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उपदेशक बननेके पहले योग्यता-सम्पादन करना आवश्यक है

सप्रेम हरिस्मरण! आपका बहुत लम्बा-चौड़ा पत्र मिला। आपके चित्तमें बहुत उत्साह है और आप पढ़ना छोड़कर तथा घरके काम-काजका भी त्याग कर समाज और देशकी सेवा करना चाहते हैं, एवं गाँव-गाँव घूमकर जनताको सदुपदेश देना चाहते हैं। सो यह तो बहुत ही श्रेष्ठ भाव है। जो मनुष्य अपनेको सेवाव्रती बनाना और नि:स्वार्थभावसे समाज एवं देशकी सेवा करना चाहता है, वह धन्य है। ऐसा होते हुए भी मेरी रायमें अभी आपको पढ़ना चाहिये तथा घरका काम-काज भी नहीं छोड़ना चाहिये। आप अभी अल्पवयस्क हैं और आपकी बुद्धि भी अभी स्थिर नहीं है। आप यह भी स्वीकार करते हैं कि मनमें बहुत बार पापभावना भी आती है। असत्य, कपट तथा काम-क्रोध भी हैं ही। द्वेष-दम्भके कार्य भी आपसे होते हैं तथा भगवान‍्की ओर वैसा आपका आकर्षण भी नहीं है। भजन आपसे बहुत ही कम बनता है। ये सभी बातें आपने लिखी हैं। ऐसी अवस्थामें अभी आपको यह चाहिये कि आप स्वयं पहले देश तथा समाजकी सेवा करनेके योग्य बनें। इसके लिये पहले अपनी समुचित सेवा करें। पढ़-लिखकर तथा अपने शास्त्रोंका यथेष्ट ज्ञान प्राप्त कर ऐसी योग्यता प्राप्त कर लें कि जिससे आप शास्त्रानुसार लोगोंको अच्छी-से-अच्छी बात सुन्दर भाषामें और आकर्षक रीतिसे भलीभाँति समझा सकें तथा उनपर अपने भाषणका प्रभाव डाल सकें। इसके साथ ही यह भी परम आवश्यक है कि आप अपने मनकी पापभावनाको समूल नष्ट कर दें; असत्य, कपट तथा काम-क्रोधसे सर्वथा छूट जायँ; द्वेष-दम्भ भी आपमें सर्वथा न रहें; भगवान‍्के प्रति आपका सच्चा आकर्षण हो और भगवान‍्के मंगलमय भजनमें आपकी असीम अभिरुचि हो। जब ये बातें आपमें आ जायँगी, सचमुच तभी आप सच्चे सेवाव्रती बन सकेंगे, तभी आपके द्वारा देश तथा समाजकी यथार्थ सेवा होगी एवं तभी आपको किसीके प्रति उपदेशादि देनेका अधिकार प्राप्त होगा। आपने जो ‘समाचारपत्र’ निकालनेकी इच्छा प्रकट की है, सो समाचारपत्र निकालकर उसके द्वारा लोगोंको उपदेश देनेका अधिकार भी आपको वस्तुत: तभी प्राप्त होगा।

दूसरेका सुधार होना—उसकी बुराइयोंका दूर होना आवश्यक है और उसमें हमारे द्वारा जितनी सेवा हो, उतना ही उत्तम है; परंतु दूसरोंकी बुराई वही निकाल सकता है, दूसरोंका सुधार वही कर सकता है, जो स्वयं बुराइयोंसे रहित होकर सर्वथा सुधर गया हो। जनताको उपदेश देकर उनकी सेवा करना बहुत बड़े दायित्वका कार्य है। दूसरेके घरका कूड़ा साफ करना पुण्य है, पर वह कूड़ा हम तभी साफ कर सकेंगे, जब हमारा झाड़ू साफ होगा, झाड़नेकी कला हम जानते होंगे और कौन कूड़ा है तथा कौन किसके लिये कामकी चीज है, इसको भलीभाँति जान सकेंगे। तीनोंमेंसे एक बात भी नहीं होगी, तो किसीका सुधार करने जाकर हम उसका बिगाड़ कर देंगे। हमारे झाड़ूमें यदि गंदा मैला लगा होगा तो हम दूसरोंके घरकी धूल झाड़नेके बदले वहाँ गंदा मैला फैला देंगे। झाड़ना नहीं जानते होंगे तो इकट्ठे कूड़ेको उलटे इधर-उधर बिखेर आयेंगे और कौन कूड़ा है—इस बातको नहीं जानेंगे तो किसीके बड़े ही कामकी आवश्यक वस्तुको हम कूड़ा समझकर फेंक देंगे और उसकी बड़ी हानि कर देंगे—उसके जीवनकी जड़ ही काट डालेंगे।

