साधकोंके भेद
सप्रेम हरिस्मरण! आपका कृपापत्र मिला। साधकोंके साधारणत: ग्यारह भेद किये जाते हैं—
(१) भगवान्की प्राप्ति तो चाहता है परंतु विषय-भोगोंमें आसक्ति बहुत ज्यादा है। विषयभोगोंकी प्राप्तिमें बाधा हो तो वह भगवान्की चाह छोड़ देगा। असलमें वह कभी भगवान्का भजन करता है तो विषयभोगोंकी प्राप्तिके लिये ही करता है।
(२) विषयभोगोंकी प्राप्ति भी चाहता है और भगवान्की भी। दोनोंमें बराबर-सा भाव है।
(३) भगवान्की प्राप्ति तो चाहता है पर न तो त्याग है तथा न साधनतत्परता ही। किसीकी कृपासे, बिना ही कुछ किये हो जाय तो ठीक है।
(४) भगवान्के लिये प्रयत्न तथा साधना करता है, परंतु जल्दी ही ऊब जाता है।
(५) भगवान्के लिये साधना करता है; परंतु प्राप्तिमें सन्देह है।
(६) भगवान्के लिये पूरी तौरसे साधना करता है और विश्वास भी है; परंतु त्यागके लिये पूरी तैयारी नहीं है।
(७) भगवान्के लिये विश्वासपूर्वक सब कुछ त्याग कर साधना करता है; परंतु मान-बड़ाईका मोह कुछ शेष है।
(८) भगवान्के लिये विश्वासपूर्वक सब कुछ त्याग कर साधना करता है, परंतु बार-बार मार्ग बदला करता है।
(९) भगवान्के लिये विश्वासपूर्वक सब कुछ त्याग कर और एक लक्ष्य होकर साधनामें संलग्न है।
(१०) भगवान्की अप्राप्ति असह्य है। क्षणभर भी चैन नहीं पड़ती, सब कुछ करनेको तैयार है। उसीमें लगा है।
(११) भगवान्का भजन अत्यन्त प्रेम और निष्कामभावसे करता है। भजनके लिये ही भजन करता है। भगवान् जब जो करें, उसीमें आनन्दका अनुभव करता है।
इनमें उत्तरोत्तर ऊँची श्रेणीकी कल्पना की गयी है। वस्तुत: भगवत्प्राप्तिका कोई समय निश्चित नहीं है। साधनकी तीव्रता, विश्वासकी दृढ़ता, प्राप्तिकी उत्कट इच्छा, भगवान्की इच्छापर संतोष, भजनकी अखण्डता, विशुद्ध प्रेम और निष्कामभाव आदिके तारतम्यसे शीघ्रता या विलम्ब हो सकता है। भगवान् ऐसी वस्तु नहीं हैं, जिनकी प्राप्तिके लिये कोई निश्चित समय तथा साधनकी अवधि हो। वे एक क्षणमें मिल सकते हैं और अनन्त जन्मोंतक भी नहीं। साधकके भावानुसार ही समयकी देर-सबेर होती है। मानसमें भगवान् शंकरजीके वचन हैं—
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
तन्त्र (काली-तन्त्र और शिवसंहिता आदि)-में मृदु, मध्य, अधिमात्र और अधिमात्रतम भेदसे चार प्रकारके साधक बतलाये गये हैं। वहाँ सिद्धि-प्राप्तिके समयका भी उल्लेख है; पर यह सिद्धि अन्य प्रकारकी भी हो सकती है तथा भाव एवं इच्छाकी उत्कटताके अनुसार समयकी अवधिमें परिवर्तन भी हो सकता है। इनके लक्षण ये हैं—
मृदु-साधक—बहुत मन्द उत्साहवाला, प्रतिभाहीन, रोगी, गुरुनिन्दक, लोभी, दुष्कर्मी, अधिक खानेवाला, स्त्रीके अधीन, चंचलचित्त, परिश्रमसे बचनेवाला, पराधीन, निर्दयी, पापपरायण और अल्पवीर्य। ऐसा साधक ‘मृदु-साधक’ कहलाता है। यह बारह वर्ष लगातार विशेष यत्नके साथ साधन करनेपर उत्तरोत्तर उन्नति करता हुआ सिद्धि-लाभ करता है।
