परमार्थके साधन
प्रिय महोदय, सप्रेम हरिस्मरण। पत्र मिला। कुछ कारणसे उत्तर देनेमें विलम्ब हुआ है, कृपया क्षमा करेंगे। आपके प्रश्नोंका उत्तर इस प्रकार है—
१- भगवत्प्राप्तिका सबसे अच्छा उपाय है—भगवान्के प्रति प्रगाढ़ प्रेम, भगवान्से मिलनेकी प्रबल तीव्र उत्कण्ठा और भगवान्के विरहमें एक क्षण भी जीवन-धारण असह्य हो जाना। वास्तवमें यह कोई साधन नहीं है, यह तो भगवद्विरहीका लक्षण है। करोड़ों वर्षोंकी तपस्याके मूल्यपर भी सच्चिदानन्दमय भगवान्के श्रीविग्रहकी क्षणिक झाँकीतक नहीं मिल सकती। कोई भी पुण्य, जप, तप, दान अथवा यज्ञ ऐसा नहीं है, जो भगवान्को दर्शन देनेके लिये विवश कर सके। भगवान्का दर्शन तो भगवान्की कृपासे ही होता है—‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’। उनका दर्शन वही कर सकता है, जिसके सामने वे अपनी योगमायाका परदा हटाकर प्रकट हो जायँ। उनको कहींसे आना-जाना नहीं पड़ता। वे तो सदा और सर्वत्र विराजमान हैं; किंतु हैं योगमाया-समावृत। जिसपर उनकी विशेष कृपा होती है; उसीको उनके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त होता है। जिसे प्रभु देखते हैं कि यह मेरे दर्शनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता, उसे अधिकारी मानकर तत्काल उसके सामने प्रकट हो जाते हैं। अत: उनका दर्शन कितने दिनोंमें होगा?—यह प्रश्न ही नहीं बन सकता। उनका दर्शन एक क्षणमें भी हो सकता है और कोटि-कोटि जन्मोंमें भी नहीं हो सकता। दर्शन तो उनकी दयासे ही होता है। हाँ, अपनेको प्रभुकी कृपाका पात्र बनानेके लिये योग्य साधन करते रहना मनुष्यका परम कर्तव्य है। उनमें निरन्तर प्रेम बढ़े, मिलनेकी तीव्रतम इच्छा जाग्रत् हो और एक क्षणका भी विरह असह्य हो जाय—ऐसी अवस्था अपने जीवनमें लानेकी चेष्टा करनी चाहिये।
२-३—अभी आपकी अवस्था नयी है, घरपर पूर्णरूपसे भजन नहीं हो पाता, इसलिये आप घरसे निकलकर वृन्दावनमें रहकर भजन करना चाहते हैं। भजनकी इच्छाका होना तो बहुत ही उत्तम है; किंतु आजकलके समयमें घर छोड़कर जानेकी सलाह तो मैं कभी नहीं दे सकता। घरमें जो घरका और दूकानका काम आपको करना पड़ता है, वह किसका काम है? क्या उसे आप भगवान्का काम नहीं समझते? क्या वह संसारका काम है? ऐसी भूल न कीजिये। घरके, आपके तथा सम्पूर्ण जगत्के सच्चे स्वामी भगवान् हैं। सब काम उन्हींका है। अत: उन्हींको स्वामी अपनेको सेवक मानकर झूठ, कपट, चोरी आदि बुरी वृत्तियोंसे बचते हुए यदि घर और दूकानका काम सँभाला जाय तो यह भी भगवान्का भजन ही है। यही सर्वकर्मसे भगवान्की पूजा समझनी चाहिये। घरसे बाहर जानेपर भी आदमी प्रमादमें पड़कर साधनसे गिर जाता है। अभी आपको बाहरकी कठिनाइयोंका अनुभव नहीं है; अत: घरपर ही रहकर भजन-साधनका अभ्यास बढ़ाइये और भगवान्का काम समझकर घरके कामोंको भी उत्साहके साथ कीजिये।
