प्रार्थनाका महत्त्व
आपका कृपापत्र मिला। प्रार्थनाके सम्बन्धमें आपके प्रश्न बड़े महत्त्वके हैं। उनका उत्तर अपनी बुद्धि तथा अनुभवके आधारपर लिख रहा हूँ। आपको कुछ लाभ हुआ तो आनन्दकी बात है।
प्रार्थनाका मूल है विश्वास! ‘भगवान् हैं, वे परम सुहृद् हैं, हमारी प्रत्येक बातको सुनते-समझते हैं, हमपर उनकी असीम स्नेह-सुधा-धारा सदा बरसती रहती है, वे अपने-से-अपने हैं, निकट-से-निकटतम आत्मीय हैं, सदा हमारे साथ रहते हैं—हमारे हृदयमें रहकर हमारी देख-रेख करते हैं और हमारी करुण पुकार सुनकर उसी समय हमारे दु:खका नाश करते हैं।’ इस प्रकार जिनके हृदयमें विश्वास है, वे ही प्रार्थनाके ‘अधिकारी’ हैं। ऐसे अधिकारी अपने परम सुहृद् भगवान्के सामने अपनी भाषामें हृदय खोलकर जो अपनी व्यथा सुनाते हैं और श्रद्धाविश्वासपूर्वक उनसे जो सहायता चाहते हैं, उसीका नाम ‘प्रार्थना’ है। जब विश्वासी भक्त जगत्की अन्यान्य चेष्टाओंसे विमुख होकर, अन्य आशाओंको छोड़कर, अन्य बलोंका भरोसा त्यागकर, अपने हृदयाराध्य नित्य सुहृद् प्रभुके चरणोंमें रो-रोकर अपनी जो रामकहानी सुनाता है, वह स्वाभाविक ही बड़ी सच्ची, बड़ी सुन्दर, बड़ी मधुर और बड़ी आकर्षक होती है। उससे तुरंत ही हृदयका भार हलका हो जाता है। भीषण चिन्ताओंकी आगसे जलते हुए हृदयको, जैसे भीषण ग्रीष्मसे उत्तप्त पृथ्वीको वर्षाकालीन जलधारा शीतल और प्रशान्त कर देती है, वैसे ही अपूर्व शान्ति मिलती है, कामना और वासनाओंसे कलुषित तथा पीड़ित दुर्बल हृदयमें पवित्रता, सुख और शक्तिका संचार होता है और मुरझाया हुआ उदास मुखकमल आनन्दमयकी आनन्दकिरणोंके पड़ते ही सहसा खिल उठता है।
परन्तु हम अभागे मनुष्य भगवान् पर, भगवान्की अपार कृपापर, उनके अहैतुक सौहार्दपर और उनके वांछाकल्पतरु स्वभावपर विश्वास नहीं करते! इससे दिन-रात एकके बाद एक दु:ख, दैन्य, दुर्भाग्य, रोग, शोक, अपमान, अत्याचार, दुर्वासना और दुश्चिन्ता आदिसे पीड़ित होनेपर भी उनसे छुटकारा पानेके अव्यर्थ साधन सुख-शान्तिके अमोघ उपाय ‘प्रार्थना’ से लाभ नहीं उठाते। चौबीस घंटेमें घंटेभर भी एकान्तमें बैठकर भगवत्प्रार्थना नहीं करते—प्रभुके दरबारमें हाजिर होकर अपना दु:ख उन्हें नहीं सुनाते!
