जाय तो वह प्रारब्धकी गतिको भी रोकनेमें समर्थ हो जाता है। यदि हम क्रोधमें आकर किसीपर बाण चला दें, उसके बाद तुरंत ही दया आ जानेके कारण यदि हम उसे मारना न भी चाहें तो भी अब छूटा हुआ बाण वापस नहीं लौट सकता। हाँ, उस दयाके प्रभावसे अब हम क्रोधजनित नवीन पापकर्म नहीं कर सकेंगे। प्रारब्धकर्म छूटे हुए बाणके समान है। आज जो पुण्य बनेगा, उसका प्रभाव भावी जीवनपर पड़ेगा। जो जीवन मिला है, वह पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है। अत: आज यदि हम किसी पुण्यात्माको दु:खी और पापीको सुखी देखें तो उससे इस जीवनके कर्मका सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। जैसे अपने ऊपर चलाये हुए बाणके प्रहारको भी चतुर और सावधान मनुष्य रण-कौशलसे विफल कर देता है, उसी प्रकार प्रबलतम पुण्यके कवचसे दुष्ट प्रारब्धरूपी बाणका प्रहार भी असफल किया जा सकता है। उच्च कोटिके महात्मा पुरुष तो दयावश दूसरे जीवोंके दु:खरूप प्रारब्धको भी स्वयं ग्रहण करके उसे स्वेच्छासे भोग लेते हैं। ऐसा देखा-सुना गया है। साथ ही, महात्मा पुरुषोंमें या तो भोक्तापन ही नहीं होता या वे अपने प्रत्येक भोगको भगवान्का मंगल-विधान मानकर प्रतिक्षण भगवान्का संस्पर्श प्राप्तकर आनन्दमग्न रहा करते हैं। उनके महत्त्वको न जाननेवाले साधारण लोग उन्हें दु:खी-सुखी मानते हैं। वस्तुत: उनपर उस दु:ख-सुखका कोई प्रभाव नहीं रहता। वे भीतरसे दोनों ही अवस्थाओंमें सम एवं निर्लिप्त रहते हैं।
‘वैशाख शुक्लपक्षकी मोहिनी एकादशी पहाड़के समान बड़े-बड़े पापोंका विनाश कर देती है,’ इस कथनमें अत्युक्ति नहीं है। सभी एकादशियोंका ऐसा ही प्रभाव है। इस व्रतको करनेवाले लोग भी यदि दु:ख, शोक और व्याधिसे पीड़ित देखे जाते हैं तो उसका अर्थ यह नहीं कि उनके पापका नाश नहीं हुआ। इस जन्मके और अन्य जन्मोंके अनेकों संचित पापकर्म अवश्य ही नष्ट होते हैं। दु:ख, शोक और व्याधि तो उन कर्मोंके फल हैं, जो प्रबल प्रारब्ध बनकर कष्ट दे रहे हैं। उनको दबाने लायक कोई प्रबल पुरुषार्थ नहीं हुआ रहता है। इसलिये उनका फल भोगना ही पड़ता है। व्रत आदिके द्वारा प्राय: संचित पापकर्मोंका ही नाश होता है।
२-‘सकृदेव प्रपन्नाय’—इस श्लोकके अनुसार जो एक बार भी ‘भगवन्! मैं तुम्हारा हूँ’ यह कहकर भगवान्के शरणागत हो जाता है, उसे भगवान् सब ओरसे निर्भय कर देते हैं। यह प्रभुप्रतिज्ञा अक्षरश: सत्य है। भगवत्-शरणागतको केवल अभय-प्राप्तिके लिये ही नहीं, किसी भी वस्तुके लिये कोई अन्य साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है। शरणागति स्वयं सब साधनोंकी सम्राज्ञी है। इतनेपर भी मनुष्यका मन, जो प्रभुकी ओर नहीं