नामसे पापका नाश होता है
प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण। कृपापत्र मिला। धन्यवाद। आपके प्रश्नोंपर अपना विचार इस प्रकार है—
(१)भगवान्के नामके बलपर पाप नहीं हो सकता, पापका नाश होता है। क्या सूर्यके प्रकाशके बलपर अन्धकार फैलाया जा सकता है? क्या जहाँ अन्धकार है, वहाँ सूर्यका प्रकाश भी है? इसी प्रकार जहाँ पाप है, वहाँ नाम या नामका बल नहीं है। वहाँ तो नामका अनादर या अवहेलना है। नाम और भगवान् दोनोंके प्रति द्रोहकी सूचना है। दूसरे शब्दोंमें वह महान् नामापराध है। इसका दण्ड है—‘अन्धतमसाच्छन्न घोर नरक।’
नाम वह अग्नि है, जो पापराशिके ईंधनको जलाकर भस्म कर देती है। उस आगसे पापका नया ईंधन नहीं निकल सकता। सूर्यका प्रकाश रात्रिके गहन अन्धकारको विलीन कर देता है। उस समय नूतन अन्धकारकी सृष्टि नहीं हो सकती। जो नामकी शरण लेता है, वह भगवान्के प्रति श्रद्धालु होता है। वह पापके बन्धनसे छूटनेके लिये भगवान्की शरणमें जाता है। उसको पापसे छूटनेकी चिन्ता रहती है। उसके मनमें पाप करनेका द्विगुण उत्साह नहीं हो सकता। वह पुराने अभ्यासवश विवश होकर पाप कर सकता है; फिर सावधान होता है, फिर फिसलता है। इस प्रकारकी दशा उसकी हो सकती है; किंतु वह पापसे दूर रहनेके लिये ही प्रयास करता है। पाप हो जानेपर उसके मनमें बड़ी ग्लानि होती है। वह अपार वेदनाका अनुभव करता है। प्रभुसे रो-रोकर प्रार्थना करता है कि मुझे पापोंसे बचाइये। ऐसे साधकको भगवान् बचा लेते हैं। वह पहलेका पतित है, भगवान्की शरणमें आकर उनके नामकी गंगामें नहाकर पवित्र हो गया है। अतएव भगवान् पतितपावन हैं। यदि भगवान्की शरणमें आकर भी कोई पापाचारी, पतित बना रह जाय, तभी उनकी पतित-पावनतामें संदेह किया जा सकता है। मनुष्य पहले कितना ही दुराचारी क्यों न रहा हो, यदि नाम और भगवान्की शरण ग्रहण कर लेता है तो भगवान्के शब्दोंमें उसे ‘साधु’ ही मानना चाहिये; क्योंकि अब उसने ठीक रास्ता पकड़ लिया है, उत्तम निश्चयको अपना लिया है—
‘साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥’
अब वह पापी नहीं रहेगा। पापमें उसकी प्रवृति नहीं होगी। उसको तो अब शीघ्र ही महात्मा बनना है—‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा।’
पर जो भगवान्का नाम लेकर पाप करता है, वह तो असुरों और दैत्योंकी भाँति भगवान्के साथ खुला विद्रोह करता है। असुरों और दैत्योंने भगवान् विष्णुको अपना शत्रु समझा था, अत: वे उनके स्वरूपभूत धर्मपर कुठाराघात करनेके लिये जान-बूझकर पापको बढ़ावा देते थे। पापाचार ही उनकी युद्धघोषणा या चुनौती थी। आज भी जो लोग नाम लेकर जान-बूझकर पाप करते हैं, वे नामापराधी असुर और दैत्योंकी कोटिमें हैं। समाजमें पाप और भ्रष्टाचार फैलाना उन्हींका काम है। भगवन्नामका आश्रय लेनेवाले भक्त तो स्वभावसे ही धर्मपालक और धर्मप्रचारक होते हैं।
