नामनिष्ठाके सात मुख्य भाव
सादर सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। भगवन्नामकी अमोघ शक्ति है, उसके द्वारा बहुत ही शीघ्र मनुष्य कल्याणको प्राप्त कर सकता है। नामपरायणतामें—नाममें विश्वास, नाममें आदरबुद्धि, नाममें प्रेम, निष्कामभाव, नामार्थ-चिन्तन, निरन्तरता और गोपनीयता—ये सात भाव मुख्य हैं। इन भावोंसे युक्त होकर नामाश्रय करनेवाले पुरुषोंको नामके चमत्कारपूर्ण प्रभावके शीघ्र दर्शन होते हैं—
(१) किसी भी अन्य साधनका तिरस्कार न करते हुए नाममें दृढ़ और अनन्य विश्वास होना चाहिये। नामसे ही सब कुछ हो सकता है और हो जायगा। नामकी जितनी जो कुछ महिमा शास्त्रों और संतोंने गायी है, सारी सत्य है। ऐसा विश्वास होना चाहिये। नाम-विश्वासके सम्बन्धमें गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीका निम्नलिखित पद स्मरण रखनेयोग्य है—
भरोसो जाहि दूसरो सो करो।
मोको तो रामको नाम कलपतरु
कलि कल्यान फरो॥
करम उपासन, ग्यान, बेदमत,
सो सब भाँति खरो।
मोहि तो ‘सावनके अंधहि’ ज्यों
सूझत रंग हरो॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों
कबहुँ न पेट भरो।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस
पेखत परुसि धरो॥
स्वारथ औ परमारथ हू को
नहिं कुंजरो-नरो।
सुनियत सेतु पयोधि पषाननि
करि कपि कटक-तरो॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ
ताको काज सरो।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर,
हौं सिसु-अरनि अरो॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु
तौ जरि जीह गरो।
अपनो भलो राम-नामहि ते
तुलसिहि समुझि परो॥
(विनय-पत्रिका २२६)
(२) नाममें वैसी ही आदरबुद्धि होनी चाहिये, जैसी भक्तकी भगवान्में होती है। ‘सत्कारसेवित’ अभ्यास ही स्थिर हुआ करता है। नाम साक्षात् भगवान्का स्वरूप है—इस प्रकार नामके स्वरूप और प्रभावको जानकर अत्यन्त मनोयोग और श्रद्धाके साथ जो नाम-जप होता है, वही आदरबुद्धियुक्त माना जाता है। यद्यपि नामकी स्वाभाविक शक्ति ऐसी है कि तिरस्कार-अवहेलना और असम्मानके साथ निकला हुआ नाम भी पापोंका नाश करता है, जैसे किसी भी प्रकारसे स्पर्श हो जानेपर अग्नि ईंधनको जला ही देती है, तथापि आदरयुक्त नाम-जपकी बड़ी महिमा है।
(३) नाममें प्रेम होना चाहिये। प्रेमका फल आनन्द है। जिस वस्तु या व्यक्तिमें हमारा अनुराग या प्रेम होता है, उसकी स्मृति आते ही चित्त आनन्दसे उत्फुल्ल हो जाता है, उसका नाम सुनने अथवा लिये जानेपर चित्तसागरमें आनन्दकी तरंगें उठने लगती हैं।
इसी प्रकार नाममें प्रेम होनेपर एक-एक नामोच्चारणमें साधकको ऐसा अनुपम रस प्राप्त होता है कि वह उसीमें तन्मय हो जाता है। फिर नामको छोड़कर क्षणभर भी वह रह नहीं सकता। ‘तद्विस्मरणे परमव्याकुलता।’
(४) नाममें निष्कामभाव होना चाहिये। जिसको नामके स्वरूप, प्रभाव, महत्त्व और रहस्यका पता है, वह नाम-जप करके नामके अतिरिक्त और क्या चाहेगा। नामके बदलेमें जो और कुछ चाहता है, उसने तो नामका कोई महत्त्व जाना ही नहीं। नामके बदलेमें संसारके सुखभोग चाहना अमृतके बदले विष चाहना है और स्वर्गादि चाहना बहुमूल्य रत्न देकर पत्थर चाहना है। नाम-जपका फल नामनिष्ठा ही होना चाहिये।
(५) भगवान्के नाममें और नामी भगवान्में अभेद है, भगवान्की भाँति ही भगवान्का नाम भी चिन्मय है—इस बातको याद रखते हुए नाम-स्मरण करना नामके ‘अर्थका चिन्तन’ करना है। ‘मैं जो भगवान्का नाम-जप कर रहा हूँ, सो भगवान्का ही स्पर्श कर रहा हूँ।’ इस प्रकारकी निश्चित अनुभूति प्रत्येक नामोच्चारणके साथ-साथ होती रहनी चाहिये। जबतक अनुभूति न हो, तबतक ऐसी भावना करनी चाहिये।
(६) नाम-जप तैलधारावत् लगातार होते रहना चाहिये। संसारके सारे काम नाम-स्मरण करते हुए ही हों।
(७) नाम-स्मरणको, जहाँतक हो, कृपणके धन और जारके प्रेमकी भाँति छिपाकर रखना चाहिये। इसीमें उसकी मर्यादा है और इसीमें उसकी सुरक्षा है।
इसका यह अर्थ नहीं कि जो इन भावोंसे नाम-जप न कर सकते हों, वे नाम-जप ही न करें। किसी भी भावसे नाम-जप करना उत्तम है। कामनासे, क्रोधसे, भयसे, लोभसे, हँसीसे और सबको सुना-सुनाकर भी यदि नाम-जप किया जाय तो वह भी न करनेकी अपेक्षा बहुत उत्तम है। उससे भी पापोंका नाश होकर अन्तमें नामनिष्ठा-लाभ तथा भगवत्प्राप्ति हो जाती है।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
कुछ भी न हो तो जीभसे लगातार नामकी रट लगती रहनी चाहिये।