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संयोगका वियोग अवश्यम्भावी है

प्रिय महोदय! सादर सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। संसार परिवर्तनशील है, यहाँकी कोई भी वस्तु नित्य स्थिर नहीं है, जो जन्मा है सो मरेगा ही, उन्नतका पतन निश्चय होगा ही। संचितका क्षय अनिवार्य है। संयोगका एक दिन वियोग अवश्य होना है। जो इस प्रकार समझ लेते हैं, वे विज्ञ पुरुष यहाँके इस लाभ-हानिमें हर्ष और शोकके वशमें नहीं होते—

जातस्य नियतो मृत्यु: पतनं च तथोन्नते:।
विप्रयोगावसानस्तु संयोग: सञ्चय: क्षय:॥
विज्ञाय न बुधा: शोकं न हर्षमुपयान्ति ये।
(ब्रह्म० २१२। ८९-९०)

आप देख रहे हैं, इस समय संसारमें सभी ओर कितना परिवर्तन हो रहा है। भारतवर्षमें सैकड़ों राजा थे, सब स्वतन्त्र थे, आज एकका भी शासन नहीं रहा। अतएव यदि धनियोंका धन ह्रास हो रहा है तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है। धनका आना और जाना—दोनों ही कर्माधीन हैं। अपने ही किये हुए कर्मोंका अवश्यम्भावी फल है। दूसरे लोग तो निमित्त बनते हैं। अवश्य ही बुरेमें निमित्त बनना पाप है और स्वार्थवश इस प्रकारका पाप करनेवाले उसका फल-दु:ख भोगनेके लिये बाध्य हैं। आपने तोड़-फोड़ करने, लूट-मार मचाने, घरोंमें, खेतोंमें आग लगाने आदिकी बातें लिखीं सो सत्य हैं। ये सब बहुत बुरी बातें हैं; परंतु आजकल यह समझाया जा रहा है कि ऐसा करना चाहिये! यह भी किसी एक वादके सिद्धान्तका अंग है! लेकिन बुरी चीज, किसीके सिद्धान्त मान लेनेसे ही अच्छी नहीं हो जाती। न उसे कल्याणकारी ही माना जा सकता है। हमारे यहाँ तो ऋषियोंने कहा है—‘जो मनुष्य नगर, खेत, घर और गाँवमें आग लगाता है, उस मूढ़को कल्पपर्यन्त महारौरव नरकमें जलना पड़ता है’—

पुरं क्षेत्रं गृहं ग्रामं यो दीपयति वह्निना॥
स तत्र दह्यते मूढो यावत् कल्पस्थितिर्नर:।
(ब्रह्म० २१५।१००-१०१)

यहाँ भी ऐसे मनुष्य दिन-रात जलते ही रहते हैं। दूसरोंके अनिष्टमें ही अपना इष्ट माननेवाले लोग कहीं भी सुखी नहीं हो सकते।

असल बात तो यह है—यह सब कुछ, जो हो रहा है, भगवान‍्की लीला है। इसको देखते रहना चाहिये और जहाँतक हो सके, अपने कर्तव्यके पालनका प्रयत्न करना चाहिये; पर सब कुछ करना चाहिये श्रीभगवान‍्का भजन करते हुए ही। ‘कोटिं त्यक्त्वा हरिं भजेत्।’ करोड़ काम छोड़कर भगवान‍्का भजन करे। यही हमारा-आपका मुख्य कर्तव्य है। भगवान‍्ने श्रीमद्भगवद‍्गीतामें कहा है—

योगिनामपि सर्वेषां मद‍्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(६। ४७)

‘समस्त योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् पुरुष मुझ (भगवान्)-में लगे हुए अन्तरात्मासे निरन्तर मुझको भजता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।’ शेष भगवत्कृपा।

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