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शान्ति कैसे मिले?

सादर हरिस्मरण! आपका कृपापत्र यथासमय मिल गया था। उत्तरमें देरी हुई, कृपया क्षमा करें।

आपने अपनी जैसी स्थिति लिखी है, उस अवस्थामें आजकल अधिकांश व्यवसायी और नवयुवक दिखायी देते हैं। यह प्रसन्नताकी बात है कि आपको अपनी इस प्रमादपूर्ण प्रवृत्तिसे असन्तोष है। जिसपर भगवान‍्की विशेष कृपा होती है और जिसके अन्त:करणके शुभ संस्कार एकदम दब नहीं जाते, उस बड़भागीको ही अपने दोषोंका ज्ञान होता है। अत: आपका यह असन्तोष तो आपके लिये बड़े हितकी बात है।

आप लिखते हैं कि ‘मैं अपने लिये भी झूठसे कुछ बचा लेता हूँ.....तथापि मुझे शान्ति नहीं मिलती।’ सो क्या पैसोंसे आजतक किसीको शान्ति मिली है? संसारमें ईर्ष्या, द्वेष, लोभ और तृष्णा ही तो अशान्तिके मूल हैं और इन सबका मूल पैसेका प्यार है। यदि शान्ति पानी है तो आपको पैसेकी प्रीति छोड़नी होगी। पैसा ही नहीं, संसारकी कोई भी वस्तु हमें सुख-शान्ति तभी दे सकती है, जब हम उसके गुलाम न रहकर स्वामी बने रहें, अर्थात् उसके रागसे मुक्त रहकर उसका अनासक्तिसे उपार्जन और उपयोग कर सकें। आपके अंदर जो पहलेके शुभ संस्कार हैं, वे ही आपको उस तृष्णाके दलदलसे निकलनेको उत्साहित करते हैं, किंतु स्वार्थ और लोभका धक्‍का फिर उसीमें ढकेल देता है। अपनी इस दुर्बलताको भगवान‍्के जिम्मे मढ़ना तो बहुत बड़ा धोखा है। आप सोचिये, जिसने श्रीभगवान‍्को आत्मसमर्पण कर दिया है, उसका क्या कोई अन्य स्वार्थ रहता है। स्वार्थ तो अभीतक है, जबतक हम अपनी एक पृथक् और स्वतन्त्र सत्ता बनाये हुए हैं और जबतक स्वार्थ है, तभीतक यह प्रमाद या अनाचार है।

यह हमारी बहुत बड़ी भूल है कि हम असत्यके द्वारा कुछ विशेष लाभ उठानेकी आशा रखते हैं। हानि-लाभ तो मनुष्यके प्रारब्धाधीन हैं। देखिये बड़े-बड़े शहरोंमें सभी व्यापारी पैसा पैदा करनेका अथक उद्योग करते हैं, किंतु उन सबको समान सफलता नहीं मिलती। यह भी नहीं कह सकते कि उनमें जिसे अधिक सफलता मिलती है, उसका उद्योग औरोंसे बढ़कर होता है। कई बार सुचतुर व्यापारी फेल हो जाते हैं और अनुभवशून्य लोग धन पैदा कर लेते हैं। अत: व्यवसायमें सच्ची कुशलता तो सचाई और ईमानदारी ही है। इससे प्रारब्धदोषवश वह भले ही धन पैदा न कर सके तथापि अन्य व्यापारियोंमें उसकी साख तो हो ही जाती है। असलमें शान्तिका उपाय तो यही है कि हानि-लाभसे निरपेक्ष रहकर केवल कर्तव्यबुद्धिसे पूरी सचाईके साथ काम किया जाय। सच्चा धनी तो वही है, जिसे धनकी चाह नहीं है। जो अधिक धन चाहता है, वह तो भले ही करोड़पति कहा जाय, धनका दास ही है! वह कभी शान्ति नहीं पा सकता। शान्ति तो हमारे अंदर है। हम जितना-जितना उसे बाहरके साधनोंसे ढूँढ़ेंगे, उतने ही उससे दूर होकर अधिक अशान्त होते जायँगे। इसलिये यदि आप शान्ति चाहते हैं तो त्यागवीर बनिये और सारी दुर्बलताओंपर विजय पाकर शान्ति-साम्राज्यका उपभोग कीजिये। इसमें भगवन्नामका आश्रय और सच्चे हृदयसे की हुई प्रार्थना बहुत सहायक है। जब हृदयमें पश्चात्तापकी अग्नि प्रज्वलित होती है, तब पाप-तापका सारा कूड़ा-कचरा भस्म हो जाता है। जो सारे प्रयत्नोंको छोड़कर श्रीभगवान‍्के सामने दीन हो जाता है, प्रभु उसे अत्यन्त बल प्रदान करते हैं, जिससे वह फिर मायाकी मरुमरीचिकामें भ्रमित नहीं हो सकता।

