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परिस्थितिपर फिरसे विचार कीजिये

सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिले चार महीने हो गये। समयाभाव और स्वभावदोषसे मैं उत्तर नहीं लिख सका, इसके लिये क्षमा चाहता हूँ। आपने अपनी परिस्थिति लिखी, वह अवश्य ही विचारणीय है। ऐसी परिस्थितिमें आपने जैसा लिखा है, दुर्बलहृदय और अनिश्चितबुद्धि मनुष्यके लिये बाध्य होकर इस प्रकारके कर्म करना स्वाभाविक हो जाता है, यह भी ठीक ही है। ऐसी परिस्थितिमें पड़े बिना कोई कैसे कह सकता है कि इस प्रकारके आपद्धर्ममें क्या करना चाहिये। वस्तुत:—

जाके कबहुँ न फटी बेवाँई।
सो का जानै पीर पराई॥

—के अनुसार दूसरेकी परिस्थितिका अनुभव करना और उसे उस परिस्थितिमें इच्छा न रहते हुए भी क्यों ऐसा कार्य करना पड़ता है, इसका यथार्थ निर्णय करना बहुत ही कठिन है। तथापि यह तो मानना ही पड़ेगा कि मनुष्य पापको पाप बताते हुए भी यदि उसे करता है तो या तो वह उसे पाप बताता है पर यथार्थमें समझता नहीं। संखिया खानेसे मनुष्य मर जाता है, यह पक्‍का विश्वास जिसको होता है वह सुन्दर दीखनेवाले सुमिष्ट लड्डुओंमें भी संखियेका संदेह हो जानेपर उन्हें नहीं खाता; क्योंकि वह समझता है कि खाऊँगा तो मैं मर जाऊँगा। या इतना उन्मत्त हो गया है कि अपने भले-बुरेका ज्ञान ही खो बैठा है; अथवा उसकी पापमें पापबुद्धि है ही नहीं, केवल दम्भसे उन्हें पाप बतलाता है और परिस्थितिका बहाना लेकर युक्तिवादके द्वारा अपनी दुर्बलताको अवश्यकर्तव्य बतलाकर उसका समर्थन करता है। बहुत बार अच्छाईके वेषमें बुराई आती है, धर्मके नामपर अधर्म आता है और कर्तव्यका स्वरूप धारण करके नितान्त अकर्तव्य आया करता है। ऐसी अवस्थामें मनुष्य उन शास्त्रीय शब्दों या लोकोक्तियोंका, जो अवस्थाविशेषके लिये कर्तव्य होती हैं, सहारा लेकर बुराई, अधर्म या अकर्तव्यका प्रसन्नतापूर्वक वरण करता है। जैसे—

(१) झूठ बोलनेवाला व्यापारी कहता है—व्यापारमें झूठ मिले हुए सत्यके बिना काम ही नहीं चलता। मनुमहाराजने—‘सत्यानृतं तु वाणिज्यम्’ कहा है। महाभारतादिमें भी व्यापार-विवाह आदिमें मिथ्या भाषण अपराध नहीं माना गया है।

(२) परिवारमें मोह-आसक्ति रखनेवाला सोचता है—भगवान‍्ने इनको हमारे हाथों सौंपा है, इसलिये इनकी सार-सँभाल करना हमारा धर्म है। भरतजीने भी यही किया था।

(३) आलसी कहता है—

अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम।
दास मलूका यों कहै सबके दाता राम॥

(४) भक्त बनकर अपनी पूजा करानेवाला कहता है—

‘राम ते अधिक राम कर दासा॥’

(५) कड़वा बोलनेवाला कहता है—

बुरे लगें हितके बचन हिये बिचारो आप।
कड़वी भेषज बिनु पिये मिटै न तनकी ताप॥

(६) अपनेको गुरु बताकर पुजवानेवाला उपदेश करता है—

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काकै लागूँ पाय।
बलिहारी गुरुदेवकी जिन गोबिंद दिये मिलाय॥

(७) संत सजकर पूजा करानेवाला भगवान् रामके वचनोंका प्रमाण देता है—

‘मोतें संत अधिक करि लेखा॥’

(८) चोर कहता है—स्वयं श्रीकृष्णने माखन चुराया था। इसीसे उनका नाम ‘चौराग्रगण्य’ है।

