संकुचित स्वार्थ बहुत बुरा है
प्रिय महोदय! सादर सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आप जिस दृष्टिकोणसे अपनी स्वार्थरक्षाका विचार कर रहे हैं, वह यद्यपि आपकी युक्तियोंके अनुसार ठीक हो सकता है, परंतु यह दृष्टिकोण वस्तुत: दूषित है। हमारी संस्कृतिमें तो ‘समस्त भूतप्राणियोंको अपना आत्मा समझना’, ‘सारी दुनियाको अपना कुटुम्ब मानना’, ‘अपनी उपमासे सबके सुख-दु:खका अनुभव करना’, ‘सबको भगवत्स्वरूप समझकर सबकी सेवा करना’ और ‘सबका अंश देकर बचा हुआ प्रसादामृत स्वयं खाना’—इसीको उत्तम और कर्तव्य माना गया है। यह तो आजके इस उन्नत माने जानेवाले पतित युगकी महिमा है कि जिसमें कुटुम्बकी परिभाषा केवल अपनी स्त्री तथा छोटे बच्चोंतक ही सीमित हो गयी है। सारा स्वार्थ केवल अपने शरीरकी दृष्टिसे ‘मुझे और मेरे’ तक ही केन्द्रित हो गया है और इसीमें बुद्धिमानी तथा सन्तुष्टि मानी जा रही है। मानव-जीवनके विशाल दृष्टिकोणको समझनेके लिये स्वार्थकी इस अत्यन्त क्षुद्र सीमाका अतिक्रमण करके बहुत आगे बढ़ना होगा। यह वस्तुत: बड़ा भारी मतिभ्रम है। इससे हमारी अन्तरात्मा कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह चाहती है—अखण्ड आनन्द और परम शान्ति। पर हम इनको खोज रहे हैं क्षुद्र सीमित स्वार्थके गंदे गड्ढेमें। इसीसे सुखके स्थानपर दु:खोंकी तथा शान्तिके स्थानपर अशान्तिकी परम्परा चल रही है। क्षुद्र कामनाके वशीभूत होकर आज हम परस्वापहरण, क्रोध, द्रोह, असत्य और अन्यायके द्वारा अखण्ड सुख पानेका स्वप्न देख रहे हैं!!
आप निश्चय मानिये—आपके माता-पिता, आपके ताऊ-चाचा, आपके बड़े और छोटे भाई तथा परिवारके अन्य सदस्य—इनमें पराया कोई भी नहीं है। आप इनको कुछ भी न देकर स्वयं ही सारी सम्पत्तिके स्वामी बनना चाहते हैं और इसका धर्म तथा न्यायके द्वारा समर्थन चाहते हैं, यह आपकी बड़ी भूल है। जबतक आप सम्मिलित कुटुम्बमें हैं, तबतक न्यायके अनुसार सभीका हिस्सा है। पैतृक सम्पत्तिमें तो है ही, आपकी कमाईमें भी है। आपको ईमानदारीके साथ कुछ भी न छिपाकर सबका न्याय-प्राप्त अंश प्रसन्नताके साथ प्रत्येकको दे देना चाहिये। उचित तो यह है कि आप सम्मिलित कुटुम्बको ही कायम रहने दें और सबको अपनी कमाईमें सदा हिस्सेदार समझकर सबका भरण-पोषण यथायोग्य करते रहें। क्या आप यह मानते हैं कि आपकी कमाईमें उनका कोई हाथ नहीं है? यदि ऐसा समझते हैं तो यह आपका मिथ्या गर्व है, जो आपके लिये परिणाममें कभी हितकर नहीं हो सकता। माता-पिताने तो आपको जन्म दिया, पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया और मनुष्य बनाया। ताऊ तथा चाचेके लिये आप स्वयं कहते हैं कि उनका बर्ताव मेरे साथ बुरा नहीं हुआ। भाई तो घरका सारा काम करते ही हैं। आप दो-चार अक्षर ज्यादा पढ़े हैं और आपकी आमदनी उनसे कुछ ज्यादा है, इसीपर आप उन्हें निकम्मा, व्यर्थका खानेवाले और भार-स्वरूप मानने लगे; आप अपने हृदयको विशाल बनाइये। इससे आपको लाभ होगा। अभी जो आपको आशंका हो रही है और भविष्यकी बड़ी चिन्ता हो रही है, इसमें प्रधानतया आपके क्षुद्र स्वार्थके विचार ही कारण हैं। सीमित तथा गंदे स्वार्थके द्वारा जो लोग पराजित हो जाते हैं, उनकी यही दशा हुआ करती है। उन्हें पद-पदपर शंका-सन्देह होता है। घरवाले सब शत्रु-से दिखायी देते हैं। वे समझते हैं कि ये सब हमें लूट खाना चाहते हैं। ये विचार वस्तुत: बहुत निम्नकोटिके हैं। आपको अखण्ड आनन्द और शान्ति इन विचारोंसे कभी नहीं मिलेगी। सबके हित और सुखके लिये स्वार्थका विस्तार कीजिये। एक अपने कुटुम्बके लिये ही क्यों, समस्त विश्वकी सेवामें आपका तन-मन-धन लगना चाहिये। तभी आप सच्ची शान्ति और अखण्ड आनन्दको पा सकेंगे।
आप सुशिक्षित हैं, सब बातोंको समझते हैं, इसलिये आपसे प्रार्थना है कि आप इस विषयपर गहराईसे विचार कीजिये। जरा भी लोभ मनमें मत आने दीजिये। यदि आपने लोभके वशीभूत हो उन लोगोंको न्याय्य-स्वत्वसे वंचित किया तो वह आपके लिये आत्मघातसे भी बढ़कर दु:खदायी हो सकता है। दु:खी हृदयोंकी हाय मत लीजियेगा। धन न साथ आया है, न साथ जायगा। आपको भी मरना है। सब यहीं रह जायगा। फिर मनमें बेईमानी करके अपने ऊपर पापका भार क्यों लादना चाहिये।