सभी अभीष्ट भजनसे सिद्ध होते हैं
सप्रेम हरिस्मरण। कृपापत्र मिला, धन्यवाद। आपके प्रश्नोंका उत्तर क्रमश: इस प्रकार है—
१-भगवत्प्राप्ति अथवा मोक्षका सुगम उपाय
संसारमें बार-बार जन्म लेना और मरना—यही जीवका सबसे बड़ा बन्धन है। कष्ट या दु:ख भी इससे बढ़कर दूसरा नहीं है। इस महान् बन्धन या दु:खसे छूटना ही मोक्ष है। मनुष्य पूर्ण सुख चाहता है, अखण्ड शान्ति चाहता है और पूर्ण तृप्ति चाहता है। इसीके लिये वह संसारके विषय-भोग, धन-वैभव आदिका संग्रह करता है। परंतु वहाँ उसे परिणाममें दु:ख, अशान्ति और अतृप्ति ही हाथ लगते हैं। जहाँ नित्य पूर्ण सुख, नित्य पूर्ण शान्ति और नित्य पूर्ण तृप्ति प्राप्त हो, वह आश्रय हैं भगवान् श्रीकृष्ण। संसारसे विरक्त होकर उन भगवान्की शरण लेना और उनका कृपा-प्रसाद प्राप्त करके सदाके लिये कृतार्थ हो जाना ही जीवका परम पुरुषार्थ है। इसे ही भगवत्प्राप्ति कहते हैं, मोक्ष भी यही है। प्यास तभी मिटती है, जब शीतल जलका पान किया जाय। दु:खोंसे छुटकारा भी तभी होता है, जब कोई नित्य सुखमय आश्रय प्राप्त हो जाय। केवल दु:खोंका अभाव ही नहीं, नित्य सुखकी प्राप्ति भी मोक्षका अंग है।
इसका सबसे सुगम उपाय है—भगवान्का अनन्य भावसे भजन। सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते हर समय भगवान्का निरन्तर स्मरण होता रहे; धीरे-धीरे, किंतु लगनसे इसका अभ्यास डालना चाहिये। भगवान् ही अपने माता-पिता, गुरु, स्वामी और सखा हैं। वे ही पालक और सहायक हैं। उनका वरद हस्त सदा अपने ऊपर है—इस विश्वासके साथ अपनी और अपनी कहलानेवाली प्रत्येक वस्तुको मनके द्वारा भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर देना ही अनन्य भजनका सबसे उत्तम प्रकार है। अपनी प्रत्येक क्रिया भगवान्के लिये हो, भगवान्की इच्छासे हो। शास्त्रोंकी आज्ञा भगवान्की आज्ञा है। अत: शास्त्रीय विधि-निषेधका पूर्णरूपसे पालन करना चाहिये। उसका कोई फल हो तो वह भगवान्को ही मिले—ऐसी धारणा रखकर फलकी कामना कदापि नहीं रखनी चाहिये। इस प्रकार भगवान्के शरणागत होकर भगवान्के लिये ही जीवन धारण करनेवाला भक्त शीघ्र ही भगवान्को प्राप्त कर सकता है। आवागमनके बन्धनों और दु:खोंसे सदाके लिये मुक्त हो सकता है।
इससे व्यवहारमें भी बाधा नहीं आती। संसारके कार्य यथावत् रूपसे करते हुए भी, यह सब ईश्वरकी इच्छासे तथा आज्ञा और उन्हींके लिये हो रहा है, ऐसा भाव रखते हुए कभी मनमें अभिमान नहीं आने देना चाहिये। मान लीजिये, एक गृहस्थ है। उसे अपने वर्ण और आश्रमके अनुरूप कार्य करते हुए कुटुम्बका भरण-पोषण करना है। वह वर्ण और आश्रमके अनुरूप जो कार्य करता है, उसे भी भगवान्की आज्ञा समझकर उन्हींकी प्रसन्नताके लिये करे तथा कुटुम्बमें जितने भी प्राणी हैं, उन सबके रूपमें भगवान् ही आकर मुझसे यथायोग्य सेवा ले रहे हैं—ऐसा मानकर धर्मसम्मत न्यायोपार्जित धनसे उनका भरण-पोषण करे। इससे उसकी प्रत्येक क्रिया भजन बन जाती है। वास्तवमें सब भगवान् ही हैं, अत: किसी भी प्राणीकी सेवा उन्हींकी पूजा है। मनुष्य अज्ञानवश ऐसा न समझकर अहंकार और आसक्तिके वशीभूत होकर सारे कार्य करते हैं, सुतरां बन्धनमें पड़ते और दु:ख उठाते हैं। अत: सबमें भगवान्का दर्शन करके सबकी यथायोग्य, यथाशक्ति तथा यथाधिकार सेवा करनी चाहिये। इससे शीघ्र भगवान्की प्राप्ति हो सकती है।