मनुष्यकी वाणीसे तथा क्रियासे वही वस्तु प्रकट होती है, जो उसके हृदयमें होती है। मनुष्य चाहे कितना भी कपट-दम्भ करे, हृदयका असली भाव किसी-न-किसी क्रियामें प्रकट हो ही जाता है। अतएव जबतक हमारे हृदयमें काम-क्रोध, असत्य-कपट, द्वेष-दम्भ, हिंसा-प्रतिहिंसा, लोभ-मोह, कामना-वासना, अभिमान-अहंकार, ममता-माया आदि दोष वर्तमान हैं, जबतक हमारे द्वारा पाप बनते हैं और उनमें हमें रस आता है, तबतक हम दूसरोंको क्या देंगे? ऐसे हृदयको लेकर किसीका सुधार करने जायँगे तो सिवा अपने हृदयकी इस गंदगीको वहाँ भी फैला देनेके और उसका क्या उपकार करेंगे। यदि जनतामें वैसी बुरी बातें पहले न भी रही होंगी तो हमारी वाणी और लेखनीसे निकली हुई बुरी बातें उनमें आ जायँगी, वहाँके वातावरणमें हम एक नया क्षोभ उत्पन्न कर देंगे। जागृति, क्रान्ति, सुधार, अधिकार, उन्नति, शिक्षा, बुद्धिवाद, व्यक्ति-स्वातन्त्र्य और लोकतन्त्र आदि मनोहर नामोंपर हमलोगोंमें द्रोह, द्वेष, कर्तव्यशून्यता, प्रमाद, अश्रद्धा, नास्तिकता, उच्छृंखलता, स्वेच्छाचारिता, असंयम, असत्य, स्तेय, अहंकार, हिंसा आदि अनेकों दोषोंको बढ़ाकर परस्पर दलबन्दियाँ और उन्हें एक-दूसरेको गिरानेके प्रयत्नमें लगाकर उनके लोक-परलोक दोनोंको नष्ट कर देंगे, जैसा कि आजकल न्यूनाधिकरूपमें संसारमें प्राय: सर्वत्र हो रहा है। इसका एक प्रधान कारण यह भी है कि उपदेशकों, पथप्रदर्शकों और नेताओंके पवित्र और दायित्वपूर्ण स्थानोंपर ऐसे लोगोंका अधिकार हो गया है, जो स्वयं असंस्कृत, असंयमी और दायित्वज्ञानशून्य हैं। आजकी हिंसा-प्रतिहिंसामयी ध्वंसकारिणी प्रवृत्ति इसीका कुपरिणाम है। इस प्रकार सुधारके बदले बिगाड़ तो होता ही है—सफाईके बदले गंदा मैला तो फैलता ही है। साथ ही यदि कहीं सचमुच झाड़नेका काम किया जाता भी है तो वहाँ झाड़ना न जाननेसे जैसे कूड़ा इधर-उधर बिखर जाता है, वैसे ही एक या कुछ थोड़ेसे लोगोंमें रही हुई परिमित बुराई समाजभरमें फैल जाती है। चौबेजीको छब्बेजी न बनकर दूबेजी बननेको बाध्य होना पड़ता है। इसके अतिरिक्त ऐसे उपदेशकों और सुधारकोंके द्वारा अविवेकवश सुधारके नामपर समाजमें विस्तृत अमृतवल्लीपर ही भयानक विषसिंचन या उनके जीवनके मूलपर ही कुठाराघात किया जाता है। भगवद्भजन, देवपूजाराधना, शास्त्रीय आचरण, वर्णाश्रमधर्म, शौचाचार, सदाचार, संयम, मातृ-पितृ-भक्ति, पातिव्रतधर्म, ब्राह्मणमहत्ता, सात्त्विक यज्ञदानादि, सन्ध्यावन्दन, शास्त्रीय भेद, नियमानुवर्तिता एवं वंशपरम्परागत पवित्र सुप्रथाओं आदिका विरोध और ऐसे पवित्र कार्योंके प्रति लोगोंमें अश्रद्धा उत्पन्न करानेकी चेष्टा—इसी प्रकारके जीवनमूलका उच्छेद करनेवाले कुकार्य हैं, जो विपरीत शिक्षा और उच्छृंखल उपदेशादिके फलस्वरूप बड़े गर्व एवं उल्लासके साथ किये जाते हैं! इस प्रकार जनताको, खास करके अपक्वबुद्धि सरलहृदय बालकों, नवयुवकों और नवयुवतियोंको उभाड़कर सदाचारके विरुद्ध खड़े कर देना सुधारके नामपर कितना बड़ा बिगाड़ है, संस्कारके नामपर कितना भयानक संहार है! इसपर आप विचार करें।