इसका यह अर्थ नहीं कि हमें समय नहीं मिलता। व्यर्थ कार्योंके लिये पर्याप्त समय मिल जाता है। दु:ख-संकटसे पूर्ण, क्लेशसाध्य, कलुषित और व्यर्थ व्यापारोंमें निष्फल, बल्कि पाप उत्पन्न करनेवाले अनेकों कार्योंमें हम अपना जीवन बिता देते हैं, परन्तु भगवत्स्मरण, भगवन्नाम-जप और भगवत्प्रार्थना-सरीखे सहज, अव्यर्थ और निश्चय फल देनेवाले साधनोंमें हम प्रतिदिन थोड़ा-सा समय भी नहीं लगाते—सरल व्याकुल हृदयसे कभी उन्हें नहीं पुकारते। इसमें प्रधान कारण है हमारे ‘विश्वासका अभाव।’
जैसे शरीरके अभावकी पूर्ति और उसके संरक्षणके लिये स्वाभाविक ही भूख-प्यास उत्पन्न होती है, वैसे ही भगवान्के निर्मल चरणामृतकी प्यासी आत्मामें भी उसकी स्वाभाविक भूख-प्यास है। स्वाभाविक स्थितिमें आत्मा सचमुच ही भगवत्प्रसादके लिये व्याकुल होती है। जबतक भगवच्चरणारविन्दकी प्राप्ति नहीं हो जाती, तबतक साधककी आत्माको कुछ भी नहीं सुहाता, वह नितान्त अधीर और उत्कण्ठित हो जाता है। यही नियम शरीरके सम्बन्धमें है। अस्वस्थ स्थितिमें भूख बंद हो जाती है, परन्तु स्वस्थ स्थितिमें समयपर भूख लगती ही है और उस अवस्थामें अन्न-जल न मिलनेपर अत्यन्त व्याकुलता होती है। आज जो आत्मामें भगवत्प्रसादके लिये भूख-प्यास नहीं दिखायी देती है, इसका कारण है अनेक जन्मोंके अशुभ कर्मोंके बुरे संस्कार। इन कुसंस्कारोंके कारण भगवत्प्राप्तिके लिये होनेवाली विरहकी आग मन्द पड़ गयी है। मन्दाग्निमें भूख कैसे लगे? इस अग्निको फिरसे प्रदीप्त करना पड़ेगा, नहीं तो, इस रोगसे कभी छुटकारा नहीं मिलेगा और इसका फल होगा भीषण आत्मघात!
जो न तरै भव सागर
नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति
आत्माहन गति जाइ॥
श्रीमद्भागवतमें स्वयं श्रीभगवान्ने कहा है—
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥
(११। २०। १७)
‘यह मानव-शरीर भगवत्कृपासे सुलभ और वस्तुत: बहुत दुर्लभ है। संसार-सागरसे तरनेके लिये यह दृढ़ नौका है। गुरुदेव कर्णधार हैं और मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसकी सहायता करता हूँ, इतनेपर भी जो भवसागरसे नहीं तरता, वह तो अपने ही हाथों अपनी हत्या कर रहा है।’ यह ‘आत्महत्या’ साधारण नहीं है। मोक्षके द्वारपर पहुँचे हुए आत्माको पुन: मरणके मार्गमें पहुँचा देना बड़ा अपराध है! यह मरणका मार्ग है—‘भगवद्भजनसे विमुखता।’ भगवद्भजनसे विमुख रहना ही आत्माको भूखे रखना है और किसीको भूखे रखकर मारना ‘महान् अपराध’ है। इस रोगकी चिकित्सा करनी चाहिये। चिकित्सा कठिन नहीं है। बस, भगवान्के नामका जप करना और इस रोगनाशके लिये भी भगवान्से कातर प्रार्थना करना। प्रार्थना करनेसे ही प्रार्थनाकी शक्ति और प्रार्थनामें रुचि तथा रति पैदा होगी। फिर स्वाभाविक प्रार्थना होगी, जो आत्माकी असली खूराक है।
प्रार्थना दो प्रकारकी होती है—निष्काम और सकाम। जो सचमुच भगवत्प्रेमी होते हैं, जिनके चित्तकी स्थिति बहुत ऊँची होती है, वे लौकिक कामनाकी पूर्तिके लिये प्रार्थना नहीं करते। वस्तुत: उनके मनमें लौकिक कामना होती ही नहीं। वे तो केवल भगवत्-सेवन ही चाहते हैं और भजनके लिये ही भजन करते हैं। उनकी प्रार्थना तो अपने प्रियतम प्रभुकी प्रीतिके लिये ही होती है। वे यदि कभी कोई कामना करते हैं तो यही कि—‘हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई॥’ वे मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते, क्योंकि जबतक कोई इच्छा है, तबतक सत्य प्रेमका प्रादुर्भाव ही नहीं होता।
भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते।
तावत् प्रेमसुखस्यात्र कथमभ्युदयो भवेत्॥
(पद्म०, पाताल० ४६।६२)
‘जबतक भोग और मोक्षकी पिशाचिनी इच्छा हृदयमें वर्तमान है, तबतक प्रेम-सुखका प्रादुर्भाव कैसे हो सकता है?’
