परदोष-दर्शनसे बड़ी हानि
सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आपने....में जो-जो दोष बतलाये हैं, सम्भव है इनमेंसे कुछ उनमें हों। यह भी सम्भव है कि उनमें बहुत थोड़े दोष हों और आपको अधिक दिखायी पड़ते हों। यह नियम है कि जिसमें राग होता है, उसके दोष भी गुण दीखते हैं और जिसमें द्वेष होता है, उसके गुण भी दोष दीखते हैं। फिर, दोष देखते-देखते जब दोष-दर्शनका स्वभाव बन जाता है, तब दूसरोंके थोड़े दोष भी बहुत अधिक दीखते हैं और कहीं-कहीं तो बिना ही हुए दीखने लगते हैं। ऐसे लोगोंको, द्वेष रखनेवालोंकी बात तो दूर रही, भगवान्तकमें दोष दिखलायी देते हैं। इसीलिये संतोंने दूसरोंके दोष देखने और दूसरोंकी निन्दा करनेको साधनका एक बहुत बड़ा विघ्न बतलाया है; क्योंकि दोषदर्शीके मन, बुद्धि और वाणी नित्य-निरन्तर दोषोंके जगत्में ही विचरते हैं, वे स्वप्नतकमें भी पराये दोषोंकी ही आलोचना करते हैं। परिणाम यह होता है कि भाँति-भाँतिके दोषोंके चित्र उनके चित्त-पटपर अंकित होते चले जाते हैं। वाणीमें, असत्य, निन्दा, पैशुन, परापवाद तथा परापकारका दोष आ जाता है। दोष-दर्शनके कारण दोषी दीखनेवाले व्यक्तियोंके कार्योंको देखने और उनका स्मरण करनेसे हृदयमें जलन होती है। फलत: द्रोह, वैर बद्धमूल होकर क्रोध और हिंसाकी क्रियाएँ होने लगती हैं। वैर यहीं समाप्त नहीं होता, वह मरनेके बाद परलोक और पुनर्जन्ममें भी साथ रहता है। इसीलिये बुद्धिमान् पुरुष कभी किसीका दोष नहीं देखते और न वे कभी परदोषकी चर्चा करके ही पाप बटोरते हैं। वे वस्तुत: बड़े ही भाग्यवान् पुरुष हैं, जिनके मनसे कभी पर-दोषका चिन्तन नहीं होता और जिनकी वाणीसे कभी पर-दोषका कथन नहीं होता। श्रेयस्कामी पुरुषको तो अपने ही दोषोंसे अवकाश नहीं मिलता, फिर वह दूसरोंके दोषोंको देखनेके लिये तो समय ही कहाँसे लाये? पर हमारा स्वभाव तो इतना बिगड़ गया है कि हम अपने दोषोंकी ओर तो कभी दृष्टि ही नहीं डालते और दूसरोंके दोषोंको हजार आँखोंसे देखते हैं। तुलसीदासजी महाराजने कहा है—
‘आप पापको नगर बसावत,
सहि न सकत पर खेरो॥’
महाभारतमें आता है—
राजन् सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यसि।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसि॥
(आदिपर्व ७४।८२)
(शकुन्तला कहती है—) ‘राजन्! दूसरेका सरसों-जितना छोटा-सा छिद्र भी आप देख रहे हैं और अपना छिद्र बेलके जितना बड़ा है, पर आप उसे देखकर भी नहीं देखते।’
राग-द्वेष न होनेके कारण जिनकी बुद्धिरूपी आँखें वस्तुके यथार्थ स्वरूपको देखती हैं, वे यदि स्वाभाविक सौहार्दवश किसीको दोषमुक्त करनेके लिये प्रेमपूर्वक उसके दोषोंको बतलायें तो इसमें आपत्ति नहीं है। पर इस प्रकार निर्दोषबुद्धिसे दोष देखने और बतानेवाले व्यक्ति विरले ही होते हैं। आजकल तो अपने सच्चे और प्रसिद्ध दोषोंको वागाडम्बरसे छिपाकर अपनेमें झूठे गुणोंका आरोप किया जाता है और उनका ढिंढोरा पीटा जाता है, एवं दूसरेके सच्चे गुणोंपर दोषोंका मिथ्या आरोप करके उनकी निन्दा की जाती है। राजनीतिक क्षेत्रमें तो यह व्यवहार जीवनका एक आवश्यक अंग-सा बन गया है। जन-तन्त्रके नामपर होनेवाले चुनावोंमें यह प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि जनताका नेतृत्व करनेवाले बड़े-बड़े सुशिक्षित महानुभाव वोटोंके लिये किस प्रकारसे मिथ्या आत्म-विज्ञापन करते हैं और प्रतिपक्षीकी मिथ्या निन्दा करके उसको गिरानेका कैसा निन्दनीय और जघन्य प्रयत्न करते हैं एवं इस नंगे नाचमें उन्हें जरा भी लज्जा नहीं आती, बल्कि इसीमें गौरव माना जाता है और विजयकी बधाइयाँ बाँटी जाती हैं। इस दशामें दोष देखनेकी प्रवृत्ति कैसे दूर हो?
