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प्रेम मुँहकी बात नहीं है

प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण।....किसीके व्याख्यानको सुनकर ही उसे प्रेमी मान लेनेमें बड़ा धोखा हो सकता है। प्रेम वाणीका विषय ही नहीं है। जितना प्रेम यथार्थ और शुद्ध होता है, उतना ही उसमें त्याग अधिक होता है। वस्तुत: त्याग ही प्रेमका आधार है। प्रेममें अपने शुद्ध स्वार्थको, अपने व्यक्तिगत लाभको और अपनेको सर्वथा भूल जाना पड़ता है। प्रेमका प्रादुर्भाव होनेपर ये अपने-आप ही भूले जाते हैं। प्रेममें प्रेमास्पदसे कुछ भी पानेकी आशा नहीं रहती, वहाँ तो बस, देना-ही-देना होता है—देह-प्राण-मन ले लो, धन-ऐश्वर्य-समृद्धि ले लो, मान-यश-प्रतिष्ठा ले लो, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष ले लो; जो चाहो सो ले लो—और इस देनेमें ही परम सुख, परम संतोष मिलता है प्रेमीको। आत्मविसर्जन ही प्रेमका मूल-मन्त्र है। प्रेमास्पदका हित और सुख ही प्रेमीका परम सुख है। इस प्रकारकी स्थिति बातोंसे तो हो नहीं सकती। इसके लिये त्याग चाहिये। आपने व्याख्यान सुन लिया, प्रेमकी महिमा सुन ली, कभी एक-दो बूँद आँसू देख लिये और किसीको प्रेमी मान लिया। यह ठीक नहीं है। प्रेमका पता तो तब लगेगा, जब उसकी प्रत्येक क्रियामें आपको त्यागकी अनुभूति होगी। बहुत-से स्वार्थी लोग प्रेमकी व्याख्या इसीलिये किया करते हैं कि लोग उनके प्रेमी बनें और वे उनके प्रेमास्पद प्रियतम बनें। अर्थात् लोग अपना सर्वस्व उन्हें अर्पण कर दें। यह प्रेमके नामपर लोगोंको ठगना है। यहाँ नीच काम ही प्रेमकी पोशाक पहनकर आता है। असलमें प्रेमका व्याख्यान नहीं होता; प्रेमका तो आचरण होता है और वह किया नहीं जाता, होता है—बरबस होता है; क्योंकि प्रेमीसे वैसा किये बिना रहा नहीं जाता। प्रेमास्पद उसे भले ही न चाहे, बदलेमें प्रेम न करे, उसके प्रेमका तिरस्कार करे, उसे ठुकरा दे, पर प्रेमीके पास इन सब बातोंकी ओर देखनेके लिये चित्त ही नहीं है। उसका चित्त तो अपने प्रेमास्पदमें सहज ही लगा है।

‘मैं किसीका प्रेमास्पद बनूँ—प्रेमीका उपास्य बनूँ—मेरे प्रेमी लोग मुझे अपना प्रेमदान देकर आप्यायित करें।’ ऐसी यदि मनमें चाह है तो समझना चाहिये कि हमारा मन नीच स्वार्थके कलंकरूप कामके वश हो रहा है और भोले लोगोंको प्रतारित करना चाहता है। ऐसी स्थितिमें सावधान हो जाना चाहिये। प्रेमका कहीं यदि उपदेश होता है तो वह अपने लिये ही होता है कि ‘मैं ऐसा प्रेमी बनूँ, मैं ऐसा त्यागपूर्ण आचरण करूँ, जिससे मेरा पवित्र प्रेम खिल उठे।’.........शेष भगवत्कृपा।

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