श्रीकृष्ण-भक्तिकी प्राप्ति और काम-क्रोधके नाशका उपाय
प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण। पत्र मिला। धन्यवाद। आप श्रीभगवान्को ही गुरु मानकर पूर्ण श्रद्धा और विश्वासके साथ भजन करें। इसीसे आपका परम कल्याण होगा। उद्धार करनेकी शक्ति भगवान्में ही है। भगवान् किसीके अधीन नहीं हैं। वे स्वयं ही कृपा करके दर्शन देते और प्राप्त होते हैं। आप यह भरोसा छोड़ दें कि कोई दूसरा व्यक्ति आपको भगवान्की प्राप्ति करा देगा। आपको स्वयं ही इसके लिये प्रयत्न करना होगा। साधन-भजनके द्वारा अपनेको प्रभु-प्राप्तिका अधिकारी बना लेना होगा।
श्रीकृष्णकी अनन्य भक्तिका उपाय यही है कि आप श्रीकृष्णको ही अपना सर्वस्व मानें। माता, पिता, भाई, बन्धु, सखा, स्वामी तथा प्रियतम आदि जितने भी नेह-नाते हैं, सब भगवान् श्रीकृष्णसे ही जुड़ जायँ। अपना यह जीवन श्रीकृष्णके चरणोंमें पूर्णत: समर्पित हो जाय। उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि सब कुछ श्रीकृष्णके लिये हो, उनकी प्रसन्नताके लिये हो। श्रीकृष्णके हाथका यंत्र बन जाइये। जिस प्रकार सूत्रधार पुतलीको जैसे नचाता है, वैसे ही वह नाचती है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण जैसे रखें, वैसे ही रहिये; जो करावें, वही कीजिये। श्रीकृष्णका हृदय गीता है। गीताके अनुसार अपना जीवन बनाइये। गीताका सदा स्वाध्याय कीजिये।
काम-क्रोधको नष्ट करनेका उपाय गीतामें बताया गया है। भगवान्ने कहा है—‘काम और क्रोधकी उत्पत्ति रजोगुणसे होती है; ये मनुष्यके बहुत बड़े शत्रु हैं। इन्द्रिय, मन और बुद्धि—ये ही इनके निवासस्थान हैं। ये ज्ञानको ढक लेते हैं और मनुष्यको मोहमें डाल देते हैं। परंतु मनुष्यका आत्मा मन-बुद्धि आदि सबसे परे है। अत: वह इन सबका शासक है।’ वह इन्द्रिय, मन-बुद्धि आदिको अपने वशमें कर ले तो इन काम-क्रोधादिके टिकनेके लिये कोई स्थान नहीं मिल सकता। जितने विषय-भोग हैं, सब-के-सब आपातरमणीय, नश्वर एवं दु:खरूप हैं। यह समझ लेनेपर काम-विकार नष्ट हो जाता है। संसारके जितने प्राणी हैं, सबके आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं; उनकी सब प्राणियोंमें स्थिति है। यह जानकर जो सर्वत्र अपने प्रभुका दर्शन करता है, वह किसपर क्रोध करेगा? अज्ञानके ही कारण मनुष्य काम-क्रोधके वशमें आता है। ज्ञानके द्वारा वह काम-क्रोधको तत्काल नष्ट कर सकता है।
आपके अन्यान्य प्रश्नोंमेंसे कुछका उत्तर यह है—
-
भजन बंद कर देनेसे काम-क्रोध, विषयचिन्तन आदि शान्त हो जाते हैं और भजन आरम्भ कर देनेपर ये पुन: उभड़ आते हैं, यह आपका अनुभव विचित्र एवं विपरीत है। वास्तवमें मनुष्यके भीतर दोष और गुण सभी संस्काररूपसे रहते हैं; अनुकूल अवसर एवं वातावरण पाकर कभी दोष प्रकट होते हैं, कभी गुण। दोषोंका समूल उन्मूलन करना हो तो भजन कभी बंद न करें। भजन अन्त:करणको शुद्ध करके उसके दोषोंको शान्त कर देता है। इस समय जो काम-क्रोध आदि विकार शान्त हैं, वह पहले किये हुए भजनका ही प्रभाव है। जैसे कोई-कोई दवा रोगको उभाड़कर शान्त करती है, उसी प्रकार कभी-कभी भजनसे भीतरके दोष उभड़ते हैं, वह उभाड़ उनके नाशके लिये ही होता है।
-
गीता अध्याय १६ श्लोक १से ३ तक देखिये। उसमें दैवीसम्पत्तिका वर्णन है। ‘गीता-तत्त्वविवेचनी’ में विशद व्याख्या है।
-
देवता लोग भजनमें सहायकमात्र हो सकते हैं। भगवान्की भक्ति तो भगवान्की दयासे ही मिलती है।
-
परमात्माकी प्राप्ति भी परमात्माकी कृपासे ही होती है। देवताओंका भगवान् पर कोई वश नहीं।
-
भगवान्से कुछ भी न माँगना, यही सबसे उत्तम है। उनसे उनकी अनन्य भक्ति माँगना—यह निष्काम साधना ही है। सकाम भाव तो तब आता है, जब साधक भगवान्से कोई लौकिक वस्तु माँगता है।
-
भगवान् अन्तर्यामी हैं, वे सब कुछ देखते और जानते हैं—यह विश्वास रखनेवाला साधक भगवान्से किसी वस्तुके लिये प्रार्थना नहीं करता।
-
काम-क्रोध जबतक नष्ट नहीं किये जाते, तबतक वे अवसर देख-देखकर मनुष्यको अपने वशमें करते ही रहते हैं। अत: उपर्युक्त रीतिसे उनका विनाश कर डालनेकी ही चेष्टा होनी चाहिये।
-
आपके मनमें भक्तिकी इच्छा है किंतु प्रबल नहीं; अन्यथा वह होती ही। जब विषयोंकी इच्छा प्रबल होती है, तब अन्य इच्छाओंको दबा देती है। अत: भक्तिकी इच्छाको ही प्रबल बनाइये। इसका उपाय है—नाम-जप, सत्संग, भगवत्सेवाके भावसे जीवमात्रकी प्रेमपूर्वक सेवा, भगवान्की दया एवं करुणासे प्रेरित लीलाकथाओंका श्रवण-पठन आदि।