‘आजकल सब जगह ऐसा ही होता है’—यह कहना ठीक नहीं है। इसमें अपनी दुर्बलताको छिपाकर बुराईका समर्थन करना होता है, जो और भी दुर्बलताका द्योतक है। संसारमें भलाई और बुराई तो सदा ही रहती है; किंतु नियम कुछ ऐसा है कि हमारा जैसा संकल्प होता है, वैसी ही दुनिया हमारे सामने रहती है। यदि आप अपनी दृष्टिको निर्दोष बना लें तो आप जिस मार्गपर भी चलेंगे, वही आपके लिये निर्दोष हो जायगा। पवित्र जीवन व्यतीत करनेके लिये व्यवहारको छोड़कर जंगलमें जानेकी जरूरत नहीं है। आप सचाईके साथ कार्य करनेका दृढ़ निश्चय कर लेंगे तो इसमें आपको कोई विशेष अड़चन मालूम नहीं होगी। यह भय तो तभीतक है, जबतक आप सचाईकी अपेक्षा बाह्य वस्तुओंकी अधिक कदर करते हैं।

आपने चार आदमियोंके मालिकसे छिपाकर किये हुए कार्यके विषयमें पूछा, सो यदि उस कामसे मालिकका कोई सम्बन्ध नहीं है और कुछ नुकसान भी नहीं हुआ है तो उसे मालिकसे कहनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे दूसरे लोगोंको हानि पहुँचेगी और व्यर्थ राग-द्वेष बढ़ेगा। हाँ, स्वयं श्रीभगवान‍्से क्षमा माँगकर और उसका प्रायश्चित्त भी करके फिर कभी वैसा न करनेका निश्चय अवश्य कर लेना चाहिये।

आप पूछते हैं कि ‘मनुष्य जो चाहे सो कर सकता है या वह ईश्वरके हाथकी कठपुतली है?’ इस विषयमें शास्त्रोंका ऐसा मत है कि जीव कर्म करनेमें तो स्वतन्त्र है, किंतु उसके कर्मका फल श्रीभगवान‍्के हाथमें है। परंतु यह कर्म करनेकी स्वतन्त्रता उसे दी है भगवान‍्ने ही, अत: वास्तवमें वह सर्वथा श्रीभगवान‍्के अधीन है। तथापि अपनी इस स्वतन्त्रताके कारण उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपना कर्तृत्वाभिमान मिटाकर अपनेको श्रीभगवान‍्के हाथकी कठपुतली बना दे। इस प्रकार कर्म करनेमें जीव स्वतन्त्र है, किंतु उसे याद रखना चाहिये कि उसकी यह स्वतन्त्रता भगवान‍्की दी हुई है; तथा वह श्रीभगवान‍्के हाथकी कठपुतली बन सकता है। किंतु तभी, जब वह अपना कर्तृत्वाभिमान मिटाकर भगवान‍्को आत्मसमर्पण कर दे। इन दोनों दृष्टियोंमेंसे किसीपर भी स्थिर रह जाय तो प्रमाद नहीं हो सकता। प्रमाद तो तभी होता है, जब जीव या तो श्रीभगवान‍्को भूलकर अपनेको ही कर्ता-धर्ता समझ ले या अपनी मनोमुखी प्रवृत्तिमें श्रीभगवान‍्के प्रेरकत्वका आरोप कर दे।

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