श्रीभगवान् ही गुरु हैं—भगवन्नामकी महिमा
प्रिय बहिन! सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आपने दीक्षा नहीं ली सो कोई हर्ज नहीं। दीक्षाकी कोई आवश्यकता नहीं है। आप जगद्गुरु भगवान् श्रीराम या भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना परम गुरु मानिये और रामचरितमानस या गीताका पाठ शुरू कीजिये। रामायण और गीता भगवान्के मन्त्र हैं। बिना दीक्षाके किसीको पानी देना पाप है—इन सब बातोंको बिलकुल मत मानिये। आजकल गुरुओंकी भरमार है। किसीसे कान फुँकवा लेनेसे ही कुछ नहीं होता। मनुष्यका वास्तविक कल्याण तो साधन-भजनसे ही होता है। परमार्थी गुरु भी परम कल्याण करते हैं। पर वैसे गुरुका मिलना बहुत दुर्लभ है। फिर स्त्रियोंको तो गुरुकी कोई आवश्यकता नहीं है, न विधान ही है। सधवाके लिये उसका पति ही गुरु है और विधवाके लिये परम पति भगवान् परम गुरु हैं। आजकल देखा जाता है बहुत-सी भोली स्त्रियाँ गुरुओंके फेरमें पड़कर घर-परिवारमें एक भयंकर अशान्ति और कलहका वातावरण उत्पन्न कर देती हैं और शास्त्रविरुद्ध आचरण करके अपना भी पतन करती हैं।
आपने लिखा—‘मैं अपने पूज्यजनोंकी सेवा करना धर्म समझती हूँ पर किन्हींसे दीक्षा लेना या उनकी जूँठन खाना अथवा एकान्तमें सेवा करना अपने स्वभावसे निन्दनीय समझती हूँ।’ यह बहुत ही उचित है। किसीकी भी जूँठन नहीं खानी चाहिये और एकान्तमें परपुरुषसे मिलनेको तो महान् पातक एवं दुष्टाचारका कारण मानकर उससे सर्वथा दूर रहना चाहिये। जो गुरु परस्त्रीसे एकान्तमें सेवा कराना चाहते हैं, उनपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। घरके पूज्यजनोंकी सेवा भी बड़ी सावधानीसे करनी चाहिये। पुरुष-जाति आजकल बहुत ही हीनचरित्र हो गयी है। उससे सावधान रहनेमें ही लाभ है।
आप श्रीरामचरितमानसका पाठ करती हैं सो बड़ी अच्छी बात है। मालापर नाम-जपसे डरनेकी क्या आवश्यकता है? ज्यादा नाम लेनेका अभिमान हो जायगा, इस डरसे जप न करना तो बड़ी भूलकी बात है। नाम-जप करनेसे चित्तके दुर्गुणोंका नाश होता है और सद्गुण अपने-आप आते हैं। अभिमानसे जरूर बचना चाहिये, पर भजनसे कभी नहीं हटना चाहिये। भगवान्के नामकी शक्तिपर विश्वास करके यह निश्चय करना चाहिये कि नाम-जपसे मेरे मनमें अभिमान आदि दोष कभी उत्पन्न नहीं हो सकते, वरं मेरे मनमें जो पहलेके दोष हैं, उन सबका भी नाश हो जायगा। नामका बड़ा प्रभाव है। भगवन्नामसे सारे पाप-ताप सहज ही नष्ट हो जाते हैं और श्रद्धापूर्वक नाम लेनेपर तो असम्भव भी सम्भव एवं अमंगल भी मंगलरूप बन जाते हैं।
शिवपुराणमें कहा है—
अग्निश्च शीततां यातो जलं च स्थलतां गतम्।
स्थलं च जलतां यातं विषं चामृततां गतम्॥
शस्त्राणि पुष्पभावं च हरेर्नाम्नश्च कीर्तनात्।
(विद्येश्वरसंहिता)
‘श्रीहरिनामकीर्तनसे अग्नि शीतल हो जाती है, जल स्थलरूपको प्राप्त हो जाता है, स्थल जल बन जाता है, विष अमृतमें परिणत हो जाता है और शस्त्रसमूह पुष्पके समान कोमल हो जाते हैं।’
फिर कलियुगमें तो भगवान्का नाम ही जीवके लिये एक आधार है—
है हरि नामको आधार।
और या कलिकाल नाहिन,
रह्यो बिधि-ब्योहार॥
नारदादि सुकादि संकर,
कियो यहै बिचार।
सकल स्रुति दधि मथत पायो
इतो यह घृतसार॥
दसहु दिसि गुन करम रोक्यो
मीनको ज्यों जार।
सूर हरिको भजन बलतें
मिट गयो भव-भार॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना।
एक अधार राम गुन गाना॥
कलि नाम कामतरु रामको।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख,
दोष घोर घन घामको॥
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
(श्रीमद्भा० १२।३।५२)
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥
इन सब वचनोंपर विश्वास करके भगवन्नामका जप अवश्य करना चाहिये। इसमें मंगल-ही-मंगल है—
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