नि:संकोच भजन कीजिये
प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। आपने लिखा था कि ‘भजन तो करता हूँ। पर माला न रखनेपर तो बहुत भूल हो जाती है और माला रखनेपर संकोच होता है। कुछ मित्रलोग मजाक करते हैं और कुछ लोग भक्त समझकर सम्मान करने लगते हैं। अतएव क्या करूँ?’ इसके उत्तरमें निवेदन है कि यदि माला रखे बिना भूल होती है तो सारा संकोच छोड़कर अवश्य माला रखनी चाहिये। इसमें लज्जा-संकोचकी क्या बात है। मित्रलोग मजाक करते हैं तो करने दीजिये। मजाक करनेमें उनको सुख मिलता है तो आनन्दकी ही बात है। आपकी किसी क्रियासे मित्रोंका मनोरंजन हो, उन्हें सुख मिले, यह तो आपके लिये सुखकी बात है। पर कहीं ऐसा तो नहीं है कि संकोच तो आपका अपना मन ही करता हो और अपना दोष छिपानेके लिये मित्रोंके मजाककी बात, गौण होनेपर भी मनने उसको प्रधानता दे दी हो, ऐसा हो तो आपको सावधान हो जाना चाहिये और मनको समझा देना चाहिये कि इसमें लज्जाकी बात तनिक भी नहीं है। लज्जा आनी चाहिये—झूठ बोलनेमें, गंदी जबान निकालनेमें, निन्दा-चुगली या व्यर्थकी बात करनेमें, किसीका अहित करनेमें, क्रोध और लोभके वश होनेमें, परस्त्रीके प्रति बुरी नजरसे देखने या मनमें भी बुरा भाव लानेमें, दूसरेकी वस्तुको—किसीके स्वत्वको हरण करनेमें, चोरी, ठगी और छल-कपट करनेमें तथा दूसरे-दूसरे बुरे काम तन-मन-वचनसे करनेमें। मनुष्यका बड़ा दुर्भाग्य है कि वह इन सब कामोंके करनेमें तो तनिक भी नहीं लजाता, बल्कि कोई-कोई तो ऐसे कार्योंमें गौरवतक मानते हैं तथा गर्व करते हैं पर भगवान्का नाम लेने या भजन करनेमें उन्हें लज्जा आती है। यही एक श्रेष्ठ कर्म है, जिसको लज्जा छोड़कर करना श्रेष्ठ माना गया है। लज्जाको तिलांजलि देकर भजन करनेवाला प्रेमी स्वयं ही पवित्र नहीं होता, वह समस्त विश्वको पवित्र करता है—
वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। २४)
(उद्धवजीसे श्रीभगवान् कहते हैं—)
‘जिसकी वाणी प्रेमसे गद्गद हो रही है, जिसका चित्त द्रवित होकर बहने लगा है, जो प्रेममें कभी रोता रहता है, कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है और कभी सारी लाज छोड़कर उच्च स्वरसे गाने और नाचने लगता है, मेरा वह भक्त त्रिभुवनको पवित्र कर देता है।’
भगवान्का जो नाम विवश होकर एक बार लेनेपर भी मनुष्यको पापरहित कर देता है, उस महान् सहायक, परम कल्याणकारक, परम हितैषी भगवन्नामके लेनेमें लज्जा कैसी? और उस प्रिय नामका स्मरण करानेवाली कल्याणकारिणी मालाके रखनेमें संकोच कैसा? नामके सम्बन्धमें शास्त्र कहते हैं—
अवशेनापि संकीर्त्य सकृद् यन्नाम मुच्यते।
भयेभ्य: सर्वपापेभ्यस्तं नमाम्यहमच्युतम्॥
(स्कन्दपु०)
अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकै:।
पुमान् विमुच्यते सद्य: सिंहत्रस्तैवृकैरिव॥
(विष्णुपु० ६। ८। १९)
आपन्न: संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन्।
तत: सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम्॥
(श्रीमद्भा० १। १। १४)
‘जिनके नामका एक बार भी विवश होकर भी संकीर्तन कर लेनेपर समस्त भयों और समस्त पापोंसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, उन अच्युत भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ।’
‘सिंहके भयसे जैसे गीदड़ छूट जाता है, वैसे ही उन भगवान्का नाम विवश होकर लिया जानेपर भी मनुष्य तुरंत समस्त पापोंसे छूट जाता है।’
‘जिन भगवान्से स्वयं भय भी भयभीत रहता है, उन भगवान्के नामका उच्चारण विवश होकर भी यदि मनुष्य कभी कर लेता है तो वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है।’
रही सम्मान और बड़ाईसे डरनेकी बात सो यह बहुत अच्छी बात है। मनुष्यको मान-बड़ाईसे अवश्य ही डरना चाहिये। यह मीठा विष है, जो प्राप्त करनेके समय मीठा लगनेपर भी वास्तवमें सतत विषमयी मृत्युके चक्रमें डालनेवाला है; परंतु इसके भयसे भगवन्नामकी याद दिलानेवाली मालाका त्याग कर देना बुद्धिमानी नहीं है। भगवान्के सामने आप सदा ही विनम्र और विनयशील होकर रहिये। फिर जगत्का सम्मान आपका क्या बिगाड़ेगा और भगवान्का नाम लेनेवालेको तो सदा विनम्र रहना ही चाहिये। महाप्रभु श्रीचैतन्यदेवजीने कहा है—
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:॥
‘जो अपनेको राहके तिनकेसे भी अधिक नीचा समझते हैं, जो वृक्षके समान सहनशील (काटने-तोड़ने और जलानेवालेका भी उपकार ही करता है ऐसा) हैं, स्वयं अमानी हैं और सबको मान देते हैं, उन्हींके द्वारा श्रीहरि सदा कीर्तनीय हैं।’
आप अपने मनमें मान-बड़ाईको स्थान मत दीजिये, फिर लोगोंके द्वारा किया जानेवाला सम्मान आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। भगवत्प्रेमी श्रीसूरदासजीके शब्दोंमें मनसे बार-बार यही कहते रहिये—
मन तोसौं कोटिक बार कही।
समुझि न चरन गहे गोबिंद के,
उर अघ-सूल सही॥
सुमिरन, ध्यान, कथा हरिजू की,
यह एकौ न रही।
लोभी, लंपट, बिषयिनि-सौं हित,
यौं तेरी निबही॥
छाँड़ि कनक-मनि रतन अमोलक,
काँच की किरच गही।
ऐसौ तू है चतुर बिबेकी,
पय तजि पियत मही॥
ब्रह्मादिक, रुद्रादिक, रबि-ससि,
देखे सुर सबही।
सूरदास भगवंत भजन बिनु,
सुख तिहुँ लोक नहीं॥