इसका एक ही उपाय है और वह यह है कि अपने दोषोंको नित्य-निरन्तर बड़ी सावधानीसे देखते रहना, ऐसी तीक्ष्ण दृष्टि रखना कि मन कभी धोखा दे ही न सके और क्षुद्र-से-क्षुद्र दोष भी छिपा न रहे। साथ ही यह हो कि दोषको कभी सहन नहीं किया जाय, चाहे वह छोटे-से-छोटा ही हो। इस प्रकार करनेपर अपने दोष मिटते रहेंगे और दूसरोंके दोषोंका दर्शन और चिन्तन क्रमश: बंद हो जायगा। अपने दोष एक बार दीखने लगनेपर फिर वे इतने अधिक दीखेंगे कि उनके सामने दूसरोंके दोष नगण्य प्रतीत होंगे और उन्हें देखते लज्जा आयेगी। कबीरजीने कहा है—
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न पाया कोय।
जो तन देखा आपना मुझ-सा बुरा न कोय॥
जो साधनसम्पन्न बड़भागी पुरुष अपने दोष देखने लगते हैं, उनके दोष मिटते देर नहीं लगती। फिर यदि उनको अपनेमें कहीं जरा-सा भी कोई दोष दीख जाता है तो वे उसे सहन नहीं कर सकते और पुकार उठते हैं कि ‘मेरे समान पापी जगत्में दूसरा कोई नहीं है।’ एक बार महात्मा गाँधीजीसे किसीने पूछा था कि ‘जब सूरदास, तुलसीदास-सरीखे महात्मा अपनेको महापापी बतलाते हैं, तब हमलोग बड़े-बड़े पाप करनेपर भी अपनेको पापी मानकर सकुचाते नहीं, इसमें क्या कारण है?’ महात्माजीने इसके उत्तरमें कहा था कि ‘पाप मापनेकी उनकी गज दूसरी थी और हमारी दूसरी है।’ सारांश यह कि दूसरोंके दोष तो उनको दीखते नहीं थे और अपना क्षुद्र-सा दोष वे सहन नहीं कर सकते थे। मान लीजिये, भक्त सूरदासजीको कभी क्षणभरके लिये भगवान्की विस्मृति हो गयी और जगत्का कोई दृश्य मनमें आ गया, बस, इतनेसे ही उनका हृदय व्याकुल होकर पुकार उठा—
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जिन तनु दियो ताहि बिसरायो,
ऐसो नमकहरामी॥
मनुष्यको चाहिये कि वह नित्य-निरन्तर आत्म-निरीक्षण करता रहे और घंटे-घंटेमें बड़ी सावधानीसे यह देखता रहे कि इतने समयमें मन, वाणी, शरीरसे मेरे द्वारा कितने और कौन-कौन-से दोष बने हैं। और भविष्यमें दोष न बननेके लिये भगवान्के बलपर निश्चय करे तथा भगवान्से प्रार्थना करे कि वे ऐसा बल दें।
अतएव आपसे मेरा यही विनम्र अनुरोध है कि आप उनके दोषोंको न देखकर गहराईसे अपनी ओर देखिये। सावधानीसे देखिये। आपको इतना तो अवश्य ही दिखायी देगा कि आप उनमें जिन दोषोंको देखकर उनको बुरा व्यक्ति मानते हैं, ठीक वे ही दोष उतनी ही या कुछ न्यूनाधिक मात्रामें आपमें भी मौजूद हैं। ऐसा हो जानेपर आप अपने दोषोंके लिये पश्चात्ताप कीजिये और भगवान्के बलपर उन्हें दूर करनेका पूर्ण प्रयत्न कीजिये। मनुष्यके लिये अपने दोषोंका देखना और उन्हें शीघ्र मिटाना जितना आसान है, उतना दूसरोंके दोषोंको देखना और मिटाना आसान नहीं है। यों आप अपने जीवनको निर्दोष बनाइये और जीवनके परम लक्ष्य श्रीभगवान्के दिव्य गुणोंमें मन, बुद्धिको लगाकर जीवनकी सफलता प्राप्त कीजिये। यही कल्याणका मार्ग है।