इसीलिये प्रेमी भगवद्भक्त मोक्षका भी परित्याग करके केवल प्रेम ही करते हैं और इस प्रेमके लिये ही, प्रेमकी प्रेरणासे ही वे अपने प्रियतम भगवान्को भजते हैं। श्रीभगवान् कहते हैं—
न पारमेष्ठॺं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्॥
(श्रीमद्भा० ११।१४।१४)
‘जिसने अपनेको मुझे अर्पण कर दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्माका पद चाहता है, न देवराज इन्द्रका और न सार्वभौम सम्राट्का ही पद चाहता है; तथा न वह रसातलका राज्य चाहता है और न योगकी बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ ही, यहाँतक कि वह अपुनर्भव (मोक्ष)-की भी इच्छा नहीं करता।’
श्रीचैतन्य महाप्रभु कहते हैं—
न धनं न जनं न सुन्दरीं
कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे
भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
‘हे जगदीश्वर! मैं धन, जन, सुन्दरी या कीर्तिप्रदायिनी कविता नहीं चाहता। मेरी तो बस, यही प्रार्थना है कि जन्म-जन्ममें तुम्हारे चरणोंमें अहैतुकी भक्ति ही बनी रहे।’
असलमें यह भी एक प्रकारकी कामना ही है; परन्तु इस कामनामें निज सुखकी इच्छाका परित्याग है, यहाँतक कि समस्त दु:खोंकी आत्यन्तिक निवृत्तिरूपा मुक्तिकी भी चाह नहीं है, बल्कि अपने प्रियतम भगवान्की रुचिके अनुकूल भगवत्सेवामें दु:ख भी उठाने पड़ें तो उनका सहर्ष स्वीकार है। इसलिये यह निष्काम है।
सकाम प्रार्थनामें विश्वासी भक्त अपने या दूसरोंके दु:खोंके नाश या मनोरथोंकी पूर्तिके लिये भगवान्से कामनायुक्त प्रार्थना करता है। हमारे वेद ऐसी ही प्रार्थनाओंके मन्त्रोंसे भरे हैं। यद्यपि सकाम प्रार्थना निष्कामकी अपेक्षा निम्नश्रेणीकी है, परन्तु इसमें भी विश्वासकी दृढ़ता है, इसलिये यह भी ऊँची श्रेणीकी भक्ति ही है। इसीसे भगवान्ने गीतामें सकाम भक्तोंको भी ‘सुकृती’ और ‘उदार’ बतलाया है और उनको भी अन्तमें अपनी प्राप्ति बतलायी है—‘मद्भक्ता यान्ति मामपि।’
इसीसे भक्त तुलसीदासजी कहते हैं—
जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं,
जियँ जाचिअ जानकीजानहि रे।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ,
जो जारति जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषनकी,
अरु आनु हिएँ हनुमानहि रे।
तुलसी! भजु दारिद-दोष-दवानल
संकट-कोटि-कृपानहि रे॥
जगत्में किसीसे कुछ भी माँगना नहीं चाहिये। यदि माँगना ही हो तो मन-ही-मन जानकीनाथ श्रीरामचन्द्रजीसे माँगो, जिनसे माँगनेपर वह मंगनपना (कामना-वासना) जल जाता है, जो बरबस सारे जगत्को जला रहा है। (कामनाका जल जाना ही प्रेमकी प्राप्तिका अधिकार पाना है।) विभीषणकी दशाका विचार करके देखो और श्रीहनुमान्जीका भी स्मरण करो। गोसाईंजी कहते हैं—‘तुलसीदास! दरिद्रतारूपी दोषको जलानेके लिये दावानलके समान और करोड़ों संकटोंको काटनेके लिये कृपाणरूप श्रीरामचन्द्रजीको भजो।’
