प्रियतम प्रभुका प्रेम
सादर जय श्रीकृष्ण! आपका कृपापत्र मिला। जब उन ‘प्रियतमने आपके मनसे संसारको निकाल दिया, तब फिर उसमें रहा ही क्या। वह सूना स्थान तो फिर उन्हींका है। वे दूसरेके साथ रहना पसंद नहीं करते, इसीसे जो उनको चाहता है, उसको अपने मनसे उनके अतिरिक्त सभीको निकाल देना पड़ता है। आपके कथनानुसार तो उन्होंने ही आपके मनको संसारसे रहित कर दिया है। फिर घबरानेकी कोई बात नहीं है। प्रेम मिलेगा ही। असलमें प्रेम न होता तो संसार निकलता ही कैसे। परन्तु प्रेमका स्वभाव ही ऐसा होता है कि उसमें होनेपर भी ‘न होनेका’ ही अनुभव हुआ करता है। नित्य संयोगमें वियोगकी अनुभूति प्रेम ही कराता है और वह ‘वियोग’ समस्त योगोंका सिरमौर होता है। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपके मनमें उनका प्रेम पानेके लिये इतनी तड़प है और आप इसके लिये बहुत दु:खी हैं। इस ‘तड़प’ और इस ‘दु:ख’ से बढ़कर उनके प्रेमकी प्राप्तिका और क्या उपाय हो सकता है? आप इस वियोगमय योगका आश्रय लिये रहिये। यही तो प्रेमास्पदकी प्रेमोपासना है—नित्य जलते रहना और उस जलनमें ही अनन्त शान्तिका अनुभव करना।
प्रेमास्पद और प्रेमीके बीचमें तीसरेका क्या काम? मुझसे कोई प्रार्थना न करके आप सीधे उन्हींसे प्रार्थना कीजिये। आपके पत्रके अनुसार तो आपमें उनमें ‘हजारों लड़ाइयाँ हो चुकी हैं।’ ऐसी लड़ाइयाँ वस्तुत: प्रार्थनाके स्तरसे बहुत ऊँचेपर हुआ करती हैं। उनपर जो गुस्सा आता है, यह भी तो प्रेमका ही एक अंग है। फिर यह कैसे माना जाता है कि प्रेम नहीं है। ‘वे प्रेम देकर चाहे जितना जुल्म करें’ जब यह आपकी अभिलाषा है, तब आप उनके जुल्ममें प्रेमका दर्शन क्यों न करें? यदि जुल्ममें ही उन्हें मजा आता है, यदि तरसानेमें ही उन प्रियतमको सुख मिलता है तो बड़ी खुशीकी बात है। वे पराये होते तो भला जुल्म करते ही कैसे? प्रेम न होता तो तरसाते ही कैसे? वहाँ तो यह प्रश्न ही नहीं होता। मेरी राय माँगी सो मेरी राय तो यही है कि बस, उन्हींपर निर्भर कीजिये, उन्हींसे प्रार्थना कीजिये, उन्हींको कोसिये और उन्हींसे लड़िये। कभी हिम्मत न हारिये—कभी निराश न होइये। वे छिप-छिपकर यों ही ‘झाँका’ करते हैं, स्वयं पकड़में न आकर पहले यों ही ‘फँसाया’ करते हैं, वे लिया ही करते हैं देते नहीं। परंतु यह सच मानिये उनका यह छिप-छिपकर झाँकना आपके हाथोंमें पड़नेके लिये ही होता है, वे फँसनेके लिये फँसाया करते हैं और अपना सर्वस्व देनेके लिये ही ‘लिया’ भी करते हैं। जय श्रीकृष्ण!