(९) जुआरी मानता है—‘द्यूतं छलयतामस्मि’ गीताके वचनानुसार जुआ तो भगवान‍्का स्वरूप है।

(१०) शराबी और मांसाहारी मनुका प्रमाण देते हैं—

‘न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने।’

‘न तो मांसभक्षणमें दोष है, न मद्यमें और न मैथुनमें ही।’

(११) स्त्री और सेवकोंपर अत्याचार करनेवाले सारा दोष तुलसीदासजीपर मँढ़ते हुए कहते हैं—

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

(१२) क्रोधी कहता है—

साँच कहूँ होकर निडर कोई हो नाराज।
मैंने तो सीखा यही साँच बोलिये गाज॥

(१३) माता-पिताकी अवहेलना करके अपने मतका समर्थन करनेवाला गाता है—

जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम,
जद्यपि परम सनेही॥

(१४) झूठा आश्वासन देनेवाले सोचते हैं—कुछ भी कह देना है, करना तो है नहीं—‘वचने का दरिद्रता।’

(१५) बात-बातमें डाँट-डपट करनेवाला कहता है—‘साँप काटे नहीं तो क्या फुफकारे भी नहीं?’

(१६)भाई-भाईसे लोभवश लड़नेवाला—कौरव-पाण्डवोंकी कथा उपस्थित करता है।

(१७) पर-दोष-दर्शन तथा परनिन्दा करनेवाले प्रमाण देते हैं—

बैद्य न जानैं रोगकौं और जो नहिं देत बताहिं।
बैद्य धरमतें सो गिरैं रोगी प्रान नसाहिं॥

—और कहते हैं कि यदि हम किसीके दोष न देखें एवं लोगोंको बताकर सावधान न करें तो कैसे उसके दोष छूटें और कैसे लोग उसके दोषोंसे बचें।

(१८) वर्णाश्रमानुकूल धर्म, संयम-नियम, सन्ध्या-वन्दनादिका त्याग करनेवाले अपनेको प्रेमी घोषित करके कहते हैं—‘भाई! ये सब तो उन लोगोंके लिये हैं, जिन्होंने प्रेमका मुख नहीं देखा है, प्रेमराज्यमें इनका क्या काम एवं नारायण स्वामीके ये दोहे पढ़ देते हैं—

तब लौं यह फाँसी गले, बरनास्रम ब्रत नेम।
नारायण जब लौं नहीं, मुख दिखलावे प्रेम॥
धर्म धैर्य संयम-नियम, सोच विचार अनेक।
नारायण प्रेमी निकट, इनमें रहैं न एक॥

(१९) कर्तव्य-कर्मोंका त्याग करनेवाला अपनेको ज्ञानी मानकर भगवान‍्के शब्दोंकी दुहाई देता है—

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

जिसकी आत्मामें ही रति है, जो आत्मामें ही तृप्त है और आत्मामें ही सन्तुष्ट है, उस मनुष्यके लिये कोई भी कर्तव्य नहीं हैं।

(२०)आहार-विहारमें पशुवत् व्यवहार करनेवाला गीताका श्लोक पढ़ देता है—

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥

विद्या-विनयसम्पन्न ब्राह्मण, चाण्डाल, गौ, हाथी और कुत्ता—इन सभीमें ज्ञानी पुरुष समदर्शी होते हैं।

इसी प्रकार और भी अनेकों बहाने होते हैं बुराईका समर्थन करनेके लिये। वस्तुत: यह इन सद्विचारों एवं सदुक्तियोंका भीषण दुरुपयोग और अर्थका अनर्थ है, जो मूर्खतासे या दम्भसे अपनी दुर्बलताको छिपानेके लिये मनुष्य करता है।

अतएव आप अपने हृदयको टटोलकर देखिये, उसमें कोई छिपा हुआ ऐसा दोष तो नहीं है जो युक्तिवादसे परिस्थितिका बहाना करके आपको धोखा देता है।

फिर जो धर्मका सच्चा सेवक है और भगवान‍्के पवित्र पथपर चलना ही जीवनका परम कर्तव्य समझता है उसके लिये तो खुला मार्ग है, उसमें किंतु-परंतुको स्थान ही नहीं है। वह तो ऐसा कोई भी कर्म, किसी भी हेतुसे नहीं करता जो अधर्म हो और भगवान‍्के पवित्र पथसे च्युत करानेवाला हो।

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