अतएव प्रत्येक मनुष्यको आत्मसुधारके लिये प्रयत्न करना चाहिये। उन लोगोंको तो विशेषरूपसे करना चाहिये, जो समाज और देशकी सेवा करना चाहते हैं। वाणीसे या लेखनीसे वह कार्य नहीं होता, जो स्वयं वैसा ही कार्य करके आदर्श उपस्थित करनेसे होता है। यहाँतक कि फिर उपदेशकी भी आवश्यकता नहीं होती। महापुरुषोंके आचरण ही सबके लिये आदर्श और अनुकरणीय होते हैं। इसीलिये महापुरुषोंको यह ध्यान भी रखना पड़ता है कि उनके द्वारा ऐसा कोई कार्य न हो जाय, जो नासमझीके कारण जगत‍्के लिये हानिकर हो। इसलिये वे उन्हीं निर्दोष कर्मोंको करते हैं, जो उनके लिये आवश्यक न होनेपर भी जगत‍्के लिये आदर्शरूप होते हैं और करते भी इस प्रकारसे हैं, जिनका लोग सहज ही अनुकरण करके लाभ उठा सकें। स्वयं सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनसे गीतामें इसी दृष्टिसे कहा है—

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥
(३। २१—२४)

‘श्रेष्ठ पुरुष जैसा-जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह अपने आचरणसे जो कुछ प्रमाण कर देते हैं—जैसा आदर्श उपस्थित करते हैं, सारा जनसमुदाय उसीका अनुकरण करने लगता है। अर्जुन! मेरे लिये तीनों लोकोंमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है और न कोई ऐसी वस्तु ही है जिसे मुझको प्राप्त करना हो, एवं जो मुझे प्राप्त न हो, ऐसा आप्तकाम एवं पूर्णकाम होनेपर भी मैं कर्माचरण करता हूँ। यदि कदाचित् मैं सजग रहकर (जगत‍्को लाभ पहुँचानेवाले) कर्मोंका आचरण न करूँ तो बहुत बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि भैया अर्जुन! लोग तो मुझे श्रेष्ठ मानकर मेरे पीछे-पीछे ही चलते हैं। मेरे कर्म न करनेका फल यह हो कि सब लोग नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताका उत्पन्न करनेवाला और इस सारी प्रजाका उच्छेद करनेवाला बनूँ।’

इससे पता लगता है कि अपनेको श्रेष्ठ माननेवाले अगुआ पुरुषपर कितना बड़ा दायित्व है और उसे अपने दायित्वका निर्वाह करनेके लिये कितनी योग्यता प्राप्त करनी चाहिये, एवं किस प्रकारसे स्वयं आचरण करके लोगोंके सामने पवित्र आदर्श उपस्थित करना चाहिये।

फिर, एक बात यह भी है कि व्यक्तियोंके समूहको लेकर ही समाज बनता है। यदि एक व्यक्ति यथार्थरूपमें सुधर गया तो समाजका एक अंग सुधर गया। यों सभी व्यक्ति अपना-अपना सुधार करने लगें तो सारा समाज अपने-आप सुधर जाय। एवं यदि इसके विपरीत सभी लोग दूसरोंका सुधार करनेमें लग जायँ और अपने सुधारकी ओर ध्यान ही न दें तो किसीका भी सुधार न हो।

इसलिये मेरा आपसे यही निवेदन है कि आप दूसरोंके लिये उपदेशक बननेकी लालसाको दबाकर पहले अपनेमें योग्यता बढ़ावें, एवं अपने जीवनको परम विशुद्ध और भगवान‍्की सेवाके परायण बना दें। फिर आपके द्वारा जो कुछ होगा, सब विश्वकी सेवा ही होगी। विश्वकी सच्ची सेवा वही कर सकता है, जिसका जीवन विश्वात्मा भगवान‍्के अनुकूल होता है और जो अपनेको विश्वम्भरकी सेवामें समर्पित कर देता है।

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