२-आशा-तृष्णा आदिके नाशका उपाय
आशा, तृष्णा, मोह, दम्भ और अभिमान—ये सभी दुर्गुण मलिन अन्त:करणमें ही अंकुरित होते हैं। अत: इनके नाशका उपाय भी भजन ही है। भगवान्के नामका जप करनेसे अन्त:करण शुद्ध होता है। शुद्ध अन्त:करणमें उक्त दोषोंका उद्गम नहीं होता। वे सब अज्ञानके कार्य हैं। भजनसे अज्ञान दूर होता है और विज्ञानका आलोक प्राप्त होता है। संसारके विषयोंमें आसक्ति होनेसे आशाकी उत्पत्ति और तृष्णाकी वृद्धि होती है। इस आसक्तिका निवारण विषयोंसे वैराग्य होनेपर ही सम्भव है। विषयोंसे वैराग्य तभी हो सकता है, जब उनकी आपातरमणीयता, असारता एवं दु:खरूपताका दृढ़ निश्चय हो जाय। अथवा भगवान्के प्रति दृढ़तर अनुराग हो जाय तो विषयोंसे स्वत: वैराग्य हो सकता है; परंतु ये दोनों बातें अन्योन्याश्रित हैं। वैराग्य होनेपर भगवान्के प्रति अनुराग होगा और अनुराग होनेपर वैराग्य होगा। अत: विषय-वैराग्य और भगवदनुरागके लिये भी हमें भजनकी ही शरण लेनी होगी। भजनसे तीन कार्य एक साथ ही होते हैं—भगवान्के प्रति प्रेम बढ़ता है, विषयोंकी ओरसे विरक्ति होने लगती है और धीरे-धीरे भगवान्के तत्त्वका ज्ञान भी होता जाता है।
लोकमें भी यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है—एक व्यक्ति किसीसे प्रेम करता है तो अन्यत्रसे उसकी आसक्ति हटती है और प्रेमपात्रमें अनुराग बढ़ता है। जितना ही प्रेम या अनुराग बढ़ता है, उतनी ही मात्रामें प्रेमी अपने प्रेमास्पदके अन्तरंग रहस्योंसे परिचित होता जाता है। इस प्रकार ज्ञान, वैराग्य और प्रेम—तीनों साथ-साथ बढ़ते हैं। जैसे भोजनके एक-एक ग्राससे क्षुधाकी निवृत्ति, तृप्ति और पुष्टि साथ-साथ होती है, उसी प्रकार भजनसे भगवान्के प्रति प्रेम, उनके रहस्योंका ज्ञान और अन्यत्रसे वैराग्य—तीनों साथ-साथ चलते हैं।
भक्ति: परेशानुभवो विरक्ति-
रन्यत्र चैष त्रिक एककाल:।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नत: स्यु-
स्तुष्टि: पुष्टि: क्षुदपायोऽनुघासम्॥
(श्रीमद्भा० ११।२।४२)
३-मन-इन्द्रियोंका संयम
इन्द्रिय और मनके संयमका भी अमोघ उपाय है। भगवान्का भजन—उनकी लीला-कथाओंका श्रवण, पठन और चिन्तन। यह अनुभूत मार्ग है। उपर्युक्त प्रकारसे जब वैराग्य हो जाता है, तब मन और इन्द्रियोंका संयम स्वत: सिद्ध हो जाता है। इन्द्रियाँ सदा मनके शासनमें रहती हैं। अत: मनोनिग्रह सिद्ध होनेपर इन्द्रियोंका संयम अपने-आप हो जाता है। मनका संयम आरम्भमें बहुत कठिन होता है; क्योंकि मन बड़ा चंचल है। भगवान्का दिव्य रस उसे मिल जाय तब तो वह भी स्थिर एवं एकाग्र हो जाता है; किंतु उस रसानुभवके पूर्व भी उसके रोकनेका उपाय अभ्यास और वैराग्य है। भगवान् स्वयं कहते हैं—‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥’ भगवान्की शरण लेकर दृढ़ निश्चय और श्रद्धाके साथ अभ्यास आरम्भ करनेपर कुछ ही कालमें मन अपना अनुचर बन जाता है।