प्रार्थना
आपका कृपापत्र मिला। आप अपनी भाषामें अपने हृदयके उद्गार आर्त और दीन भावसे ‘श्रीभगवान् अपने अत्यन्त समीप हैं और सब कुछ देख-सुन रहे हैं’ ऐसा विश्वास करके भगवान्के सामने रखिये। कातर पुकार कीजिये और सच्चे मनसे रोकर अपनी स्थिति उन्हें बताइये। यही सच्ची प्रार्थना है। सच्ची प्रार्थनामें बड़ी शक्ति है। आपको प्रार्थनाका मंगलमय उत्तर मंगलमय श्रीभगवान्की ओरसे अवश्य मिलेगा। इसपर विश्वास कीजिये। आप करुण प्रार्थनाके कुछ श्लोक चाहते हैं, सो प्रार्थनाके हजारों-लाखों श्लोक हैं। संस्कृत साहित्य स्तुतियोंसे भरा है। यहाँ कुछ श्लोक लिख रहा हूँ। इनसे लाभ उठाइये—
न ध्यातोऽसि न कीर्तितोऽसि न मना-
गाराधितोऽसि प्रभो
नो जन्मान्तरगोचरे तव पदा-
म्भोजे च भक्ति: कृता।
तेनाहं बहुदु:खभाजनतया
प्राप्तो दशामीदृशीं
त्वं कारुण्यनिधे विधेहि करुणां
श्रीकृष्ण दीने मयि॥
‘प्रभो! न तो मैंने कभी ध्यान किया, न कीर्तन किया और न जरा-सी आराधना ही की। अनेक जन्मोंमें प्रत्यक्ष होनेवाले तुम्हारे चरणकमलोंमें कभी भक्ति भी नहीं की। इसीसे अतिशय दु:खका पात्र बनकर मैं ऐसी दशाको प्राप्त हुआ हूँ। तो भी हे श्रीकृष्ण! हे करुणाके सागर! मुझ दीनके प्रति आप करुणा (दया) कीजिये।’
परमकारुणिको न भवत्पर:
परमशोच्यतमो न च मत्पर:।
इति विचिन्त्य हरे मयि पामरे
यदुचितं यदुनाथ तदाचर॥
‘हे हरे! तुमसे बढ़कर परम कारुणिक और कोई नहीं और मुझसे बढ़कर परम शोचनीय और कोई नहीं। हे यदुनाथ! यों समझकर मुझ पामरके लिये जो उचित हो, वही कीजिये।’
न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि।
सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्द
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे॥
‘हे मुकुन्द! संसारमें ऐसा कोई भी निन्दित कर्म नहीं है, जिसे मैंने हजारों बार नहीं किया है। वही मैं अब, जब उन कर्मोंके फल पानेका अवसर आया है, तब कोई भी पथ न पाकर तुम्हारे आगे रो रहा हूँ।’
अभूतपूर्वं मम भावि किं वा
सर्वं सहे मे सहजं हि दु:खम्।
किन्तु त्वदग्रे शरणागतानां
पराभवो नाथ न तेऽनुरूप:॥
‘हे नाथ! अबतक जैसा दु:ख नहीं हुआ है; वैसा दु:ख अथवा भविष्यमें होनेवाले इन सब दु:खोंको मैं सह लूँगा; क्योंकि वे दु:ख तो मेरे साथ ही उत्पन्न हुए हैं। (दु:खोंको सहनेका मैं अभ्यासी बन गया हूँ) किन्तु स्वामिन्! जो तुम्हारी शरणमें आ गये हैं, उनका तुम्हारे सामने पतन होना तुम्हारे अनुरूप तो नहीं ही है।’
शरणमसि हरे प्रभो मुरारे
जय मधुसूदन वासुदेव विष्णो।
निरवधिकलुषौघकारिणं मां
गतिरहितं जगदीश रक्ष रक्ष॥
‘हे हरे! प्रभो! मुरारे! एकमात्र तुम्हीं मेरा आश्रय हो। मधुसूदन! वासुदेव! विष्णु! तुम्हारी जय हो। मैंने निरन्तर ढेर-के-ढेर पाप किये हैं। मुझे कहीं गति नहीं है। जगदीश्वर! मेरी रक्षा करो।’
अयि नन्दतनूज किङ्करं
पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपङ्कज-
स्थितधूलीसदृशं विभावय॥
‘ऐ नन्दकिशोर! मैं तुम्हारा किंकर हूँ, विषम भवसागरमें गिर पड़ा हूँ। कृपया मुझे अपने चरण-कमलोंकी धूलिके समान समझ लो।’
दिनादौ मुरारे निशादौ मुरारे
दिनार्द्धे मुरारे निशार्द्धे मुरारे ।
दिनान्ते मुरारे निशान्ते मुरारे
त्वमेको गतिर्नस्त्वमेको गतिर्न:॥
‘मुरारे! दिनके आरम्भमें, मुरारे! रातके आरम्भमें, मुरारे! दुपहरको, मुरारे! आधी रातको, मुरारे! दिनके अन्तमें और मुरारे! रातके अन्तमें हमारे तो तुम्हीं एकमात्र गति हो, तुम्हीं एकमात्र गति हो।’
दीनबन्धुरति नाम ते स्मरन्
यादवेन्द्र पतितोऽहमुत्सहे।
भक्तवत्सलतया त्वयि श्रुते
मामकं हृदयमाशु कम्पते॥
‘यादवेन्द्र! तुम्हारे दीनबन्धु नामका स्मरण करनेपर मेरे मनमें बड़ा उत्साह हुआ था, क्योंकि मैं पतित (दीन) हूँ। परन्तु अभी तुम्हारा भक्तवत्सल नाम सुनकर तो मेरा हृदय काँप रहा है। (क्योंकि मैं तो भक्त हूँ नहीं, फिर तुम मुझपर कैसे कृपा करोगे?)’
विवृतविविधबाधे भ्रान्तिवेगादगाधे
बलवति भवपूरे मज्जतो मे विदूरे।
अशरणगणबन्धो हा कृपाकौमुदीन्दो
सकृदकृतविलम्बं देहि हस्तावलम्बम्॥
‘जिसमें विविध बाधाएँ विस्तृत हैं, जो भ्रान्तिके वेगसे अगाध है, ऐसे बलवान् संसार-समुद्रमें मैं बहुत दूर डूबा रहा। हे अशरणोंके बन्धु! हे कृपाचन्द्रिका फैलानेवाले चन्द्रमा! हाय! आप मुझ डूबते हुएको एक बार तुरंत हाथका सहारा दीजिये।’
असलमें श्लोकोंका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। महत्त्व तो है हृदयकी सच्ची दीनतापूर्ण पुकारका। आप हृदयसे भगवान्को पुकारिये।