(२) ‘भगवन्नाममें पाप-नाश करनेकी जितनी शक्ति है, उतनी पापी मनुष्यमें पाप करनेकी नहीं है।’ यह कथन सर्वथा सत्य है। नामके साथ भगवान्की शक्ति है—जो अपरिमेय, असीम है। मनुष्य क्षुद्रतम जीव है, फिर पापी जीव तो और भी निकृष्ट है; उसमें शक्ति ही क्या है? इससे यह समझना चाहिये कि नामकी शक्ति बहुत बड़ी है, उससे हमारा उद्धार हो जायगा। यदि आजतक हमसे कोई शुभ कर्म नहीं बन सका, सदा पाप-ही-पाप हुआ है, तो भी हताश होने, घबरानेकी बात नहीं है। शीघ्र-से-शीघ्र हमें नामकी शरण लेनी चाहिये। नाम पापका विरोधी है, अत: उसकी शरण लेनेका अर्थ है पापसे मुँह मोड़ लेना। नाव और नाविकको अपना शरीर सौंप दिया जाय, तभी हम सागर या सरिताके पार हो सकते हैं। एक पैर जमीनपर और एक नावमें रखें तो गिरकर डूबना ही है। इसी प्रकार नामको पूर्णतया आत्मसमर्पण करनेवाला ही नामका बल रखता है। नाम और पाप दोनोंको चाहनेवाला डूबता है। वास्तवमें पापको चाहनेवाला नामकी मखौल उड़ाता है, वह नामका बल मानता ही नहीं। जो पूर्णतया नामनिष्ठ हो जाता है, उसके समस्त पाप भस्म हो जाते हैं—चाहे वे जान-बूझकर किये गये हों या अनजानमें।
(३) नाम लेनेमें किसी विधिकी अपेक्षा नहीं; हँसी, भय, क्रोध, द्वेष, काम या स्नेहसे भी नाम लेनेपर उस नामसे उसके पूर्वकृत पाप अवश्य नष्ट हो जाते हैं। परंतु जब वह अपना यह पेशा बना लेता है कि ‘मैं पाप करूँगा और नाम लेकर उन्हें नष्ट कर दूँगा’, तब वह नामापराधी हो जाता है। उस दशामें नामापराध नामक नूतन और बड़ा भयंकर पाप वह कर बैठता है। यही उसको डुबो देता है। इससे बचना चाहिये। कारणका संयोग मिल जानेपर कार्य हो ही जाता है। यदि हँसी-मजाक, क्रोध, द्वेषसे भी किसीके शरीरसे आगकी चिनगारी छुआ दी जाय तो उसमें जलन होगी ही। बालकको विषके गुणका ज्ञान नहीं है, उसके प्रभावपर उसकी श्रद्धा या विश्वास नहीं है तो भी उसे खानेपर उसकी मृत्यु हो ही जायगी। इसी प्रकार नामोच्चारणमात्रसे पापका नाश होता है—भले वह हँसीमें, भयसे या द्वेषसे ही लिया जाय। अनिच्छासे या मनको और बातोंमें लगाये रखकर भी यदि हम भोजन करते हैं तो भी उससे भूख तो मिट ही जाती है; इसी प्रकार अन्यमनस्क होकर भी नाम लेनेसे पाप-नाश हो ही जाता। हाँ, जब हम पाप करके नामसे उसे मिटा देनेकी भावना रखकर बार-बार नाम लेते और पाप करते रहेंगे तो एक नवीन अपराध बनता जायगा, जिसे हम ‘नामापराध’ कहते हैं। यह समस्त पापोंसे बढ़कर है। नामापराधसे छुटकारा भी तभी मिलता है, जब पापसे सर्वथा बचे रहने तथा भविष्यमें ‘नामापराध’ न करनेकी दृढ़ प्रतिज्ञा मनमें लेकर एकनिष्ठ होकर भगवन्नामोंका अधिकाधिक जप किया जाय। क्योंकि ‘नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्।’ नामापराधका पाप भी नाम ही हरता है। शेष भगवत्कृपा।