प्रियतमकी प्राप्ति कण्टकाकीर्ण मार्गसे ही होती है
सादर हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आपने अपनी जो परिस्थिति लिखी है, वह वास्तवमें बहुत विचारणीय है। श्रीभगवान् सब प्रकार सबका मंगल ही करते हैं। उनके मंगल-विधानमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये। यह दूसरी बात है कि कभी उस विधानमें बड़ी कटुता जान पड़ती है। भगवत्प्रेम बड़ी दुर्लभ वस्तु है। इसे पानेके लिये अपना सब कुछ बलिदान करना होता है। भक्तोंको बड़ी कठोर परीक्षाओंमें होकर निकलना पड़ता है। बिना तपाये स्वर्णमें कान्ति भी तो नहीं आती। प्रह्लाद, गोपीजन, मीराँ आदि सभी भक्तोंको क्या-क्या कष्ट नहीं सहने पड़े। अत: इन विघ्न-बाधाओंसे आप घबरायें नहीं। प्रियतमकी प्राप्ति बड़े कण्टकाकीर्ण मार्गसे होती है। योग और भोग एक स्थानमें नहीं रह सकते। अत: सच्चे प्रेमी इन आपत्तियोंकी कोई परवा नहीं किया करते। अपने प्रियतमसे दृष्टि हटानेकी उनमें शक्ति ही कहाँ होती है। वे तो सब प्रकार उसीके हो रहते हैं। अत: परिजन और गुरुजन कुछ भी करें या कहें, उन्हें उसकी परवा नहीं होती। वे खुशी-खुशी सब कुछ सह लेते हैं और उन आपत्ति-विपत्तियोंको वे अपने प्रियतमकी छेड़खानी समझकर किसी प्रकार उनपर खीझते भी नहीं हैं।
यह तो हुई सिद्धान्तकी बात। सच्चे प्रेमियोंके लिये दो ही मार्ग हैं—वह या तो सब कुछ सहन करे या सबको त्याग दे। यदि ऐसा करनेकी अपनी शक्ति न हो तो युक्तिसे काम लेना चाहिये। यदि बाह्य पूजा-पाठसे घरवालोंकी अप्रसन्नता होती है तो न सही, आपके हृदयमें भगवान्के प्रति जो प्रेम है, उसे कौन छीन सकता है? आप हृदयसे ही उनका चिन्तन करें और जब अवकाश मिले, तब कातर कण्ठसे प्रार्थना करें। ऐसा करते हुए यदि अपने सेवाभावसे आप अपने पति और अन्य परिजनोंको अपने अनुकूल कर लेंगी तो धीरे-धीरे फिर वे आपके मार्गमें विघ्न नहीं डालेंगे। अत: अपने मनकी जैसी स्थिति हो उसके अनुसार आप प्रह्लाद, मीराँ आदिकी तरह सत्याग्रहका अथवा गुरुजनोंके साथ सहयोगका मार्ग अवलम्बन कर सकती हैं। यह अवश्य याद रखना चाहिये कि अपने सच्चे सम्बन्धी तो श्रीभगवान् ही हैं। अत: उन्हें किसी भी प्रकार भूलना ठीक नहीं है।