जाता, विषयोंकी ओर ही दौड़ता है, इसमें कारण है विषयोंके प्रति उसकी घोर आसक्ति। इस आसक्तिसे जिसका अन्त:करण आच्छन्न है, उसके मनमें प्रभु और उनकी शरणागतिका विचार भी नहीं उठ सकता। फिर वह निर्भय कैसे हो? वह तो विषयभोगोंके सामने स्वयं ही प्रभुकी उपेक्षा कर देता है। इसमें सन्देह नहीं कि प्रभु-कृपासे सभी कुछ सम्भव है। आसक्तिका मिटना, प्रभुमें विश्वास होना, सच्ची शरणागति ग्रहण करना आदि सब कुछ प्रभु-कृपासे साध्य है और प्रभुकी कृपा सब जीवोंपर निरन्तर बरसती रहती है तथापि विषयासक्त जीव उससे लाभ नहीं उठा पाता। मेघ कितनी ही जीवनमयी रसधारा क्यों न बरसाये, जो अपने ऊपर विशाल छाता लगाये बैठा है, उसपर उस रसका क्या प्रभाव पड़ेगा। यही दशा विषयासक्तकी है। विषयासक्तिके आवरणमें ही वह प्रभु-कृपासे वंचित रह जाता है। यदि किसी पूर्व पुण्यके उदय होनेसे वह अपनी गयी-बीती स्थितिका अनुभव करके भगवान्के सामने अपना हृदय खोलकर रोये और पुकार-पुकार कहे, ‘भगवन्! मैं विषयोंके अगाध समुद्रमें डूब रहा हूँ, तुम स्वयं बाँह पकड़कर उबार लो। मुझमें कोई बल, कोई साधन और कोई योग्यता नहीं, सब कुछ तुम्हीं करो नाथ! ले लो मुझ पतितको अपने परम पावन चरणोंकी शरणमें।’ इस प्रकार सच्चे मनसे प्रार्थना करनेपर भगवान् सब कुछ स्वयं करते और सँभालते हैं। एक बार उसमें शरणागतिकी इच्छा तो जगे। कर्म करनेमें स्वतन्त्र कहलानेवाला मानव जब शरणमें आना चाहेगा तभी तो भगवान् उसे शरणमें लेंगे; अन्यथा यदि वह विषयोंकी ओर जानेका इच्छुक हो तो उसकी इच्छामें बाधा डालकर भगवान् उसकी कर्मविषयक स्वतन्त्रतामें बाधक कैसे बनेंगे? भगवान् तो बुलाते हैं—‘सारी चिन्ताएँ छोड़कर, सब धर्मोंका आश्रय-भरोसा त्यागकर केवल एक मेरी शरण आ जाओ। चिन्ता न करो। मैं तुम्हें सब पापोंसे मुक्त कर दूँगा।’ इतनेपर भी भाग्यहीन मनुष्य प्रभुकी ओर नहीं जाता। वे आलिंगनके लिये बाँहें फैलाये हुए राह देखते हैं, किंतु अभागा जीव उनकी छातीसे लगना ही नहीं चाहता। उसे नरकके कीटकी भाँति विषयोंके कीचड़में ही सुखकी अनुभूति होती है। आवश्यकता है भगवान्की ओर जानेकी, उनसे मिलनेके लिये उत्सुक होनेकी, फिर तो हम एक पग चलेंगे तो भगवान् अनन्त पग चलकर हमें अपने भुजपाशोंमें कस लेंगे; क्योंकि जीव अपनी शक्तिसे भगवान्को पानेकी चेष्टा करता है तो अनन्तशक्ति सत्यसंकल्प भगवान्—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ के अनुसार अपनी शक्तिसे उससे मिलनेकी चेष्टा करते हैं। फिर मिलनेमें क्या देर लगेगी। चींटी चलेगी अपनी चाल, तो गरुड़ चलेंगे अपनी चाल। इसी प्रकार जब भगवान् स्वयं चाहेंगे तो जीवको क्या उनकी प्राप्तिमें कभी विलम्ब हो सकता है?
