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विश्वासपूर्वक प्रार्थनाका महत्त्व

सप्रेम हरिस्मरण!....पत्र आपका मिला।....आपने लिखा है— ‘मेरे जीवन-पथमें भयंकर अन्धकार छाया हुआ है। समझमें ही नहीं आता, कौन? क्या? क्यों? मैं प्रार्थना करता हूँ उस परम शक्तिसे; किंतु किसी तरह शान्ति नहीं मिलती है।’

पत्र पढ़नेसे ज्ञात होता है, आप निराशाकी ओर बढ़ रहे हैं। मैं आपको सलाह देता हूँ, आप धैर्य रखिये और आशा न छोड़िये। अन्धकार स्वत: कोई वस्तु नहीं, वह प्रकाशके आवरणकी छायामात्र है। आवरण दूर होते ही अन्धकारका कहीं पता नहीं लगेगा। निशीथकी वेलामें जब समस्त भूमण्डलपर अन्धकारका अखण्ड साम्राज्य छाया रहता है, उस समय क्या हम कभी निराश होते हैं? हम सबके हृदयमें यह दृढ़ विश्वास रहता है कि अन्धकार क्षणिक है, सूर्यके आवरणकी छाया है। कुछ ही देरमें पौ फटेगी। उस कालमें भगवान् अंशुमालीकी सुनहरी किरणोंसे सर्वत्र सुप्रभातकी छटा छा जायगी। जहाँ इस समय अभेद्य अन्धकार है, वहाँ कुछ ही देरमें प्रकाश मुसकराता दिखायी देगा। आपके जीवन-पथमें भी जो अन्धकार है, वह आनेवाले दिव्य प्रकाशकी सूचनामात्र है। आप धैर्य और उत्साह रखकर आनेवाले प्रकाशकी प्रतीक्षा करें, उसे ग्रहण करनेके लिये अपने अन्तर्द्वारको सतत मुक्त रखें। उल्लू और चमगादड़ दिनमें भी आँखें बंद रखते हैं और यही समझते हैं कि प्रकाशका कहीं अस्तित्व ही नहीं है! ऐसा नहीं होना चाहिये। हमें अपने हृदयको खोल रखना होगा उस दिव्य प्रकाशको भर लेनेके लिये, जिससे जीवनका मार्ग सदा ही आलोकित रहे।

आप परमशक्ति परमेश्वरसे प्रार्थना करें और शान्ति न मिले, यह असम्भव है। रसके अनन्त सागरमें गोते लगानेवालेको शीतलताका अनुभव न हो, यह अनहोनी बात है। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि आपने संशयापन्न हृदयसे किसी अनन्त रससागरकी सत्तापर विश्वास न कर सकनेके कारण क्षणिक भावावेशमें आकर मरुकी मरीचिकाको ही समुद्रका जल मान लिया हो और अनजान मृगकी भाँति उसीमें गोते लगानेको दौड़ पड़े हों! ऐसा होनेपर ही तृषा और तापके बढ़नेकी सम्भावना है। आपके इस विचारसे—‘ईश्वर मनुष्यकी कल्पनाका एक केन्द्र है’ मुझे उपर्युक्त धारणा बनानी पड़ी है। जब आपका यही विश्वास है कि ईश्वर केवल कल्पना है, सत्यसे कोसों दूर है तो अबतक आपने शून्य अथवा मिथ्याकी ही उपासना की है। ऐसी अवस्थामें शान्ति एवं सफलता न मिले, तो आश्चर्य ही क्या है?

‘कौन, क्या, क्यों’—इन प्रश्नोंके चक्रमें उलझे हुए मनसे कहीं वास्तविक प्रार्थना हो सकती है? प्रार्थना आरम्भ करनेके पहले ही इनका हल निकाल लेना होगा, किसी दृढ़ निश्चयपर पहुँच जाना होगा। अन्यथा सारा अभिनय अन्धकारमें टटोलनेके ही समान है। आइये, पहले ईश्वरको खोजें, फिर देखें वह कैसे नहीं सुनता है। शास्त्रोंमें ईश्वरकी यह पहचान बतायी गयी है—‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ ईश्वर:’—‘जो करने, न करने और अन्यथा करनेमें समर्थ हो, वह ईश्वर है।’ संसारमें तीन बातें प्रत्यक्ष अनुभवमें आती हैं—कृति, अकृति और अन्यथा। कृति—सृष्टि, प्रलय तथा परिवर्तन ये तीनों जिस एक शक्तिके संकल्पसे होते हैं, वह ईश्वर है।

