सिद्ध सखीदेह
महोदय! आपका कृपापत्र मिला। आपने भगवान् श्यामसुन्दरकी नित्यलीलामें सेवाधिकार पानेकी बातपर शंका की, सो वस्तुत: ऐसे महात्मा भक्त इस समय प्राय: बहुत ही कम हैं। तथापि ऐसा होना असम्भव नहीं है। तीन प्रकारके प्रेमी भक्त होते हैं—नित्यसिद्ध, कृपासिद्ध और साधनसिद्ध। नित्यसिद्ध वे हैं, जो श्रीकृष्णके नित्य परिकर हैं और श्रीकृष्ण स्वयं लीलाके लिये जहाँ विराजते हैं, वहीं वे उनके साथ रहते हैं। कृपासिद्ध वे हैं, जो श्रीभगवान्की अहैतुकी कृपासे प्रेमियोंका संग प्राप्त करके अन्तमें उन्हें पा लेते हैं और साधनसिद्ध वे हैं, जो भगवान्की कृपा प्राप्त करनेके लिये भगवान्की रुचिके अनुसार भगवत्प्रीत्यर्थ प्रेम-साधना करते हैं। ऐसे साधकोंमें जो प्रेमके उच्च स्तरपर होते हैं, किसी सखी या मंजरीको गुरुरूपमें वरण करके उनके अनुगत रहते हैं, ऐसे पुरुष समय-समयपर प्राकृत देहसे निकलकर सिद्ध देहके द्वारा लीला-राज्यमें पहुँचते हैं और वहाँ श्रीराधा-गोविन्दकी सेवा करके कृतार्थ होते हैं। ऐसे भक्त आज भी हो सकते हैं। कहा जाता है कि महात्मा श्रीनिवास आचार्य इस स्थितिपर पहुँचे हुए भक्त थे। वे सिद्ध सखीदेहके द्वारा श्रीराधा-गोविन्दकी नित्यलीला-दर्शनके लिये अपनी सखी-गुरुके पीछे-पीछे श्रीव्रजधाममें जाया करते। एक बार वे ऐसे ही गये हुए थे। स्थूलदेह समाधिकी भाँति निर्जीव पड़ा था। तीन दिन बीत गये। आचार्यपत्नीने पहले तो इसे समाधि समझा; क्योंकि ऐसी समाधि उनको प्राय: हुआ करती थी। परंतु जब तीन दिन बीत गये, शरीर बिलकुल प्राणहीन प्रतीत हुआ, तब उन्होंने डरकर शिष्य भक्त रामचन्द्रको बुलाया। रामचन्द्र भी उच्च स्तरपर आरूढ़ थे, उन्होंने पता लगाया और गुरुपत्नीको धीरज देकर गुरुकी खोजके लिये सिद्धदेहमें गमन किया। उनका भी स्थूलदेह वहाँ पड़ा रहा। सिद्धदेहमें जाकर रामचन्द्रने देखा—श्रीयमुनाजीमें क्रीड़ा करते-करते श्रीराधिकाजीका एक कर्ण-कुण्डल कहीं जलमें पड़ गया है। श्रीकृष्ण सखियोंके साथ उसे खोज रहे हैं; परन्तु मिल नहीं रहा है। रामचन्द्रने देखा सिद्ध-देहधारी गुरुदेव श्रीनिवासजी भी सखियोंके यूथमें शामिल हैं। तब रामचन्द्र भी गुरुकी सेवामें लगे। खोजते-खोजते कुछ देरके बाद रामचन्द्रको श्रीजीका कुण्डल एक कमलपत्रके नीचे पंकमें पड़ा मिला। उन्होंने लाकर गुरुदेवको दिया। उन्होंने अपनी गुरुरूपा सखीको दिया, सखीने यूथेश्वरीको अर्पण किया और यूथेश्वरीने जाकर श्रीजीकी आज्ञासे उनके कानमें पहना दिया। सबको बड़ा आनन्द हुआ। श्रीजीने खोजनेवाली सखीका पता लगाकर परम प्रसन्नतासे उसे चर्वित ताम्बूल दिया। बस, इधर श्रीनिवासजी तथा रामचन्द्रजीकी समाधि टूटी, रामचन्द्रके हाथमें श्रीजीका चबाया हुआ पान देखकर दोनोंको बड़ी प्रसन्नता हुई थी।