प्रेमास्पद और प्रेमी
महोदय! सादर हरिस्मरण। कृपापत्र मिला। प्रेम वह वस्तु है, जो प्रेमास्पदको प्रेमी और प्रेमीको प्रेमास्पदका पद प्रदान कर देता है। जिन भगवान्को प्रेमास्पद मानकर भक्त अपना सर्वस्व न्योछावर करके उनसे प्रेम करता है, प्रेमकी प्रगाढ़ता होते-होते यहाँतक होती है कि फिर स्वयं भगवान् उस प्रेमीको अपना प्रेमास्पद मानकर उसकी चाह करने लगते हैं और ऐसे तन्मय हो जाते हैं कि सर्वत्र उन्हें उस प्रेमीकी ही मूर्ति दिखायी पड़ती है। सदा-सर्वदा श्रीमती राधाजीका चिन्तन करते-करते एक बार श्रीकृष्ण इतने तन्मय हो गये कि उन्हें सर्वत्र श्रीराधाके ही दर्शन होने लगे।
प्रासादे सा दिशि दिशि च सा
पृष्ठत: सा पुर: सा
पर्यङ्के सा पथि पथि च सा
तद्वियोगातुरस्य।
हंहो चेत: प्रकृतिरपरा
नास्ति मे कापि सा सा
सा सा सा सा जगति सकले
कोऽयमद्वैतवाद:॥
‘राधाविरहसे आतुर हुए मेरे लिये महलमें राधा, रास्ते-रास्तेमें राधा, पीछे राधा, सामने राधा, पलंगपर राधा और दिशा-दिशामें राधा है। अरे चित्त! तुम्हारे लिये और कोई भी अपरा प्रकृति नहीं है, सारे जगत्में सर्वत्र ही मुझे केवल राधा-राधा-राधा-राधा ही देख रहे हो, यह कैसा अद्वैतवाद है।’