मध्य-साधक—सर्वत्र समबुद्धि, क्षमाशील, पुण्याभिलाषी, प्रिय बोलनेवाला, जितेन्द्रिय, गुरु-शास्त्रमें श्रद्धालु, सभी कामोंमें मध्यरूपसे चतुर और किसी भी कार्यमें पूरा लिप्त नहीं। ऐसा साधक ‘मध्य-साधक’ कहलाता है और लगातार साधनामें लगे रहनेसे इसे नौ वर्षमें सिद्धि प्राप्त होती है।
अधिमात्र-साधक—स्थिरबुद्धि, मनोलयके साधनमें लगा हुआ, स्वाधीन, वीर्यशाली, महाशय, दयाशील, क्षमावान्, सत्यनिष्ठ, शौर्यसम्पन्न, गुरुसेवापरायण, साधनमें नियमितरूपसे पूर्णतया लगा हुआ और महान् बुद्धिमान्। ऐसे साधकको ‘अधिमात्र-साधक’ कहते हैं और यह लगातार साधनमें लगा रहनेसे छ: वर्षमें सिद्धि-लाभ करता है।
अधिमात्रतम-साधक—महान् बलवान्, महान् उत्साही, मनोज्ञ, महान् शौर्यशाली, शास्त्रका ज्ञाता, अभ्यासपरायण, मोहरहित, व्याकुलतारहित, युवक, मिताहारी, जितेन्द्रिय, विशुद्ध आचरणवाला, सुदक्ष, दाता, सबके प्रति अनुकूल, अधिकारी, स्थिरचित्त, धीमान्, शरणागतपालक, सदा संतुष्ट, यथेच्छ स्थानमें स्थित, क्षमाशील, निर्भीक, सुशील, धर्मपरायण, गुप्तरूपसे निरन्तर साधनमें लगा हुआ, प्रियवादी, शान्त, परम विश्वासी, सत्यवादी, देवगुरुपूजन-परायण, लोकसंगसे विरक्त, व्याधिरहित, सर्वसाधनविषयोंमें आगे बढ़ा हुआ और परोक्षज्ञानी। ऐसे साधकको ‘अधिमात्रतम-साधक’ कहते हैं। ऐसा अधिकारी लगातार साधन करे तो तीन ही वर्षमें सिद्धि पा जाता है।
इन सबमें विश्वास और श्रद्धा ही सबका मूल है। श्रद्धाके साथ साधनरूप क्रिया की जाय तो समयपर सिद्धिकी प्राप्ति होती ही है—
न वेषधारणं सिद्धे: कारणं न च तत्कथा।
क्रियैव कारणं सिद्धे: सत्यमेतन्न संशय:॥
‘न तो कपड़े रँगनेसे सिद्धि होती है, न बहुत बात बनानेसे ही। साधनरूप क्रिया ही सिद्धिका असली कारण है—इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।’
असलमें ऊँचा साधक वही है, जो या तो सर्वथा और सर्वतोभावसे अपनेको भगवान् पर छोड़ दे और निरन्तर नये-नये उत्साहसे भजनमें लगा रहे। या जिसकी अनन्य उत्कण्ठा भक्त वृत्रासुरके कथानुसार इस प्रकारसे बढ़ जाय—
न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठॺं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
समञ्जस त्वा विरहय्य काङ्क्षे॥
अजातपक्षा इव मातरं खगा:
स्तन्यं यथा वत्सतरा: क्षुधार्ता:।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्॥
(श्रीमद्भा० ६।११।२५-२६)
‘मैं तुम्हें छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्माका पद, सार्वभौमपद, पातालका आधिपत्य, योगकी सिद्धियाँ और पुनर्जन्मरहित मोक्षपदकी भी इच्छा नहीं करता। कमलनयन! जैसे बिना पंखके पक्षियोंके बच्चे अपनी माँके लिये, जैसे भूखसे पीड़ित छोटे बछड़े अपनी माता गौका स्तन पीनेके लिये और जैसे पतिव्रता स्त्री अपने परदेश गये हुए पतिसे मिलनेके लिये व्याकुल रहती है, वैसे ही मेरा मन तुम्हें देखनेके लिये व्याकुल है।’