सुख-शान्ति कैसे हो?
आपका कृपापत्र मिले कई दिन हो गये। उत्तर लिखनेमें देर हुई, इसके लिये क्षमा कीजियेगा। पत्र-व्यवहारमें मुझसे बड़ा प्रमाद हो जाता है और इससे मैं अपने अनेकों कृपालु मित्रोंके कष्टका कारण बनता हूँ, इसका मुझे खेद भी है; परंतु अभी मैं अपनी बुरी आदतको सुधार नहीं सका हूँ। आपका पत्र बहुत लम्बा था और मैं उसका उत्तर समझ-समझकर लिखना चाहता था, इससे और भी देर हो गयी। आपने लिखा कि ‘हमारे पड़ोसी हमें सदा सताया करते हैं तथा हमारी जातिमें लोग हमारा तिरस्कार करते हैं। यद्यपि हमारा कोई दोष नहीं है, तथापि वे ऐसा क्यों करते हैं पता नहीं है। सचमुच हम बहुत दु:खी हैं। घरके लोग भी मुझसे सहमत नहीं होते। वे भी मेरी हर एक बातका खण्डन करते हैं। मैं क्या उपाय करूँ जिससे मेरा दु:ख मिटे और मुझे शान्ति मिले।’
बात यह है कि आपकी जो शिकायत है, वह केवल आपकी ही नहीं है। जगत्में लाखों-करोड़ों नर-नारी ऐसे होंगे, जो आपकी ही भाँति दु:खी हैं। किसीकी पितासे नहीं पटती, किसीकी पुत्रसे नहीं मिलती, कहीं पति-पत्नीमें कलह होता है, कहीं गुरु-शिष्यमें झगड़ा है, कहीं सम्प्रदायोंमें कलह है और कहीं नौकर-मालिकमें अनबन रहती है। इनमें प्राय: सभी यही कहा करते हैं कि ‘हमारा कोई दोष नहीं है, हमें लोग बिना ही कारण सताते हैं’ और सभी वस्तुत: दु:खी भी रहते हैं।
संसारमें ऐसा कौन है, जो छाती ठोककर यह कह सके कि मुझसे कोई भूल नहीं होती। भूल सभीसे होती है, परंतु अपनी भूलको देखनेवाले बहुत कम हुआ करते हैं। अपनी भूल समझमें आ जाय तो फिर दूसरोंकी भूल दीखनेका अवसर बहुत ही कम रह जाय। आपको जो दूसरोंमें दोष दीखते हैं, वे सम्भवत: उनमें होंगे। पर दोष किसमें नहीं होते। परंतु बुद्धिमानी इसीमें है कि मनुष्य दूसरोंकी भूल देखनेके पहले अपनी भूलोंको देखे। आपको यह सोचना चाहिये कि आपमें कोई दोष है या नहीं, आपके स्वभावमें कहीं सुधारकी गुंजाइश है या नहीं; आप कहीं छोटी-सी बातको तिलका ताड़ बनाकर मनमें दु:खी तो नहीं होते हैं? कहीं किसी दूसरेकी चर्चा चलती हो और आप उसे अपनेपर लेकर कहीं चिढ़ तो नहीं जाते? आपके लिये कोई कुछ बात, जो सच्ची होनेपर भी प्रतिकूल हो, कहता है तो उसे आप सह सकते हैं या नहीं? आपसे मनकी बात करते लोग डरते तो नहीं हैं? आपके मनकी बात न होनेसे आप कहीं जल तो नहीं उठते? किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, इस बातको आप ठीक समझते हैं या नहीं? आप कहीं अपनी रुचिकी बातको दूसरोंसे जबरदस्ती तो नहीं मनवाना चाहते और आपका अपने पड़ोसियों, जातिवालों तथा घरवालोंके साथ ऐसा तो व्यवहार नहीं होता कि जो उनको बुरा लगनेवाला हो तथा उनका अपमान एवं तिरस्कार करनेवाला हो। मेरी तुच्छ धारणामें यदि आप जरा गहराईसे विचार करेंगे तो आपको शायद अपनी कोई भूल दिखायी पड़ जायगी और उसके सुधारमें लगते ही आपके विरोधियोंकी संख्या कम होने लगेगी।
जगत्में न तो सबके स्वभाव एक-से होते हैं और न सबकी रुचि ही एक-सी है। भिन्न-भिन्न कर्म-संस्कारोंको लेकर जीव जगत्में आते हैं और अपनी-अपनी कर्मवासनाके अनुरूप चेष्टा करते हैं। जब आप और हम सबकी रुचि नहीं रख सकते, तब आपको और हमको यह आशा क्यों करनी चाहिये कि अन्य सब लोग आपकी और हमारी बात मानें। स्वभाव बहुत कठिनतासे बदला जाता है। पर स्वभाव बदलना ही हो तो अपना ही स्वभाव बदलनेकी चेष्टा करनी चाहिये। जबतक हमारे मनमें क्रोध, शोक, दु:ख और विषाद होता है, तबतक हमारे स्वभावमें दोष है ही। इन दोषोंको मिटानेकी चेष्टा करके स्वभावको विशुद्ध करना चाहिये। दूसरोंको ठीक करनेकी अपेक्षा अपना सुधार करना है भी सहज।
जैसे मोमजामेका कोट पहन लेनेपर बरसातका जल शरीरपर नहीं लगता, बाहर-ही-बाहर बह जाता है और जैसे अभेद्य कवच धारण कर लेनेपर बाणोंका शरीरसे स्पर्श नहीं होता, वैसे ही निजदोषदर्शनका मोमजामेका कोट और क्षमारूपी अभेद्य कवच पहन लेना चाहिये। फिर आपके प्रति होनेवाली सारी आलोचनाएँ बाहर-ही-बाहर रहेंगी। आपके अंदर उनका प्रवेश होगा ही नहीं। बुराई तभी आती है, जब हम उसका ग्रहण करते हैं। हम ग्रहण न करें तो कोई भी बुराई हमारे अंदर नहीं आ सकती।
इसके सिवा यह भी विचारनेकी बात है कि सभी रूपोंमें भगवान् बसते हैं। हमारे प्रति जिसका जो व्यवहार होता है, वह असलमें भगवान्की ओरसे ही होता है। एक साधुको किसीने लाठीसे मार दिया, उनके सिरमें चोट आयी, वे बेहोश हो गये। अस्पताल पहुँचाये गये। वहाँ मरहम-पट्टी होनेपर जब होश आया, उस समय अस्पतालका एक कर्मचारी उन्हें पिलानेके लिये दूध लाया, होश-हवासकी परीक्षाके लिये जब उनसे पूछा गया कि ‘कौन दूध पिला रहा है?’ तब उन्होंने हँसकर कहा—‘जिसने लाठी मारी थी, वही दूध पिला रहा है।’
फिर, जो लोग आपकी निन्दा करते हैं, वे आपके दोषोंको प्रकट करके उन्हें निकाल देना चाहते हैं, आपको उनका सचमुच उपकार ही मानना चाहिये। आपके आत्मस्वरूपकी तो कोई निन्दा कर नहीं सकता और जड शरीर निन्दनीय है ही, फिर दु:ख क्यों करना चाहिये।