पाप कामनासे होते हैं—प्रकृतिसे नहीं
सप्रेम हरिस्मरण! आपका पत्र मिला। आपने लिखा—गीता अध्याय ९ श्लोक २७—
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
—इस श्लोकके मुताबिक मैं मछली-मांस, ताड़ी-शराब, अपनी स्त्री-प्रसंगकी कृया (क्रिया) या परायी स्त्री-प्रसंगकी कृया (क्रिया), इतनी चीज यदि हमारी प्रकृति समय-समयपर ग्रहण कर रही है तो मैं ईश्वरको अर्पण कर सकता हूँ या नहीं? अगर आप कहें कि यह सब कर्म ही क्यों नहीं छोड़ देते तो स्त्री छूट ही नहीं सकती। मछली-मांस, ताड़ी-दारू, परायी स्त्री-ग्रहण भी नीचे लिखे श्लोकोंके मुताबिक हो ही रहा है तो हमको क्या करना चाहिये। गीताअध्याय ३ श्लोक ५—
‘कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥’
यहाँतक पत्रलेखक महोदयके अपने शब्द हैं।
इसका उत्तर यह है कि श्रीभगवान्ने गीतामें यह बतलाया है कि मनुष्य क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता—
‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।’
इसी प्रसंगमें यह कहा है कि ‘सब लोग प्रकृतिजनित गुणोंके द्वारा परवश होकर कर्म करनेको बाध्य होते हैं।’
‘कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥’
इसका अभिप्राय यह है कि संसारका प्रादुर्भाव प्रकृतिजन्य सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंसे होता है। सारा संसार गुणमय है और ये तीनों गुण प्रत्येक जीवमें न्यूनाधिक रूपमें रहते हैं। जबतक ये गुण विषम अवस्थामें हैं, तबतक संसार है और जबतक संसार है, तबतक संसारका कोई भी प्राणी कर्मरहित होकर नहीं रह सकता; उसे इन्द्रियोंके या मनके द्वारा किसी-न-किसी कर्ममें लगे रहना ही पड़ता है। अर्थात् बुद्धिका किसी विषयमें निर्णय एवं निश्चय करना, चित्तका चिन्तन करना, मनका मनन करना, कानका सुनना, त्वचाका स्पर्श करना, आँखका देखना, जीभका चखना, नासिकाका सूूँघना, वाणीका शब्दोच्चारण करना, पैरोंका चलना, गुदा-उपस्थका मल-मूत्रादि त्याग करना और प्राणोंका श्वास लेना—आदि कार्योंमेंसे कोई-न-कोई होता ही रहता है। इसका यह अर्थ लगाना कि मनुष्य प्राकृतिक गुणोंके वशमें होकर मछली-मांस खाने, शराब-ताड़ी पीने और पर-स्त्री-गमन आदि पापोंमें लगनेको बाध्य होता है, सर्वथा अनर्थ करना है। पाप प्रकृतिकी प्रेरणासे नहीं होते। पापके होनेमें हेतु है—मनुष्यके अंदर रहनेवाली कामना। भगवान्ने गीताके इसी तीसरे अध्यायमें यह स्पष्ट कहा है—
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धॺेनमिह वैरिणम्॥
(३।३७)
‘रजोगुणरूप आसक्तिसे उत्पन्न काम ही (प्रतिहत होनेपर) क्रोध बन जाता है। यह काम बहुत खानेवाला (भोगोंसे कभी न अघानेवाला) और बड़ा पापी है। इसीको तुम इस विषयमें (पाप बननेमें) वैरी समझो।’
और अन्तमें भगवान्ने इस कामनापर विजय प्राप्त करनेके लिये आज्ञा दी है—
‘जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥’
‘हे महाबाहो! इस कामरूप दुर्जय शत्रुको तुम मार डालो!’
यदि मनुष्यको परवश होकर पाप करनेको बाध्य होना पड़ता तो गीताका यह प्रसंग निरर्थक होता। यही नहीं, विधि-निषेधात्मक समस्त शास्त्र ही व्यर्थ होते। गीतामें ही मनुष्यको कर्म करनेमें स्वतन्त्र बतलाया है—‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’—यह भी व्यर्थ होता। पर बात ऐसी नहीं है। गीताके ऐसे वाक्योंका इस प्रकार अर्थ लगाकर अपने पापका समर्थन करना या तो भ्रमसे होता है, या जान-बूझकर गीतापर पाप करानेका दोष मँढ़कर दुहरा पाप किया जाता है। भगवान्ने गीतामें काम, क्रोध और लोभ—इन तीनोंको नरकका द्वार और आत्माका नाश करनेवाले—जीवको अधोगतिमें पहुँचानेवाले बतलाकर इनका त्याग करनेकी आज्ञा दी है—
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(१६।२१)
मनुष्यमें यह सामर्थ्य है कि वह काम-क्रोध-लोभपर विजय प्राप्त करे, इनको मारे और इनसे होनेवाले पाप-कर्मोंको समूल नष्ट कर दे। वह यदि ऐसा न करके—इन्द्रियके वश होकर नाना प्रकारके पाप करता है तो दण्डका पात्र होता है। मनुष्यको जो अपने जीवनमें भाँति-भाँतिके दु:खों-क्लेशोंका भोग करना पड़ता है, इसका प्रधान कारण उसके अपने किये हुए ये पाप ही हैं, जिन्हें वह चाहता तो छोड़ सकता था। अतएव आपका यह सर्वथा भ्रम है, जो आप मांस-मछली, शराब-ताड़ीके खान-पान और व्यभिचारको परवश होकर किये जानेवाले कर्म मानते हैं और इनसे छूटनेमें अपनेको असमर्थ बताते हैं। ये पाप प्रकृति नहीं कराती। ये कराती है आपकी भोगासक्ति, और जो भोगासक्तिके वश होकर पाप करेगा, उसको उसका भयानक परिणाम भी अवश्य ही भोगना पड़ेगा।
यह आपका दूसरा महान् भ्रम है, जो आप गीता (९।२७)- का हवाला देकर पापकर्मको ईश्वरके अर्पण करनेकी बात सोचते हैं। इस श्लोकमें हवन, दान और तपके अर्पण करनेकी बात कही गयी है, वह तो स्पष्ट ही शास्त्रीय और गीताकथित हवन, दान और तप आदि क्रियाओंके लिये है। ‘तुम जो कुछ भी कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो’—(‘यत्करोषि’ तथा ‘यदश्नासि’) इनमें भ्रम हो सकता है, परंतु गीतामें भगवान्की यह स्पष्ट घोषणा है कि—
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥
(१६।२४)
‘तुम्हारे कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है। यह जानकर तुम्हें वही कर्म करने चाहिये, जिनका शास्त्रोंमें विधान है।’
अतएव वस्तुत: कर्म वे ही हैं, जो शास्त्रनियत हैं, शेष तो विपरीत कर्म यानी निषिद्ध हैं। निषिद्ध कर्मोंको कभी भगवान्के अर्पण नहीं किया जा सकता। भोगासक्तिवश पापकर्म करना और उन्हें भगवान्के समर्पण करनेकी बात सोचना ही एक बड़ा पाप है।
अतएव आप दोनों ही भ्रमोंको तुरंत छोड़ दीजिये। याद रखिये कि न तो आप मछली-मांस खाने, शराब-ताड़ी पीने और व्यभिचार करनेके लिये परवश हैं और न किसी भी पापकर्मको कभी भगवान्के अर्पण ही किया जा सकता है। आपके जो मित्र या गुरु गीताका इस प्रकारका अर्थ करते हैं; उनसे भी सावधान रहना चाहिये।