संकटमें कोई सहायक नहीं होगा
प्रिय महोदय, सप्रेम हरिस्मरण! आपका कृपापत्र मिला। समय तो बीता जा ही रहा है। काल हमारी प्रतीक्षा क्यों करेगा? मृत्यु निश्चय ही समीप आ रही है। सच्ची बात तो यह है कि हमलोगोंको सब कामोंसे छुट्टी लेकर एक इसी काममें लग जाना चाहिये सब प्रकारसे, सब ओरसे और सारी इच्छा तथा क्रिया-शक्तिको बटोरकर। यहाँके ये भोग-वैभव, ये मित्र-बन्धु, ये मान-सम्मान और ये पद-अधिकार आपके क्या काम आयेंगे? इनमेंसे न तो कोई साथ चलेगा, न मृत्युसे बचा सकेगा और न विपरीत कर्मफलके भोगसे ही। आप संसारकी पीड़ासे तड़पते-कराहते रहेंगे, कोई आपकी तनिक भी सहायता नहीं कर सकेगा। आप जानते हैं, देख चुके हैं—आपके.....बीमार थे। कितना संकट था उनको। आप हृदयसे चाहते थे—किसी प्रकार उनका संकट दूर हो। किसी भी खर्चसे हो। पर बताइये, आप क्या कर सके? यही परतन्त्र दशा कर्मफल-भोगमें सबकी है। मानव-शरीर सचमुच बहुत दुर्लभ है। यह भगवद्भजनके लिये ही प्राप्त हुआ है। विषयोंका सेवन तो न मालूम कितनी असंख्य योनियोंमें किया जा चुका है। अब इस मनुष्य-जीवनमें तो सब बातोंको भुलाकर—सबको छोड़कर एकमात्र श्रीहरिके चरणारविन्द-युगलका ध्यान और उनके पवित्र नामों, गुणों और लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और चिन्तन ही करना चाहिये। संसारके भोगोंसे चित्त उपरत हो जाय और भगवान्की एकरस अखण्ड मधुर स्मृति हो, ऐसी साधना करनी चाहिये।
आप क्यों भूल रहे हैं, क्यों इस प्रमादमें लगे हैं। अब आपको संसारमें क्या प्राप्त करना है। जो कुछ प्राप्त किया है, उससे आपको वास्तविक सुख-शान्ति मिली है क्या? फिर अधिक प्राप्त करनेपर क्या होगा? आप तो लिखते हैं, मेरी सुख-शान्ति घटी है, तब इस सुख-शान्ति घटानेवाले क्षेत्रमें आप क्यों सिर पटक-पटककर परेशान हो रहे हैं? छोड़िये इस झंझटको। मत्त मधुप बनकर लग जाइये भगवान्के परम मंगलमय परम मधुर चरणारविन्द-मकरन्दके पानमें। भगवान् बड़े दयालु हैं, बड़े प्रेमी हैं, वे आपके हृदयका भाव ज्यों ही जानेंगे—और उनके जाननेमें देर होती नहीं—त्यों ही आपको अपने नित्य नव दिव्य मधुर सुधारससे आप्लावित कर देंगे। आप निहाल हो जायँगे। मानव-जन्म सार्थक हो जायगा। कृतकृत्य हो जायगा।