इस जगत‍्को हम प्रत्यक्ष देखते हैं, अपनेको भी प्रत्यक्ष देखते हैं। यह जगत् है, यह मैं हूँ, इसपर कभी अविश्वास नहीं होता। किंतु जगत् एक कार्य है, प्रत्येक कार्यका एक कारण है, जो कार्यकी अपेक्षा अधिक सत्य है। घटकी सत्तामें कोई सन्देह हो सकता है, किंतु घटके प्रत्यक्ष होनेपर कुम्भकारकी सत्तामें सन्देह नहीं हो सकता। इसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् का, अखण्ड ब्रह्माण्डका कर्ता ईश्वर असत् कैसे हो सकता है? इसी तरह ईश्वर अकर्ता और अन्यथा कर्ताके रूपमें प्रत्यक्ष सिद्ध है। अकर्ताका अर्थ मैंने ‘विध्वंसकर्ता’ लिया है। वैसे अकर्ताका अर्थ यह भी है, ‘जो न करे’। ईश्वर कर्ता होकर भी अकर्ता है। यह बात और भी सूक्ष्मबुद्धिसे जानी जा सकती है। मैं यहाँ आपको इतनी गहराईमें उतारना नहीं चाहता।

ईश्वरकी सत्ताको प्रत्यक्ष करानेवाले और भी बहुत-से दृष्टान्त हैं। मशीनें चलती हैं, उनमें यह गतिशीलता आयी कहाँसे? विद्युत्-शक्तिसे। इसी प्रकार जगत्-यन्त्रका संचालन करनेवाली शक्तिका नाम ईश्वर है। मिट्टीका ढूहा अथवा ऊँची-नीची पर्वतमालाएँ भले ही प्राकृतिक हों; किंतु सुन्दर-सुन्दर दरवाजों और खिड़कियोंसे सुशोभित महल तो किसी चतुर कारीगरकी ही करामातें हैं। इसी प्रकार शरीररूपी गृह या नगरके, जो नव द्वारोंसे सुशोभित है, रचयिता जगदीश्वरको कैसे भुलाया जा सकता है? यहाँ केवल दिग्दर्शनमात्र कराया गया है। ईश्वरकी सत्तामें अनेकानेक शास्त्रीय प्रमाण, प्रबल तर्क, सुन्दर युक्तियाँ तथा प्रत्यक्षदर्शी संतोंकी अनुभूतियाँ प्रमाण हैं। ईश्वरके सम्बन्धमें विशेष जानना हो तो ‘कल्याण’ का ‘ईश्वरांक’ कहींसे लेकर पढ़िये।

इस प्रकार ईश्वरकी अखण्ड सत्ताको हृदयंगम करके उनके साथ कोई-न-कोई सम्बन्ध जोड़ लीजिये। वास्तवमें ईश्वर और जीवका सम्बन्ध तो नित्य जुड़ा ही हुआ है, किंतु हमें अज्ञानवश उसका अनुभव नहीं हो रहा है। हमने इस चिरन्तन सम्बन्धको तोड़ दिया है। ईश्वर हमारा माता-पिता, भाई-बन्धु, सखा-सुहृद् पति और प्रियतम सब कुछ है। अपनेको जो सम्बन्ध प्रिय लगे, वही सम्बन्ध जोड़ लीजिये। जगत‍्के लोगोंसे हमने अनेकों सम्बन्ध जोड़ रखे हैं। वे सभी सम्बन्ध अनित्य हैं, क्षणिक हैं, शरीरके साथ ही और पहले भी टूट जानेवाले हैं; किंतु ईश्वर सनातन है; उसका नेह, उसका नाता भी सनातन है, उसके टूटने और छूटनेका डर नहीं, भय नहीं। अब ईश्वर आपका है और आप ईश्वरके हैं। जिस तरह रीझें और रिझायें। शास्त्रोंद्वारा उनकी आज्ञाको जान लें। जो ईश्वरको अभीष्ट हो वही करें, जो उसे प्रिय नहीं, उसे छोड़ दें; सदा उसके अनुकूल चलें, उसीके होकर रहें। यदि ऐसा हुआ तो आपसे अधिक चिन्ता वही आपके लिये करेगा। योग-क्षेमका सारा भार अपने ऊपर लेकर वह सदाके लिये आपको निश्चिन्त कर देगा।

उस समय आप भेददृष्टिसे प्रार्थना करें या अभेददृष्टिसे, वह सब सुनेगा। सुनता तो अब भी है, पर आपको विश्वास नहीं है। यह अविश्वास उस समय नहीं रह जायगा। आपकी प्रत्येक बात सुनी जायगी। सबका उत्तर मिलेगा। तब आपको स्वयं मालूम होगा कि प्रार्थनामें कितना बल है। बड़े-बड़े धर्माचार्य और धर्मग्रन्थ जो प्रार्थनाका महत्त्व बतलाते हैं, उसका स्वयं अनुभव होने लगेगा।

आप सर्वत्र और सबमें भगवान‍्को देखें। भगवान‍्के नामोंका निरन्तर जप और स्मरण करें तथा सबेरे-शाम उपासनाके समय भगवान‍्का चिन्तन करते हुए महर्षि सुतीक्ष्णकी भाँति स्तुति करें। रामचरितमानस अरण्यकाण्डमें १० वें दोहेके बाद जो श्रीरघुनाथजीकी स्तुति सुतीक्ष्णजीके द्वारा की गयी है, उसीको आप अपने लिये प्रार्थना बना लें। इससे शीघ्र ही महान् लाभ होता दिखायी देगा।

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