३-‘मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय’ अथवा ‘पुरुष एवेदॸसर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्’ किंवा ‘वासुदेव: सर्वम्’—इस सत्यको हृदयंगम कर लेना ही वास्तविक पुरुषार्थ है फिर तो कुछ करना या पाना शेष नहीं रह जाता। इसकी साधनामें बाधक होता है राग-द्वेष-जनित वैषम्य अथवा स्वकीय-परकीय भाव। यह वैषम्य अथवा भाव अपने मनमें ही है। अपने मनकी ही विषमता या दुर्भावना हमें अन्यत्र दिखायी देती है। स्त्री, शत्रु, अन्त्यज, विरोधी, निन्दक या अहितकारी—इनमें प्रभुभाव रखनेकी युक्ति वही है जो विद्या-विनय-सम्पन्न ब्राह्मण, गौ, कुत्ते और चाण्डालमें समदृष्टि रखनेकी है। ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ता आदि सभी एक-दूसरेसे अत्यन्त भिन्न हैं, इनमें आकार-प्रकार, खान-पान, व्यवहार-बर्ताव आदिमें कोई भी साम्य नहीं है। हाथीकी सवारी होगी, कुत्तेकी नहीं। गौका दूध पीया जायगा, कुतियाका नहीं। सारांश यह कि इन सबके साथ एक-सा बर्ताव होना कदापि सम्भव नहीं है। फिर वह समदृष्टि क्या है, जिसको गीता सिखाती है। वह है—‘उन सबमें समानरूपसे सदा-सर्वदा एकरस स्थित परमेश्वरका दर्शन करना।’ ब्राह्मण, गौ आदिमें परस्पर अत्यन्त वैरूप्य होते हुए भी उनमें एक ही परमात्माका नित्य निवास है। अत: सभी हमारे आदर एवं सहयोगके पात्र हैं। व्यवहार उन सबके साथ पृथक्-पृथक् होगा। हाथीरूपमें आये हुए भगवान्को पहचानकर मन-ही-मन उन्हें प्रणाम करना तथा उनके स्वरूपके अनुसार भोजन आदिकी व्यवस्था करके उन्हें सन्तुष्ट रखना यह तो उनकी पूजा है। व्यवहारमें आवश्यकता पड़नेपर उनपर सवारी की जा सकती है; क्योंकि इसीमें उस स्वाँगकी सफलता है। नाटकमें कभी मालिक दासका और दास मालिकका पार्ट करता है। वहाँ दासरूपमें आये हुए मालिकके साथ दासोचित बर्ताव करनेमें ही अभिनयकी सफलता है। इसी प्रकार जिस रूपमें भगवान् हमारे सामने आवें, उस रूपके उसी वेषके अनुरूप तो उनके साथ व्यवहार किया जाय और मन-ही-मन उन्हें असली रूपमें पहचानकर उन्हें सुखी एवं प्रसन्न करनेकी चेष्टा की जाय। जैसे अपनेको सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है, वैसे ही सबको है। यह समझकर सबको सुख पहुँचानेकी चेष्टा हो और सभीके दु:खोंका निवारण किया जाय। कभी किसीको दु:ख न पहुँचने दिया जाय। यही समदृष्टि है।
जिसको हम शत्रु या विरोधी मानते हैं, वह स्वरूपसे न शत्रु है, न विरोधी। यदि वस्तुत: यही उसका स्वरूप होता तो सभीको वह शत्रुरूपमें प्रतीत होना चाहिये। पर ऐसा नहीं होता; बहुत लोग उसे अपना मित्र भी समझते हैं। एक ही आदमी शत्रु और मित्र दोनों कैसे हो सकता है? जो उसे शत्रु मानता है, उसके लिये वह शत्रु है; जो मित्र समझता है उसके लिये मित्र है। अत: शत्रु-मित्रकी कल्पना मनुष्यके मनने ही की है। जब मनमें ही शत्रुता है, तब मनको ही ठीक करना चाहिये। दूसरेको शत्रु क्यों माना जाय? शत्रु-मित्रका भेद स्थूल शरीरको ही लेकर है। स्थूल शरीरके भीतरका परमात्मा तो सबमें एक ही है; वह न किसीका शत्रु है, न मित्र है। वह तो सबका आत्मा ही है।
मान लीजिये कोई हमारी निन्दा करनेवाला है। वह किसीकी निन्दा करता है—हमारे इस स्थूल शरीरकी अथवा आत्माकी? यदि आत्माकी निन्दा करता है तो अपनी ही निन्दा करता है; क्योंकि हमारा और उसका आत्मा दो नहीं है। और यदि शरीरकी निन्दा करता है, तब तो वह हमारा सहायक ही है; क्योंकि इस स्थूल शरीरकी निन्दा तो हम स्वयं भी करते हैं। यह शरीर मल-मूत्रका आगार है, क्षणभंगुर है—आदि बातें कहकर हम स्वयं भी तो इस शरीरकी निन्दा करते हैं। किसीने ठीक ही कहा है—