४-सुनने और किताबोंको देखनेसे जो आपको मालूम हुआ कि किसी मन्दिरमें जाकर भगवान्के चरणोंमें गिर जाने और ‘जबतक भगवान् दर्शन न देंगे, तबतक हम नहीं उठेंगे’ यह व्रत लेकर खाना-पीना छोड़कर पड़े रहनेसे भगवान् जल्दी दर्शन देते हैं सो मेरी समझसे ऐसा करना कदापि युक्तियुक्त नहीं है। इसमें कई तरहके दोष आ सकते हैं। सबसे अच्छा उपाय तो है—प्रभुकृपाकी बाट जोहते हुए उनके लिये उत्कण्ठित रहना, अपनेको सर्वथा एकमात्र भगवान्की कृपापर छोड़ देना। फिर भगवान् स्वयं ही अवसर देखकर हृदयसे लगा लेंगे। खान-पान छोड़नेमें महत्त्व नहीं है, महत्त्व तो भगवान्की अनिवार्य आवश्यकता होनेमें और उनकी कृपापर अडिग विश्वास करनेमें है।
५-आपने अपने मनकी जो दशा लिखी है, वही प्राय: मनुष्यमात्रके मनकी स्थिति है। मन संसारमें अधिक रमता है और भगवान्में कम। उसे अधिकाधिक भगवान्की ओर लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये। ऐसे अव्यवस्थित मनको लेकर भगवान्के मन्दिरमें धरना देना तो बिलकुल नादानी ही है।
६-कलियुगमें अन्य युगोंकी अपेक्षा जल्दी और सुगम साधनसे ही भगवान् दर्शन दे देते हैं, यह बात बिलकुल ठीक है। सत्ययुगमें हजारों वर्षोंतक ध्यान, त्रेतामें कितने ही वर्षोंतक यज्ञ तथा द्वापरमें सुदीर्घ कालतक पूजा-अर्चा करनेसे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवान्के नामोंका कीर्तन करनेसे मिल जाता है—‘कलौ तद्धरिकीर्तनात्’।
७-आपने यह ठीक ही सुना है कि पापी-से-पापी मनुष्य भी यदि भगवान्की शरणमें चला जाय तो उसे भगवान् शीघ्र ही अपना लेते हैं। स्वयं भगवान् गीतामें कहते हैं—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
(९। ३०-३१)
अर्थात् ‘कोई कितना ही बड़ा दुराचारी क्यों न हो, जो सबका भरोसा छोड़कर अनन्यभावसे मेरा भजन करने लगता है, वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि अब उसने उत्तम व्रत लिया है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सनातन शान्तिको प्राप्त कर लेता है।’ सनातन शान्तिका अर्थ है—भगवान्की प्राप्ति।
जो भगवान्की शरणमें जाता है, उसकी अहंता और ममताका त्याग हो जाता है। उसके लिये ‘मैं’ और ‘मेरा’ कुछ नहीं रहता। उसका ‘मैं’ पन और ‘मेरा’ पन सब कुछ भगवान्के चरणोंमें समर्पित हो जाता है। वह तो भगवान्के हाथका यन्त्र बन जाता है। भगवान् जैसे रखें, रहना है; जो करावें करना है। उसकी प्रत्येक चेष्टा भगवान्की प्रीतिके लिये होती है। अत: बुरे कर्मोंकी ओरसे उसकी प्रवृत्ति स्वाभाविक ही हट जाती है। उसे तो वे ही कर्म भाते हैं, जिनसे भगवान्को प्रसन्नता हो। सुख हो या दु:ख, उसे भगवान्का प्रसाद मानकर वह सहर्ष शिरोधार्य करता है। उसे अपने लिये कोई चिन्ता नहीं होती। वह तो अपनेको भगवान्की छत्रच्छायामें डालकर पूर्णत: निश्चिन्त एवं निर्भय हो जाता है। उसे अपने किसी अभावका भान ही नहीं रहता। उसके मन, प्राण, शरीर, अन्त:करण सबके लक्ष्य एक भगवान् ही होते हैं। वह उन्हींको देखता, उन्हींकी बातें सुनता और उन्हींका निरन्तर चिन्तन करता हुआ मस्त रहता है। ऐसे शरणागत भक्तके योगक्षेमका भार स्वयं भगवान् ही वहन करते हैं। यदि भगवान्की मधुर स्मृतिमें प्रेमावेश होनेपर उसे खाना-पीना भूल जाय तो उसको खिलाने-पिलानेकी चिन्ता भी भगवान्को ही करनी पड़ती है—
‘जिमि बालक राखइ महतारी॥’