वेदोंमें वर्षाके लिये भगवान्की इन्द्रस्वरूपसे प्रार्थना की गयी है और भी विभिन्न कामनाओंकी पूर्तिके लिये प्रार्थनाएँ हैं। ऐसी प्रार्थनाएँ प्राचीन कालमें लोग करते थे और उन्हें उनका निश्चित फल भी तुरंत मिलता था। आधुनिक विज्ञान इस बातको स्वीकार नहीं करता। वह कहता है वर्षा प्राकृतिक नियमोंसे होती है। किसीकी प्रार्थनासे प्रकृतिमें क्रिया नहीं हो सकती। प्रकृतिका नियम न तो मनुष्यकी प्रार्थना समझता है और न उसके द्वारा शासित या संचालित होकर कोई क्रिया ही करता है। विज्ञानको यह पता नहीं है कि प्रकृतिके अंदर एक ज्ञानमयी चेतन शक्ति ओत-प्रोत है, जिसकी प्रेरणासे सारे कार्य होते हैं। इस व्यापक शक्तिका नाम ही हमारी शास्त्रीय भाषामें ‘विष्णु’ है। श्रुति कहती है—‘तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ ‘विश्वकी रचना करके वे विष्णु उसके अणु-अणुमें अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हो गये।’ प्रकृतिके जितने भी कार्य होते हैं, वे सब उसके प्रेरक प्रभुके संकेतसे ही होते हैं। उन्हींकी शक्तिसे चन्द्र, सूर्य, वायु आदिमें क्रिया है, इस बातको आजका विज्ञान अभी नहीं मानता। हमारे ‘केनोपनिषद्’ में आता है कि भगवान्ने जब अग्नि और वायुमेंसे शक्ति हरण कर ली, तब एक क्षुद्र-से तृणको न तो अग्निदेवता जला सके और न वायु उड़ा ही सके। प्रह्लादके अग्निमें न जलनेका भी यही रहस्य है। विभिन्न देवताओंके रूपमें भगवान् ही प्रकृतिमें स्थित रहकर विभिन्न क्रियाएँ सम्पन्न करते हैं। इसीलिये यज्ञादि क्रियाओंमें देवताओंकी प्रार्थना होती है और उनके द्वारा अभीष्ट फलकी सहज ही प्राप्ति होती है। जो लोग भगवान्से मनोरथ-पूर्तिके लिये प्रार्थना करते हैं, उनका यह विश्वास होता है कि सर्वशक्तिमान् भगवान्की शक्तिसे ही सब कुछ होता है और सब कुछ हो सकता है। भक्तवांछाकल्पतरु श्रीभगवान् जीवोंकी सरल और कातर प्रार्थना सुनते हैं तथा उनकी इच्छा पूर्ण करते हैं।
वैज्ञानिक लोगोंकी धारणामें इस जगत्के दृश्य पदार्थोंके अतिरिक्त किसी अन्य अदृश्य भागवती या दैवी-शक्तिका अस्तित्व नहीं है। यह उनकी अज्ञता है। विज्ञानमें ज्यों-ज्यों उन्नति होगी—वैज्ञानिकगण ज्यों-ज्यों सत्यकी ओर आगे बढ़ेंगे, त्यों-ही-त्यों उनको इस सत्यकी भी उपलब्धि होगी कि समस्त प्रकृतिमें जो एक अखण्ड नियमसे कार्य हो रहा है, इसका नियमन करनेवाली दिव्य चेतन भागवतीशक्ति है और उसकी उपासनासे प्रकृतिके कार्योंमें विलक्षण परिवर्तन भी हो सकता है।
प्रार्थना सकाम हो या निष्काम, होनी चाहिये सरल श्रद्धा और विश्वासके साथ। प्रार्थनामें किसी श्लोक, कविता या गानकी आवश्यकता नहीं है। यद्यपि भाव-विकासके लिये इनके उपयोगमें आपत्ति भी नहीं है। प्रार्थनामें तो आवश्यक है हृदयका भाव। जैसे छोटा बच्चा सरल विश्वाससे माँके सामने रोकर अपनी सहज बोलीमें अपनी बात माँको सुनाता है, वैसे ही प्रार्थना भी शुद्ध सरल हृदयसे होनी चाहिये।