आत्मानं यदि निन्दन्ति स्वात्मानं स्वयमेव हि।
शरीरं यदि निन्दन्ति सहायास्ते जना मम॥
यदि कहें, हम तो सबमें भगवान्का दर्शन करके निर्विकार रहते हैं, किंतु कोई आततायी हमें अकारण मारकर या सताकर चला जाता है, उस समय हमें क्या करना चाहिये? तो उस समय उसी युक्तिसे काम लेना चाहिये, जो पहले बतायी गयी है। आततायीरूपमें आये हुए भगवान्को भी पहचानकर मन-ही-मन नमस्कार करे, किंतु व्यवहारमें कठोरतापूर्वक उसका प्रतीकार करे। व्यवहार तो यथायोग्य होना ही चाहिये। भगवद्दर्शन और स्मरण मनसे करना चाहिये।
सर्वत्र भगवद्दर्शनका उपाय है—‘भक्ति’। हम भगवान्में अपना प्रेम बढ़ावें, उनका भजन करें। उनके नामोंका जप और कीर्तन आदि करें। इससे भगवान् हमारे अन्त:करणको शुद्ध करके उसमें अपने विशुद्ध ज्ञानका प्रकाश कर देंगे। फिर सर्वत्र उनके तत्त्वका साक्षात्कार होने लगेगा। फिर वैर-विरोध, शत्रु-मित्रका विरोध स्वयं ही मिट जायगा। तुलसीदासजी कहते हैं—
उमा जे राम चरन रत
बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत
केहि सन करहिं बिरोध॥
गीता अध्याय ६ श्लोक २९ से ३२ तकका तथा ७। ७; ७। १९; ९। ४; ९। ६; ९। १७, १८; ९। २९; १०। ८; १०। ३९; १०। ४२; १८। ६१ आदि श्लोकोंका मनन करके तदनुसार अनुभव करनेसे भी सर्वत्र प्रभुके दर्शन हो सकते हैं।
४-काम-क्रोध ही समस्त पापोंकी जड़ है। काम ही क्रोध है। इस कामके तीन अधिष्ठान हैं—इन्द्रिय, मन और बुद्धि। मनके द्वारा इन्द्रियोंको और बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करनेसे कामका नाश सम्भव होता है। यद्यपि मन बहुत ही चंचल है, वायुकी भाँति इसका निग्रह अत्यन्त दुष्कर है, तथापि ‘अभ्यास’ और ‘वैराग्य’ से इसको काबूमें किया जा सकता है। मनकी वृत्तियोंको रोकना ही योग है और जो उन्हें रोकनेका साधन करता है, वह साधक योगी है। मनको रोकनेका सबसे अच्छा साधन है—भगवान्के सगुण विग्रहका ध्यान। मन निरवलम्ब नहीं रह सकता, उसको कोई सुन्दर आलम्ब मिलना चाहिये। भगवान्की मधुर मनोरम झाँकीसे बढ़कर दूसरा कोई अवलम्ब नहीं हो सकता। अत: भगवान्के दिव्य रूपके ध्यानमें मनको बाँध रखना होगा। इसके वशमें होते ही काम-क्रोधकी जड़ स्वयमेव कट जायगी। भगवान् कहते हैं, जो विषयोंका चिन्तन करता है, उसका मन उन्हींमें आसक्त होता जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका मन मुझमें ही लीन हो जाता है—
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥
(श्रीमद्भा०११।१४।२७)
इसके सिवा जो साधक अनन्यभावसे भगवान्के चरणोंका भजन करता है, उसके हृदयमें यदि कभी पूर्वकी प्रबल वासनाके कारण कोई अनुचित संकल्प हुआ और उससे प्रेरित होकर कोई निषिद्ध कर्म भी बन गया तो उसके अन्त:करणमें स्थित भगवान् स्वयं ही उसके कर्म और विकर्म (विरुद्ध कर्म)-का नाश कर देते हैं। उसके योगक्षेमका सारा भार भगवान् स्वयं उठा लेते हैं—
स्वपादमूलं भजत: प्रियस्य
त्यक्तान्यभावस्य हरि: परेश:।
विकर्म यच्चोत्पतितं कथंचिद्
धुनोति सर्वं हृदि संनिविष्ट:॥
(श्रीमद्भा०११।५।४२)
‘तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥’
(गीता ९। २२)
इस प्रकार आपकी शंकाओंपर कुछ विचार प्रकट किया गया है। इससे यदि आपको कुछ सन्तोष हुआ तो मुझे प्रसन्नता होगी। आपने जो मुझे प्रणाम लिखा सो ठीक नहीं है। मैं तो आपके आशीर्वादका ही अधिकारी हूँ।